डार्क और गालियों से भरपूर फिल्म बनाने वाले निर्देशक अनुराग कश्यप ने इस बार थोड़ा मिजाज बदला है। 'मुक्काबाज' में गालियां सुनने को नहीं मिली और एक प्रेम कहानी भी उनकी फिल्म में दिखाई देती है। मुक्केबाज की बजाय मुक्काबाज नाम क्यों है, यह फिल्म में एक दृश्य के माध्यम से दिखाया गया है।
फिल्म की कहानी परिचित सी लगती है। एक खिलाड़ी को किस तरह से राजनीतिक ताकतें रोकती हैं और उत्तर प्रदेश में गुंडागर्दी किस स्तर तक पहुंच गई है ये फिल्मों में कई बार दर्शाया जा चुका है। इस चिर-परिचित कहानी को अलग बनाता है अनुराग कश्यप का प्रस्तुतिकरण। उन्होंने खेल और राजनीति को आपस में गूंथ कर अपनी नजर से कहानी को दिखाया है।
यह कहना मुश्किल है कि प्रेम कथा की पृष्ठभूमि में बॉक्सिंग और राजनीति है या राजनीति और बॉक्सिंग की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानी। इसे अनुराग का कमाल भी मान सकते हैं कि उन्होंने बढ़िया संतुलन बनाए रखा।
श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) बॉक्सर के रूप में नाम कमाना चाहता है और इसके लिए वह भ्रष्ट नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) की सेवा में जुटा रहता है क्योंकि बॉक्सिंग फेडरेशन में भगवान की तूती बोलती है। भगवान की भतीजी सुनयना (ज़ोया हुसैन) को श्रवण चाहने लगता है। सुनयना भी उसे पसंद करती है।
भगवान दास के व्यवहार के कारण श्रवण उससे पंगा ले लेता है तो भगवान दास भी कसम खा लेता है कि खिलाड़ी के रूप में वह श्रवण का करियर बरबाद कर देगा। जब भगवान दास को सुनयना और श्रवण की मोहब्बत के बारे में पता चलता है तो उसका गुस्सा और बढ़ जाता है। इसके बाद श्रवण और सुनयना का जीना भगवान दास मुश्किल कर देता है।
इस कहानी में कई मुद्दों को समेटा गया है। जातिवाद, खेलों में राजनीति, गुंडागर्दी, गौ-रक्षा के नाम पर हत्याएं, गौ-मांस को लेकर राजनीति, खेल में बाहुबलियों का प्रवेश, नौकरी में खिलाड़ियों की स्थिति जैसी बातों को फिल्म में जोरदार तरीके से दिखाया गया है।
श्रवण जितना बॉक्सिंग के रिंग में लड़ता है उससे ज्यादा लड़ाई उसे रिंग से बाहर लड़ना पड़ती है। एक साथ दो मोर्चों पर लड़ते हुए उसके दर्द और झल्लाहट को निर्देशक ने इस तरह से पेश किया है कि दर्शक इसको महसूस कर सकते हैं।
कहानी बरेली में सेट है और उत्तर प्रदेश की भयावह स्थिति को दर्शाती है। जहां टूर्नामेंट होना है वहां मंत्री के रिश्तेदार की शादी हो रही है। खेल में अम्पायर की नहीं गुंडों की चलती है। सिलेक्शन में भी उनका दखल है। बॉक्सर को मिलने वाली खुराक से तो शतरंज खिलाड़ी का भी पेट नहीं भरे। ऑफिस में खिलाड़ियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।
इसके साथ ही यह भी दिखाया गया है कि लाख कोशिशों के बावजूद भी जातिवाद की ज़हरीली लहर अभी भी चल रही है। दलित को अभी भी अलग जग या गिलास में पानी पिलाया जाता है। नाम से ज्यादा सरनेम को महत्व मिलता है। गाय के नाम पर खूब राजनीति चल रही है।
फिल्म की नायिका को गूंगा दिखाया गया है जो उस इलाके की महिलाओं की स्थिति को बयां करती है। महिलाओं को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है। ये सारी बातें कई छोटे-छोटे दृश्यों के जरिये दिखाई गई है।
इंटरवल तक तो फिल्म फर्राटे से चलती है और परदे पर चल रहा घटनाक्रम आपको बैचेन करता है। कुछ बेहतरीन सीन भी देखने को मिलते हैं, जैसे श्रवण और उसके पिता की नोकझोंक। एक आम पिता की तरह वे परेशान रहते हैं कि बेटे की नौकरी लगे और श्रवण की झटपटाहट कि वह कोशिश तो कर रहा है। अपने पिता को वह खूब सुनाता है।
इंटरवल के बाद कई जगह महसूस होता है कि फिल्म को लंबा खींचा जा रहा है। 'मुक्काबाज' एक रूटीन फिल्म की तरह कई जगह हो जाती है। आसानी से फिल्म को 20 मिनट छोटा किया जा सकता था।
अनुराग कश्यप अपने निर्देशन से प्रभावित करते हैं। एक साधारण सी कहानी को उन्होंने अपने निर्देशन के जरिये शानदार तरीके से पेश किया है। कई मुद्दों पर उन्होंने पंच लगाए हैं, कुछ हवा में गए हैं तो कुछ चेहरे पर जोरदार तरीके से लगे हैं। रियल लोकेशन पर उन्होंने फिल्म को शूट किया है जो फिल्म को ताकत देता है।
अनुराग ने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय लिया और कई दृश्यों को आक्रामकता के साथ पेश किया है। 'आइटम बॉय' के प्रति उनका आकर्षण कायम है और नवाजुद्दीन सिद्दीकी से एक गाना उन्होंने कराया है। गानों का फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है। श्रवण और सुनयना की प्रेम कहानी को भी उन्होंने बखूबी दर्शाया है। सेकंड हाफ में जरूर उनके हाथों से फिल्म कई बार फिसली है और इसकी वजह से ठहरी हुई सी महसूस होती है।
विनीत सिंह ने तो ऐसे अभिनय किया मानो इसी रोल के लिए वे पैदा हुए हों। बॉक्सर जैसी फिजिक उन्होंने बनाई है और उनके बॉक्सिंग वाले सारे दृश्य असली लगते हैं। उनके अभिनय की त्रीवता देखने लायक है। उनके अंदर धधकती आग की आंच महसूस होती है।
ज़ोया हुसैन का किरदार गूंगा है, लेकिन वे अपनी आंखों और चेहरे के एक्सप्रेशंस के जरिये कई बातें बोल जाती हैं। जिमी शेरगिल अब इस तरह के रोल में टाइप्ड हो गए हैं। हालांकि उनका अभिनय देखने लायक है। रवि किशन छोटे-से रोल में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनका रोल लंबा होता, ऐसा महसूस होता है। अन्य सारे सपोर्टिंग एक्टर्स का योगदान भी तारीफ के काबिल है।
रचिता अरोरा का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। उनके गानों से फिल्म आगे बढ़ती है और सारे गाने सिचुएशनल हैं।