RRR Movie Review आरआरआर फिल्म समीक्षा: एसएस राजामौली ऐसे निर्देशक हैं जो अपनी कल्पना से कहानी को भव्यतम रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके प्रस्तुतिकरण में हर उम्र और वर्ग के दर्शक का ध्यान रखा जाता है। के. विजयेन्द्र प्रसाद बहुत ही ठोस कहानी लिखते हैं जो देशी होती है और इमोशन उसमें बहता रहता है। ये दोनों जब मिल जाते हैं तो ब्लॉकबस्टर फिल्म का निर्माण होता है जो पहले देखा जा चुका है और बॉक्स ऑफिस पर साबित भी हुआ है। राजामौली और विजयेन्द्र प्रसाद की सुपरहिट जोड़ी 'आरआरआर: राइज़ रोर रिवोल्ट' लेकर आई है जिसका लंबे समय से दर्शक इंतजार कर रहे थे।
के विजयेन्द्र प्रसाद और राजामौली कहानी के किरदारों पर खूब मेहनत करते हैं। कैरेक्टर्स को इस तरह से दिखाया जाता है कि दर्शक उनको चाहने लगते हैं। आरआरआर में दो मुख्य किरदार हैं, भीमा (एनटीआर जूनियर) और सीताराम राजू (रामचरण), जिनके इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है। राम और भीमा का स्वभाव, बहादुरी, विशेषताएं बताने में राजामौली ने खासा समय खर्च किया है। इतना ज्यादा कि अखरने लगता है क्योंकि कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। राम 'आग' है तो भीमा 'पानी'। रामायण और महाभारत की भी मदद ली है। भीमा 'भीम' जैसा खाता और जरूरत पड़ने पर हनुमान बन जाता है। बहादुर इतना कि शेर से लड़ लेता है और बाइक को गोल-गोल घूमा कर फेंक देता है। खून से स्नान करता है। राम ताकतवर होने के साथ-साथ दिमाग का भी इस्तेमाल करता है और अंग्रेजों से बचपन से नफरत करता है। इन दोनों कैरेक्टर्स की विशेषताएं बताने के लिए कई दृश्य रचे गए हैं जिनमें से कुछ रोमांचित करते हैं तो कुछ सपाट हैं।
कहानी उस दौर की है जब भारत पर अंग्रेजों का राज था। भीम के कबीले से एक 10-12 साल की लड़की माली को अंग्रेज उठा कर दिल्ली ले जाते हैं। इस बच्ची को छुड़ाने के लिए भीम दिल्ली पहुंच जाता है। यह खबर अंग्रेजों को लग जाती है। भीम को ढूंढने और पकड़ने की जिम्मेदारी राम लेता है जो अंग्रेजों की सेना में भारतीय सिपाही है। ये दोनों एक-दूसरे की पहचान से अंजान है। दोनों दोस्त बन जाते हैं। क्या होता है जब भेद खुलता है? क्या बच्ची को भीमा छुड़ा पाएगा? क्या भीमा को राम पकड़ लेगा? राम अंग्रेजों के लिए काम क्यों कर रहा है? इन सारे सवालों के जवाब धीरे-धीरे सामने आते जाते हैं।
के. विजयेन्द्र प्रसाद की कहानी 'मजबूत' नहीं है। उन्होंने सारा फोकस राम और भीम की दोस्ती-दुश्मनी पर ही रखा है। उन्होंने कोशिश की है कि दर्शक इन दोनों हीरो के 'प्रेम' और 'भाईचारे' में इस कदर डूब जाए कि दूसरी बातों के बारे में न सोचे। फिल्म खत्म होने के बाद यदि आप कहानी के बारे सोचते हैं तो खाली हाथ रहते हैं। इन दोनों 'स्टार्स' के 'स्टारडम' के तले कहानी दब गई। दोनों को 'हीरोगिरी' दिखाने के लिए खुला मैदान तो दे दिया गया, लेकिन कहानी के अभाव में ये स्टारडम ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाता।
पहले घंटा तो फिर भी देखा जा सकता है क्योंकि राजामौली इन दोनों स्टार्स के सहारे दर्शकों को चमत्कृत करते हैं। राम और भीमा द्वारा नदी में आग से घिरे लड़के की जान बचाना, भीमा का शेर से लड़ना, भीमा-राम की दोस्ती, भीमा और अंग्रेज महिला की लव स्टोरी जैसे प्रसंग बीच-बीच में आते रहते हैं जो मनोरंजन करते हैं। लेकिन दूसरे घंटे में कहानी ठहर जाती है।
