कन्नड़ फिल्म के स्टार 'बादशाह' किच्चा सुदीप को लेकर 'विक्रांत रोणा' नामक फिल्म बनाई गई है जिसे हिंदी में डब कर रिलीज किया गया है। इसे एक्शन-एडवेंचर-फैंटेसी फिल्म कहा जा रहा है, लेकिन कभी ये बच्चों के लिए बनाई गई फिल्म की तरह लगती है तो कहीं पर यह डार्क और कहीं पर हॉरर हो जाती है, लेकिन अंत में कहीं की नहीं रहती। जिस तरह निर्देशक कन्फ्यूज रहे कि वे क्या बना रहे हैं, वही कन्फ्यूजन फिल्म की स्क्रिप्ट में भी नजर आता है और दर्शक भी कन्फ्यूज होते रहते हैं।
इस फिल्म को एक फैंटेसी फिल्म की तरह डिजाइन किया गया है। दृश्यावली सुंदर है, लेकिन कुछ कैरेक्टर्स डार्क हैं। इस विरोधाभास को उभारने की कोशिश की गई है।
घने जंगलों के बीच, जहां अक्सर बारिश होती रहती है, घना अंधेरा रहता है, झरने बहते रहते हैं, के बीच एक गांव है। इस गांव में मासूम बच्चों के कत्ल होते रहते हैं। तहकीकात कर रहा इंसपेक्टर भी मारा जाता है। लोगों का कहना है कि कोई ब्रह्मराक्षस है और वो ये सब कर रहा है।
नया पुलिस ऑफिसर विक्रांत रोणा (किच्चा सुदीप) गांव में आता है, जो जानता नहीं है कि डर क्या होता है। वह हत्याओं के पीछे की गुत्थी को सुलझाता है।
विक्रांत रोणा मूवी की कहानी की टाइमलाइन ही नहीं समझ आती। कभी लगता है कि यह 50 के दशक की होगी। फिर एक जगह हेमा मालिनी का जिक्र होता है तो लगता है कि सत्तर के दशक की होगी। पता नहीं क्यों लेखक और निर्देशक ने समय का उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा, इससे कई बातें अस्पष्ट रहती हैं। इसी तरह गांव का भूगोल समझने में भी परेशानी होती है।
स्क्रिप्ट की एक अहम कमजोरी ये है कि ये पाइंट पर आने में काफी समय लेती है। कहानी और किरदार को सेट करने में जरूरत से ज्यादा वक्त लिया गया है। फिल्म का पहला हिस्सा इसी में चला गया। घटनाएं हो रही हैं, लेकिन इनका आपस में कोई लिंक नहीं है। विक्रांत रोणा लिंक जोड़ने में काफी समय लेता है। किच्चा सुदीप की भी फिल्म में एंट्री इतनी देर से होती है कि दर्शकों के सब्र का बांध टूटने लगता है।
इंटरवल के बाद ही कहानी आगे खिसकती है और दर्शकों की रूचि फिल्म में पैदा होती है। हालांकि ड्रामे को जिस तरह से पेश किया गया है, वो स्तरीय नहीं है। फिल्म का क्लाइमैक्स बढ़िया है।
स्क्रिप्ट में कई बातें फिट नहीं होती, जैसे एक लवस्टोरी को बेवजह रखा गया। जैकलीन फर्नांडिस वाला पूरा हिस्सा हटाया जा सकता था। कई बातें अधूरी रह जाती हैं। कई जगह किरदार बेवकूफी करते नजर आते हैं। रात को एक महिला अपनी बेटी के साथ सुनसान जंगल में कार से जा रही है। कार से पक्षी टकराता है, माहौल डरावना है तो वह कार से उतर कर देखने जाती है। भला ऐसा कौन करता है?
फिल्म जिन बातों में स्कोर करती है वो है सेट्स और थ्री-डी इफेक्ट्स। सेट शानदार हैं और वे दर्शकों को एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। पहाड़, जंगल, जहाज, नदी, विक्रांत का पुलिस स्टेशन, घर, सभी उम्दा हैं। थ्री-डी में ये उभर कर आते हैं।
निर्देशक अनूप भंडारी ने टेक्नीकल टीम से उम्दा काम लिया है। उन्होंने हर फ्रेम सुंदर बनाई है। उन्होंने सीक्वेंसेस को डिजाइन किया है, भले ही उनका आपस में कोई जुड़ाव न हो। इस कारण फिल्म स्मूद चलने के बजाय जम्प लगाते हुए आगे बढ़ती है। अनूप के प्रस्तुतिकरण में मनोरंजन कम है और कन्फ्यूजन ज्यादा, इसलिए यह बहुत आनंद नहीं देती।
हां, दृश्य आंखों को सुकून जरूर देते हैं और इसके लिए टीम की तारीफ की जा सकती है। विलियम डेविड की सिनेमाटोग्राफी शानदार है और उन्होंने फिल्म को एक अलग ही लुक प्रदान किया है। हिंदी में लिखे संवाद बहुत कमजोर हैं। एक भी संवाद याद रखने के लायक नहीं है। गाने भी असर नहीं छोड़ते, बल्कि बोर करते हैं।
किच्चा सुदीप का अभिनय ठीक है। उन्हें दमदार सीन कम ही मिले। जैकलीन फर्नांडिस को एक गाना और एक सीन मिला है और उन्हें सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए रखा गया है।
कुल मिलाकर 'विक्रांत रोणा' एक ऐसी फिल्म है जो टेक्नीकल पार्ट में हॉलीवुड फिल्मों को टक्कर देती है, लेकिन कहानी को कहने के तरीके में लड़खड़ाती है।