सिद्धार्थ का गृहत्याग

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एक ओर महल में पुत्र के जन्म का उत्सव मनाया जा रहा था, दूसरी ओर सिद्धार्थ अपने पिता से कह रहा था- 'पिताजी, संसार में चारों ओर दुःख ही दुःख भरा है। किसी को बुढ़ापा सता रहा है, किसी को रोग। किसी की मृत्यु हो रही है, कोई किसी और दुःख में पड़ा है। सभी प्राणियों का जीवन दुःखमय है। इन महादुःखों से मुक्त होने के लिए मैं प्रव्रज्या लूँगा।'

पिता तो बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुनकर अवाक्‌ रह गए। वे बोले- 'बेटा, वैराग्य की इन बातों में कुछ नहीं रखा है। छोड़ो इन्हें। गृहस्थ धर्म का पालन करो और संसार का सुख भोगो।'

'यदि बुढ़ापा मेरी जवानी को न छीने, रोग मेरे शरीर को पीड़ित न करे, मृत्यु मेरे प्राण न ले, विपत्तियाँ मेरी संपत्तियों को नष्ट न करें, तो मैं घर पर रहने को तैयार हूँ पिताजी!'

शुद्धोदन के पास कोई जवाब नहीं था इन बातों का। वे बोले- 'बेटा, असंभव बातों के पीछे पड़ना ठीक नहीं है। इन सब बातों को सोचना बंद करो और जीवन का जो सुख प्राप्त है, उसे अच्छी तरह भोगो।'

सिद्धार्थ बोला- 'पिताजी! मृत्यु एक दिन आकर हमें आप से दूर कर ही देगी। यह घर एक दिन छूट ही जाएगा। फिर क्या लाभ है इसी में पड़े रहने में? मुझे तो घर छोड़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं दिखता।'

इस पर शुद्धोदन ने कुमार का पहरा और कड़ा कर दिया। भोग-विलास के साधन और बढ़ा दिए।

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सिद्धार्थ सजे-सजाए पलंग पर लेटा। नृत्य, संगीत और वाद्य से उसका मनोरंजन करने के लिए अनेक सुंदरियाँ उनके कमरे में आ गईं। वे तरह-तरह से अपनी कलाएँ दिखाकर कुमार को लुभाने लगीं। पर कुमार को कुछ अच्छा नहीं लगा। वह जल्दी ही सो गया।

आधी रात को सिद्धार्थ की नींद खुली। उसने देखा, चारों ओर स्त्रियाँ बिखरी पड़ी हैं। किसी के मुख से फेन निकल रहा है, किसी के मुँह से लार। कोई दाँत किटकिटा रही है, कोई बर्रा रही है। किसी का कोई अंग खुला है, किसी का कोई। किसी के बाल बिखरे हैं, कोई जोर-जोर से खुर्राटे ले रही है। किसी का काजल फैल गया है, किसी का सिन्दूर।

कुमार मन ही मन सोचने लगे- 'यही है कामिनियों का सौंदर्य! इसी पर लोग मरते हैं। छिः-छिः!'

सिद्धार्थ को लगा, जैसे वह किसी श्मशान में हो, जहाँ चारो ओर गंदी-घिनौनी लाशें पड़ी हों! सिद्धार्थ का वैराग्य तीव्र हो गया। 'मैं आज ही महाभिनिष्क्रमण करूँगा। आज ही मैं घर छोड़ दूँगा।'

ऐसा सोचकर सिद्धार्थ यशोधरा के कमरे की ओर बढ़े। सोचा, चलने के पहले बेटे का मुँह तो देख लूँ!

सिद्धार्थ ने धीरे से किवाड़ खोले। कमरा खुशबू से गमक रहा था। सुगंधित तेल के दीपक जल रहे थे। यशोधरा फूलों से सजी शैया पर सो रही थी। राहुल के मस्तक पर उसका हाथ था। राहुल को उठाऊँगा तो शायद यशोधरा जाग जाए और मेरे गृह-त्याग में बाधा पड़ जाए- ऐसा सोचकर सिद्धार्थ भीतर न जाकर ड्योढ़ी से ही लौट पड़ा।

महल से उतरकर सिद्धार्थ घोड़े पर सवार हुआ। रातोंरात वह 30 योजन दूर निकल गया। वह गोरखपुर के पास अनोमा नदी के तट पर जा पहुँचा। वहाँ उसने अपने राजसी वस्त्र और आभूषण उतारे व जूड़ा काटकर संन्यास ले लिया। इस समय सिद्धार्थ की आयु थी 29 साल।

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