राम को बहुत स्मार्ट दिखाया गया है लेकिन भीमा को ढूंढने की खास कोशिश करते वह नजर नहीं आता। भीमा को जिस बच्ची की तलाश है वो बात भी एक जगह आकर ठहर जाती है। कहानी पर ब्रेक लग जाता है। राम अंग्रेजों के लिए क्यों काम कर रहा है ये सवाल दर्शकों को परेशान करता है जिसका जवाब देने में बहुत देर लगाई गई, तब तक राम भारतीयों पर बहुत अत्याचार करते नजर आता है और ये सीन कमर्शियल मूवी में अच्छे नहीं लगते। ब्रिटिशर्स बच्ची माली के लिए इतना क्यों लड़ते हैं, यह फिल्म का कमजोर पाइंट है। फिल्म का विलेन भी कमजोर है जिससे राम और भीमा की लड़ाई प्रभाव नहीं बन पाई।
इंटरवल पाइंट पर राजामौली ने फिल्म को अहम मोड़ देने की कोशिश की है, जिससे दूसरे हाफ के बेहतर होने की उम्मीद जागती है, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म का ग्राफ नीचे आ जाता है। अजय देवगन वाला सीक्वेंस उबाऊ है और इसे हटा भी दिया जाए तो फिल्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सिर्फ हिंदी फिल्मों के दर्शकों को लुभाने के लिए अजय वाला किरदार कहानी से जोड़ा गया है जो बेअसर है। यही हाल आलिया भट्ट का है। मटकी पकड़ा दी गई है ताकि आलिया गांव की लड़की लगे, लेकिन आलिया का 'शहरीपन' जाता नहीं है।
फिल्म का क्लाइमैक्स बढ़िया है। राम जब भगवान श्रीराम के अवतार में आकर अंग्रेजों पर बाणों की वर्षा करता है तो सीन देखने लायक बन गया है। क्लाइमैक्स में फिल्म का लेवल ऊंचा हो जाता है और दर्शकों को रोमांचित करता है।
विजयेन्द्र प्रसाद की कहानी पर राजामौली ने स्क्रीनप्ले लिखा है। स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि फिल्म दौड़ती-भागती नजर आती है और कहानी के ऐब छिप जाते हैं। उतार-चढ़ाव और 'ब्लॉकबस्टर दृश्यों' के जरिये उन्होंने दर्शकों को सम्मोहित किया है। निर्देशक के रूप में राजामौली ने डिटेल्स पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उस दौर में बोली जाने वाली भाषा, कॉस्ट्यूम्स और लुक पर उन्होंने मेहनत नहीं की है, इसके बजाय उन्होंने दृश्यों को मनोरंजक बनाने पर ध्यान दिया है। फिल्म के नाम पर उन्होंने छूट भी ली है और 'लॉजिक' से ज्यादा 'एंटरटेनमेंट' का ध्यान रखा है। कुछ जगह यह सही लगता है तो कुछ जगह गलत। उन्होंने फिल्म को भव्य बनाया है, हालांकि फिल्म इतनी भव्य भी नहीं लगती जितना कि इसके बजट को लेकर बातें हो रही हैं।
फिल्म में गाने मिसफिट लगते हैं। केके सेंथिल कुमार की सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है। एक्शन सीन उन्होंने सफाई के साथ शूट किए हैं। निक पॉवेल ने एक्शन और स्टंट्स को बखूबी कोरियोग्राफ किए हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है। तकनीशियनों ने फिल्म को भव्यता प्रदान की है।
एनटीआर जूनियर का अभिनय शानदार है। उन्होंने अपने किरदार को बारीकी से पकड़ा और दर्शकों का मनोरंजन किया है। कॉमिक टाइमिंग उनकी बढ़िया है और देशी एक्शन में वे जमे हैं। रामचरण का अभिनय भी उम्दा है और खासतौर पर एक्शन सीन उन्होंने अच्छे से किए हैं। एनटीआर जूनियर और रामचरण की जोड़ी स्क्रीन पर अच्छी लगती है। अजय देवगन और आलिया भट्ट का रोल और अभिनय उनके स्तर के अनुरूप नहीं है। श्रिया सरन महज दो-चार सीन में नजर आती हैं। बाकी सपोर्टिंग एक्टर्स का सपोर्ट अच्छा है।
आरआरआर को 'वन टाइम वॉच' कहा जा सकता है, लेकिन राजामौली जैसे निर्देशक से जो उम्मीद रहती है उस स्तर तक फिल्म नहीं पहुंचती। राजामौली से हम 'ठहरा हुआ सिनेमा' नहीं बल्कि 'आगे ले जाता हुआ सिनेमा' चाहते हैं।