गे रिलेशनशिप को लेकर ज्यादातर हिंदी फिल्मों का रवैया मजाक उड़ाने वाला रहा है। गे किरदार स्टीरियोटाइप कर दिए गए। जब से इस रिश्ते को भारत में मान्यता मिली है, फिल्मकारों का रूख भी अब बदला है।
'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' सेम सेक्स-मैरिज की थीम पर आधारित है। कहानी दो पुरुषों की है जो एक-दूसरे को बेहद चाहते हैं। शादी करना चाहते हैं।
इलाहाबाद में रहने वाला एक लड़के का परिवार इस रिश्ते के बारे में जान कर हैरान रह जाता है। वे किसी भी हाल में इसे मंजूरी नहीं देते। जग हंसाई का डर उन्हें सताता है। वैसे भी भारत में अभी भी इस तरह के रिश्तों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है।
कुछ साल पहले लुका-छिपी फिल्म आई थी, जिसमें परंपरावादी परिवार के लड़के-लड़की लिव-इन-रिलेशन शिप में रहते हैं। शुभ मंगल ज्यादा सावधान में कुछ उसी तरह का परिवार है और लिव इन रिलेशनशिप की जगह गे रिलेशनशिप ने ले ली है।
निर्देशक और लेखक हितेश केवल्या ने इस रिलेशनशिप पर गंभीर फिल्म बनाने के बजाय हंसी-मजाक से भरपूर फिल्म बनाने का निर्णय शायद इसलिए लिया हो ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक उनकी फिल्म को मिले। फिल्म में हंसी-मजाक तो भरपूर है, लेकिन जिस उद्देश्य से यह फिल्म बनाई गई वो कहीं ना कहीं दब गया है।
फिल्म कहती है कि दो पुरुषों के प्यार को भी उसी निगाह से देखा जाए, जैसा कि लड़का-लड़की के प्यार को देखा जाता है, लेकिन यह बात फिल्म में उभर कर नहीं आती और यह सामान्य फिल्म बन कर रह जाती है।
दिल्ली में रहने वाले कार्तिक (आयुष्मान खुराना) और अमन (जीतेन्द्र कुमार) एक-दूसरे को चाहते हैं। इलाहाबाद में अमन की बहन की शादी है और दोनों वहां जाते हैं।
इस दौरान उनके रिश्ते की भनक अमन के पिता शंकर त्रिपाठी (गजराव राव) को लग जाती है और धीरे-धीरे सबको पता चल जाता है। इससे बहन की शादी टूट जाती है।
त्रिपाठी परिवार अपने बेटे अमन की शादी एक लड़की से तय कर देता है और कार्तिक को दिल्ली वापस भेज दिया जाता है। कार्तिक और अमन विरोध करते हैं, लेकिन कोई नहीं सुनता। किस तरह से वे सबको राजी करते हैं यह कहानी का सार है।
उत्तर भारत के छोटे शहर और वहां के किरदार हिंदी फिल्मों में अब स्टीरियो टाइप लगने लगे हैं। शुभ मंगल ज्यादा सावधान में भी वही चाचा, चाची, मां, बाप, भाई नजर आते हैं। हल्दी और शादी की वहीं रस्में नजर आती हैं।
सभी को बहुत ज्यादा बोलने की बीमारी रहती है। इस फिल्म में सब इतने ज्यादा बोलते हैं कि उन्हें चुप कराने की इच्छा होती है। हर कोई नहले पे दहला जड़ने के लिए उधार बैठा रहता है। फिल्म न हुई, रेडियो शो हो गया।
फिल्म में अमन और कार्तिक की प्रेम कहानी के लिए कोई भूमिका नहीं बनाई। सीधे-सीधे दिखा दिया गया कि दोनों में प्यार है। दो पुरुषों में इस तरह का प्यार देखने और स्वीकारने में दर्शकों को कठिनाई महसूस होती है। बेहतर होता थोड़ा माहौल बनाया जाता।
सीधे-सीधे बताने में उनमें प्यार कम और नौटंकी ज्यादा लगती है। चूंकि फिल्म ही उनके रिश्ते को लेकर सीरियस नहीं है तो दर्शक कैसे सीरियस हो सकता है।
अमन और कार्तिक के बीच किसिंग सीन को फिल्मा कर ही अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली गई है। यह सीन दर्शकों के फिल्म देखने के नजरिये में परिवर्तन जरूर करता है, लेकिन साथ ही कई लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए यह सीन देखना आसान नहीं है।
क्लाइमैक्स भी दमदार नहीं है। किसी भी तरह त्रिपाठी परिवार को इस रिश्ते को मंजूरी देना है तो दे दी गई। कैसे सबका हृदय परिवर्तन होता है इसके लिए कोई ठोस सिचुएशन नहीं बनाई गई।
जहां तक फिल्म के प्लस पाइंट्स का सवाल है तो ऐसे कई सीन और संवाद हैं जो आपको हंसाएंगे। त्रिपाठी परिवार के पागलपन को लेकर अच्छा हास्य पैदा किया गया है। कुछ संवाद लाइन भी क्रॉस करते हैं। कुछ बोरिंग सीन भी हैं, खासतौर पर शुरुआत के 15-20 मिनट उबाऊ हैं।
हितेश केवल्या के काम में निर्देशक की बजाय लेखक ज्यादा नजर आता है। उन्होंने अपने लिखे को फिल्मा दिया है। संवादों पर उन्होंने खासी मेहनत की है। निर्देशक के रूप में उन्हें और अनुभव प्राप्त करने की जरूरत है।
गीत-संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है। तकनीकी रूप से भी फिल्म में सफाई नजर नहीं आती।
आयुष्मान खुराना बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन इस फिल्म में फॉर्म में नजर नहीं आए। वे ओवरएक्टिंग करते दिखाई दिए। अपने आपको 'गे' दिखाने के लिए उन्हें अतिरिक्त मेहनत करना पड़ी। जीतेन्द्र कुमार का चुनाव सही नहीं कहा जा सकता। दोनों की केमिस्ट्री नजर नहीं आती।
गजराज राव, नीना गुप्ता और मनुऋषि चड्ढा बेहतरीन कलाकार हैं और इनके आपसी सीन मजेदार हैं। फिल्म के लीड एक्टर्स पर कैरेक्टर आर्टिस्ट जबरदस्त तरीके से हावी रहे हैं। छोटे और महत्वहीन रोल में भूमि पेडणेकर भी दिखाई देती हैं।
फिल्म टुकड़ों में बेहतर है, हंसाती भी है। रूढ़िवादिता और आधुनिकता के टकराव की बात करना चाहती है, लेकिन जरूरत से ज्यादा मनोरंजक बनाने के चक्कर में बात पीछे रह जाती है।
निर्माता : आनंद एल. राय, भूषण कुमार, हिमांशु शर्मा, कृष्ण कुमार