फोबिया : फिल्म समीक्षा

कई किस्म के 'फोबिया' होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ फोबिया रहता है। पवन कृपलानी की फिल्म 'फोबिया' की नायिका महक (राधिका आप्टे) को एगोराफोबिया है। इस फोबिया से ग्रस्त इंसान को अनजान एवं खुली या सार्वजनिक जगहों पर जाने से डर का एहसास होता है।
 
महक के साथ एक टैक्सी ड्राइवर ने लूटपाट की थी और उसके बाद वह घर से बाहर निकलने में ही डरने लगी। उसका दोस्त/  बॉयफ्रेंड शान (सत्यदीप मिश्रा) उसका इलाज करवाता है पर कोई फायदा नहीं होता। शान अपने दोस्त के फ्लैट में महक को ले जाता है ताकि जगह बदलने से महक का डर कम हो, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ जाता है। घर में सुरक्षित महसूस करने वाली महक को घर में ही डर लगने लगता है। उसे तरह-तरह की चीजें नजर आती हैं और स्थिति बद से बदतर हो जाती है। 
 
पवन कृपलानी द्वारा लिखी कहानी बहुत ही संक्षिप्त है और यहां पर सारा दारोमदार स्क्रिप्ट और निर्देशक पर टिका हुआ है। ऐसे सीन रचने होते हैं जो भले ही कहानी को आगे नहीं बढ़ाए, लेकिन दर्शकों को बांध कर रखे। यहां पात्र भी बहुत कम हैं, लेकिन पवन ने अपना काम बखूबी किया है।
पहले हाफ में वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। कुछ दृश्यों में रोमांच पैदा होता है तो कुछ में डर लगता है। बिना तेज आवाजों, अंधेरे और खतरनाक चेहरों के दर्शकों को चौंकाया और रोमांचित किया गया है। साथ ही दर्शकों की इस उत्सुकता को बरकरार रखा है कि आगे क्या होने वाला है।   
 
दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी लंबी खींची गई है, लेकिन फिल्म के अंतिम 15 मिनट जबरदस्त हैं। कहानी यू टर्न लेती है और आप सीट से चिपक जाते हैं।

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पवन कृपलानी का निर्देशन उम्दा है और फिल्म पर उनकी पकड़ है। एगोराफोबिया थीम का उन्होंने अच्छा इस्तेमाल किया है। एक रोमांच से भरी कहानी को उन्होंने उम्दा तरीके से परदे पर पेश किया है। उन्होंने दर्शकों को चौंकाने के लिए कुछ अतिरिक्त करने की कोशिश नहीं की है। सीमित पात्रों में बोरियत का खतरा भी पैदा होता है, लेकिन पवन इससे अपनी फिल्म को बचा कर ले गए। उनकी सबसे बड़ी सफलता यह रही कि पूरी फिल्म में वे दर्शकों को जोड़े रखने में सफल रहे हैं।  
 
स्क्रिप्ट में सबसे बड़ी खामी यह है कि जब महक को डर लगता है तो उसे अकेला रखा ही क्यों जाता है? जब उसका इलाज चल रहा होता है तो उसके पास में चाकू क्यों रखा जाता है? 
 
तकनीक रूप से फिल्म बहुत मजबूत है। करण गौर के बैकग्राउंड म्युजिक का उम्दा इस्तेमाल किया गया है। जरूरी नहीं है कि तेज आवाज से ही डर पैदा होता है, पानी टपकने या चीजों के गिरने की आवाज भी भय पैदा करती है। वातावरण में पैदा होने वाली ध्वनियों, जैसे दूर कहीं बजता गाना या दूर के फ्लैट से आती आवाजों से अच्छा माहौल बनाया गया है। 
 
जयकृष्णा गुम्माडी की सिनेमेटोग्राफी उम्दा है और फिल्म को गहराई देती है। पूजा लड्ढा सुरती का संपादन तारीफ के योग्य हैं। 
 
इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है इसके कलाकारों का अभिनय। राधिका आप्टे ने कमाल का अभिनय किया है। एगोराफोबिया से ग्रस्त लड़की का भय उन्होंने बखूबी दिखाया है। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें खूब बोलती हैं। हर दृश्य में उनका दबदबा नजर आता है। सत्यदीप मिश्रा अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। महक की पड़ोसी के रूप में यशस्विनी का अभिनय भी उम्दा है। 
 
साइकोलॉजिकल थ्रिलर '‍फोबिया' देखने के बाद आप महसूस कर सकते हैं कि आपने एक अधपकी कहानी पर आधारित फिल्म देखी है, लेकिन इस बात की तसल्ली होती है कि फिल्म ने आपको रोमांचित किया है। 
 
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्शन 
निर्देशक : पवन कृपलानी 
कलाकार : राधिका आप्टे, सत्यदीप मिश्रा, यशस्विनी, अंकुर विकल 
सेंसर सर्टिफिकेट : ए 
रेटिंग : 3/5 

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