आदमी के अदृश्य होने का आइडिया बरसों पुराना है, लेकिन इस आइडिये में इतना दम है कि इस पर कई तरह की फिल्में बनाई जा सकती हैं। सारा सवाल आपकी कल्पनाशीलता का है। समय-समय पर फिल्में भी बनती रही हैं और विक्रम भट्ट की 'मि. एक्स' भी इसी पर आधारित है। विक्रम ने आइडिया तो अच्छा लिया, लेकिन इसके इर्दगिर्द जो उन्होंने कहानी बुनी वो इतनी लचर है कि दर्शक सिनेमाघर से गायब हो जाना चाहता है।
रघुराम राठौर (इमरान हाशमी) और उसकी गर्लफ्रेंड सिया वर्मा (अमायरा दस्तूर) एंटी टेररिस्ट डिपार्टमेंट में काम करते हैं। उनकी शादी के एक दिन पहले उनका बॉस भारद्वाज (अरुणोदय सिंह) दोनों को बुलाता है और बताता है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री की जान को खतरा है।
भारद्वाज, तिवारी (सुशील पांडे) और आदित्य दत्ता (जिग्नेश जोशी) एक षड्यंत्र रचते हैं और रघु को मुख्यमंत्री की हत्या करने के लिए मजबूर कर देते हैं। हत्या करने के बाद रघु भागते हुए एक केमिकल फैक्ट्री में छिप जाता है जिसमें भारद्वाज और उसके साथी आग लगाकर विस्फोट कर देते हैं। वे यह मान लेते हैं कि रघु मर गया, लेकिन बुरी तरह जला हुआ रघु किसी तरह बच जाता है। वह अपने साथी पोपो (तन्मय भट्ट) को बुलाता है जो रघु को एक लेबोरेटरी में ले जाता है। वहां पोपो की बहन (श्रुति उल्फत) एक दवाई रघु को पीने की देती है। रघु ठीक तो हो जाता है, लेकिन उसे सिर्फ धूप और ब्लू नियॉन लाइट में ही देखा जा सकता है।
इधर रघु से सिया नफरत करने लगती है क्योंकि वह मुख्यमंत्री का हत्यारा है। रघु मि. एक्स बन खलनायकों से बदला लेता है। सिया जान जाती है कि मि. एक्स कौन है और वह भारद्वाज को इस बारे में बता देती है। किस तरह रघु अपना बदला लेता है यह फिल्म का सार है।
विक्रम भट्ट ने फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है, लेकिन दोनों ही कामों को उन्होंने घटिया तरीके से निपटाया है। विक्रम को लगा कि गायब होने वाला आइडिया और थ्री-डी इफेक्ट्स का कमाल देख कर ही दर्शकों को मजा आ जाएगा, लिहाजा उन्हें जो सूझा वो लिखा और इस बात की परवाह भी नहीं की दर्शकों के पास भी दिमाग होता है। साथ ही निर्देशक के रूप में कहानी को ऐसे पेश किया है कि कही से भी फिल्म मनोरंजन नहीं करती।
फिल्म की प्रमुख कड़ियां अत्यंत ही कमजोर है। रघु का अदृश्य होने वाला प्रसंग कही से भी ऐसा नहीं है कि दर्शक रोमांचित हो जाए। रघु बुरी तरह जल जाता है, उसके सिर के बाल जल जाते हैं, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि उसके कपड़े सही सलामत रहते हैं।
ये बात समझ से परे है कि सिया को रघु ये बात क्यों नहीं बताता कि भारद्वाज ने षड्यंत्र कर उसके द्वारा मुख्यमंत्री की हत्या करवाई है, इससे सिया की सारी गलतफहमी दूर हो जाती और रघु के काम में सिया बाधा नहीं पहुंचाती। इतनी कमजोर नींव पर फिल्म की इमारत (स्क्रीनप्ले) रखी गई है। ये सवाल बार-बार फिल्म देखते समय परेशान करता रहता है, लिहाजा फिल्म से जुड़ाव महसूस नहीं होता।
विक्रम भट्ट का निर्देशन भी कमजोर है। हीरो के अदृश्य होने से पैदा होने वाले रोमांच को दिखाने में वे असफल रहे हैं। फिल्म में ज्यादातर समय हीरो दिखाई देता है और इसी बात से समझ में आ जाता विक्रम कितने कल्पनाशील हैं। फिल्म में एक सीन से दूसरे सीन में जुड़ाव नहीं है। विक्रम द्वारा पेश किए किरदार अजीब तरह से व्यवहार करते हैं। उन्होंने फिल्म को थ्री-डी फॉर्मेट में बनाया है, लेकिन यह मात्र पैसे की बरबादी रही क्योंकि थ्री-डी इफेक्ट्स खास प्रभावित नहीं करते। फिल्म में उन्होंने भगवान कृष्ण और हीरो के साथ होने वाले चमत्कारों को जोड़ने की बचकानी कोशिश भी की है।
फिल्म का संगीत थका हुआ है। यही हाल फिल्म के हीरो इमरान हाशमी का भी है। एक ही एक्सप्रेशन लिए वे पूरी फिल्म में घूमते रहे और लगा कि बेमन से वे काम कर रहे हैं। अमायरा दस्तूर चीखने और चिल्लाने को ही अभिनय समझती हैं। अरुणोदय सिंह प्रभाव छोड़ने में असफल रहे।
कुल मिलाकर 'मि. एक्स' सिनेमाघरों से गायब होने में ज्यादा वक्त नहीं लेगी।