खेलों पर आधारित फिल्में बॉलीवुड में पिछले कुछ वर्षों से बनने लगी हैं और चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग, मैरीकॉम और पान सिंह तोमर जैसी बेहतरीन फिल्में देखने को मिली। अजहर और धोनी पर भी फिल्म बन रही है। इसी बीच राजकुमार हिरानी और आर माधवन द्वारा निर्मित 'साला खड़ूस' रिलीज हुई है जिसकी पृष्ठभूमि में बॉक्सिंग का खेल है।
खड़ूस का इस्तेमाल बॉक्सिंग के कोच आदि तोमर (आर माधवन) के लिए किया गया है जो मुंहफट है और किसी से डरता नहीं है। दुनिया ऐसे खड़ूस लोगों को कम बर्दाश्त कर पाती है क्योंकि सच सुनने की ताकत कम लोगों में रहती है। फेडरेशन के बड़े अधिकारी से भिड़ने के बदले में उसका ट्रांसफर हिसार से चेन्नई कर दिया जाता है जो कि बॉक्सिंग के मामले में बहुत कमजोर है।
आदि जानता है कि कई प्रशिक्षक नौकरी बचाने और कई खिलाड़ी नौकरी पाने के लिए इस खेल से जुड़े हुए हैं। उसकी पारखी नजर तो ऐसे खिलाड़ी को ढूंढ रही है जिसमें आग हो। मच्छी बेचने वाली झोपड़पट्टी की लड़की मधि (ऋतिका सिंह) पर आदि की नजर पड़ती है। अपनी जेब से आदि पांच सौ रुपये रोजाना मधि को देता है और उसे बॉक्सिंग का प्रशिक्षण देता है। खड़ूस लोग ही ऐसा कर सकते हैं।
आदि भी बॉक्सर था, जिसके साथ साजिश होती है और उसका विश्व चैम्पियन बनने का सपना अधूरा रह जाता है। मधि के सहारे वह सपना पूरा करना चाहता है, लेकिन मधि का गुस्सैल व्यवहार, बहनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता, खेल में राजनीति, आदि का अक्खड़ व्यवहार जैसी कई रूकावटें आदि के रास्ते में हैं।
सुधा कोंगरा द्वारा निर्देशित इस फिल्म की शुरुआत बढ़िया है। आदि का खड़ूसपन और आग उगलती मधि से फिल्म उम्मीद जगाती है, लेकिन धीरे-धीरे यह फिल्म 'चक दे इंडिया' की राह चलने लगती है। हॉकी की जगह बॉक्सिंग ने ले ली। फिल्म में कई बार खेल पीछे छूटता नजर आता है और यह गुरु-शिष्य की फिल्म बन जाती है।
फिल्म यूं तो एक बार देखी जा सकती है, लेकिन स्क्रिप्ट की कुछ खामियां अखरती हैं। चूंकि इस तरह की फिल्मों में आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है इसलिए उतार-चढ़ाव डालने के लिए कुछ बातें डाली गई हैं जो गैरजरूरी लगती हैं। जैसे मधि की बड़ी बहन भी बॉक्सर है और केवल पुलिस में नौकरी पाने के लिए बॉक्सिंग कर रही है। उसका अपनी छोटी बहन से ईर्ष्या करने वाली बात फिल्म में अधूरे तरीके से रखी गई है। इसी तरह मधि का आदि के प्रति आकर्षित होना कहानी में खास प्रभाव नहीं छोड़ता।
खेलों में राजनीति और यौन शोषण अब स्पोर्ट्स फिल्मों के फॉर्मूले बन गए हैं। कई फिल्मों में देखी चुकी ये बातें अपना नयापन खो बैठी हैं।
क्लाइमैक्स में ड्रामा ज्यादा हो गया है। एक रशियन बॉक्सर का वजन कम कर हैवीवेट से लाइटवैट बॉक्सिंग करना हजम नहीं होता। मधि की अंतरराष्ट्रीय सफलता के बजाय उसे राज्य या राष्ट्रीय चैम्पियन बताया जाता तो बेहतर होता।
सुधा कोंगरा ने अपने निर्देशन के जरिये फिल्म को वास्तविकता के निकट रखने की कोशिश की है। फिल्म के किरदार और परिवेश तो असल जिंदगी जैसे हैं, लेकिन परदे पर चल रहे घटनाक्रम नकली लगते हैं, खासतौर पर दूसरे हाफ में। यहां पर निर्देशक को स्क्रिप्ट से सहयोग नहीं मिलता।
खामियों के बावजूद फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है क्योंकि कुछ अच्छे दृश्य भी बीच-बीच में देखने को मिलते रहते हैं। मधि और आदि के बीच फिल्माए गए कुछ दृश्य आपको भावुक कर देते हैं। नासेर द्वारा निभाया गया जूनियर का किरदार भी अच्छे से लिखा गया है। खेलों में कुछ लोगों की दादागिरी किस तरह से चलती है इस बात को भी अच्छे से उभारा गया है। मधि की आक्रामकता फिल्म में ऊर्जा भरती है। आदि और मधि के किरदार इस तरह लिखे गए हैं कि वे आपको अच्छे लगने लगते हैं।
आर माधवन ने फिल्म के लिए हुलिया बदला है और इस रोमांटिक हीरो को खड़ूस के रूप में देखना अच्छा लगता है। ऋतिका सिंह फिल्म की जान है। वे सचमुच में खिलाड़ी हैं इसलिए उनके बॉक्सिंग वाले सीन बढ़िया बन पड़े हैं। अभिनय करना भी वे अच्छे से जानती हैं। नाक पर गुस्सा रखने वाली एक बिंदास लड़की का किरदार उन्होंने अच्छे से निभाया है। नासेर और ज़ाकिर हुसैन मंझे हुए अभिनेता हैं और अपने किरदारों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से जिया है।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग और संगीत अच्छा है।
कमियों के बावजूद फिल्म के बारे में अच्छी बात यह है कि इसे देखने में समय अच्छे से कट जाता है।