एक बार ऊँटों का एक काफिला सफर के दौरान रात होने पर एक शहर की सराय में रुका। काफिले का एक सदस्य सराय के बाहर मैदान में खूँटियाँ गाड़-गाड़कर ऊँटों को रस्सी की सहायता से उन्हें बाँधने लगा। अंत में एक खूँटी और एक रस्सी कम पड़ गई। उस आदमी ने मुखिया को यह बात बताई।
मुखिया बोला- जाकर सराय के कर्मचारी से ले ले। खूँटी न मिले तो रस्सी तो होगी ही। उससे ऊँट को दूसरे ऊँट की खूँटी से बाँध देना। लेकिन वहाँ दोनों ही चीजें नहीं मिलीं। अब क्या किया जाए। मुखिया सोचने लगा कि ऊँट को बाँधना भी जरूरी है वर्ना वह भाग सकता है। तभी उसे एक उपाय सूझा। उसने ऊँट के नजदीक जाकर खूँटी गाड़ने का अभिनय किया। इसके बाद ऊँट के गले में इस प्रकार हाथ घुमाया जैसे वह रस्सी बाँध रहा हो। फिर उसने उस रस्सी को काल्पनिक खूँटी से बाँध दिया।
कुछ समय बाद जब ऊँट आराम से जमीन पर बैठ गया तो वह बेफिक्र होकर सराय में चला गया। अगले दिन सुबह सारी खूँटियाँ उखाड़ ली गईं और काफिला आगे बढ़ने लगा। तभी मुखिया ने चारों ओर नजर दौड़ाई कि कहीं कोई ऊँट पीछे छूट न जाए। तभी उसकी नजर उस ऊँट पर पड़ी, जिसे उसने झूठमूठ में बाँधा था। वह अब भी वहीं बैठा था।
एक बार ऊँटों का एक काफिला सफर के दौरान रात होने पर एक शहर की सराय में रुका। काफिले का एक सदस्य सराय के बाहर मैदान में खूँटियाँ गाड़-गाड़कर ऊँटों को रस्सी की सहायता से उन्हें बाँधने लगा। अंत में एक खूँटी और एक रस्सी कम पड़ गई।
इसका कारण समझकर मुखिया ने ऊँट के पास जाकर खूँटी उखाड़ने का अभिनय किया और उसके बाद उसने ऊँट के गले में पड़ी रस्सी भी उसी प्रकार खोल दी। ऊँट तुरंत उठ बैठा और भागकर दूसरे ऊँटों से जा मिला।
दोस्तो, उस ऊँट की तरह ही हम भी न जाने कितनी खूँटियों से बँधे हुए हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उस ऊँट को तो मुखिया ने झूठमूठ की खूँटी से बाँधा था, हम स्वयं ही अपने लिए काल्पनिक खूँटी गाड़ते हैं और वैसी ही रस्सी का फंदा अपने गले में डालकर उससे बँध जाते हैं। अब चूँकि यह रस्सी खुद हमने ही बाँधी है, इसलिए इससे आजाद होना ही नहीं चाहते और बँधे-बँधे अपने काफिले को दूर जाते हुए देखते रहते हैं।
जी हाँ, यही तो होता है हर उस स्थिति में, जब आप समय के साथ नहीं चलते। बदलते दौर के बदलते परिवर्तनों से आपका कोई वास्ता नहीं होता। आप तो बस पुरानी खूँटी से ही बँधे रहना चाहते हैं। तब तो दुनिया आगे निकल ही जाएगी, क्योंकि समय किसी का इंतजार नहीं करता। जो समय के साथ चलना नहीं जानते, वे पीछे से समय को दोष देते ही रह जाते हैं।
और सबसे बड़ी बात यह कि उनकी बातों व तर्कों को सुनने के लिए कोई नहीं रहता, क्योंकि किसी के पास इतना समय ही नहीं रहता। इसलिए जरूरी है कि जिन खूँटियों से हम बँधे हैं, उनसे अपने आपको आजाद करें। हम जिन भ्रमों में पड़े हैं, जिन बातों में हमारा मन अटका है, हमें झटका देकर उन्हें अपने से दूर करना होगा। वरना हम व्यर्थ के भ्रमों में फँसकर पीछे छूटते जाएँगे।
आप कहेंगे कि ये खूँटी-वूँटी सब बेकार की बातें हैं। ऐसा किसी के साथ नहीं होता। नहीं, ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है, क्योंकि मानव स्वभाव हमेशा किसी भी परिवर्तन को सहजता से स्वीकार नहीं करता। इसी कारण परिवर्तन और बदलाव की बात करने वाले बहुत से लोग बदलाव होने पर उसका विरोध करने में सबसे आगे हो जाते हैं। जैसे कि किसी व्यावसायिक संस्था में कर्मचारियों की ही माँग पर जब कोई अधिकारी व्यवस्था में कुछ परिवर्तन करता है तो वे ही कर्मचारी अपने मन की होने के बाद भी उस परिवर्तन का विरोध करने लगते हैं।
यह विरोध वे उस खूँटी की वजह से ही करते हैं, जिससे उन्होंने अपने आपको बाँध रखा है, जो नए परिवर्तनों को आसानी से स्वीकार नहीं करने देती। यदि आप भी ऐसी ही स्थिति में हैं तो आपके लिए जरूरी है कि आप अपने मन से लड़कर इस खूँटी से अपना बंधन छुड़ा लें। यदि आप ऐसा करने में कामयाब हो गए तो समझ लो कि आप आगे बढ़ जाएँगे और यदि बँधे रहे तो फिर बँधे रहो। और देखते रहो सबको आगे बढ़ते हुए।
इसलिए यदि आपको लगता है कि सफलता की दौड़ में आप पिछड़ रहे हैं या पिछड़ गए हैं तो अपने आसपास नजर घुमाकर देखिए कि कहीं आप भी किसी खूँटी से तो नहीं बँधे हैं? और यदि हाँ, तो आज से शुरू कर दें अपनी खूँटी उखाड़ना। अरे भई, ये दीवार की खूँटी क्यों उखाड़ दी।