सुखी जीवन जीने का राज

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विशाखा के केश और वस्त्र भींगे हुए थे। बड़ी शोकाकुल दिखाई दे रही थी वह! भगवान बुद्ध ने उसकी ओर देखा और बोले, 'यह कैसी दशा कर ली है तुमने? तुम्हें इस दशा में देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है।'

'मेरे पौत्र का निधन हो गया है, भंते! उनके प्रति शोकाचरण है यह!' विशाखा ने धीमे स्वर में उत्तर दिया।

'क्या तुम बता सकती हो कि श्रावस्ती में कितने नर-नारियों की रोज मृत्यु होती होगी?'बुद्धदेव ने प्रश्न किया।

'निश्चित संख्या तो नहीं बता सकती किंतु रोज एक न एक मनुष्य तो अवश्य ही पंचतत्व में विलीन होता होगा,' विशाखा ने उत्तर दिया।

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'श्रावस्ती में जितने नर-नारी हैं, उनके प्रति तुम्हें आत्मीय भाव जाग्रत होता है?'

'हां, भंते!'

'और उनके पुत्र-पौत्रों के प्रति?'

'उनके लिए भी मेरा पुत्रवत व्यवहार रहता है।'

'यानी रोज एक न एक बालक तो पंचतत्व में विलीन होता ही होगा। तब बताओ विशाखा, प्रतिदिन क्या तुम इसी दशा में रह सकती हो?'

'नहीं, भंते!'

'तब जान लो कि जिसके सौ सगे-संबंधी होंगे, उसे सौ दुख होंगे और जिसका केवल एक मात्र पुत्र हो, उसे एक ही दुख होगा। लेकिन जो इस संसार में अकेला है और जिसका कोई सगा-संबंधी नहीं, उसे दूसरों के लिए कोई दुख नहीं है। इसी कारण जीवन में सुखी रहने का एकमात्र उपाय यह है कि किसी से भी संबंध न रहे। न तो किसी को प्रिय माना जाए और न किसी के प्रति ममता प्रदर्शित की जाए। यदि मनुष्य हमेशा प्रसन्नचित रहना चाहता हो तो उसे किसी के साथ संबंध नहीं जोड़ना चाहिए।'

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