जाने जो पराई पीर वही होता है पीर

सर्दियों में एक दिन सेवाग्राम की गौशाला में महात्मा गाँधी की नजर एक गरीब ठिठुरते एक बालक पर पड़ी जिसने खुद को एक फटी सूती चादर में लपेट रखा था। उन्होंने उससे पूछा- क्या तू रात में यहीं सोता है? लड़के ने हामी भरी। और ओढ़ता क्या है। उसने फटी चादर को आगे कर दिया।

गाँधीजी ने तुरंत अपने कक्ष में आकर बा से दो पुरानी साड़ियाँ लेकर खोल बनाने को कहा। फिर उन्होंने कुछ पुराने अखबार और रुई मँगवाई। पहले रुई को धुना, अखबार के छोटे-छोटे टुकड़े किए और बा द्वारा सिली गई खोल में कागज और रुई भरकर एक गद्दा तैयार कर दिया।
  'वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे...।' गाँधीजी ने इस भजन को पूरी तरह आत्मसात भी कर रखा था। वे वाकई एक महात्मा, संत, पीर थे, क्योंकि जो पराई पीर जानता है वही तो होता है पीर। जो दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हैं।      


इसके बाद उन्होंने उस लड़के को बुलाकर वह गद्दा दे दिया। दूसरे दिन गाँधीजी जब गौशाला पहुँचे तो वह लड़का दौड़कर उनके पास आया और बोला- बापू! आज रात मुझे बहुत अच्छी नींद आई। गाँधीजी मुस्कराकर बोले- अच्छा, तब तो मैं भी ऐसा ही गद्दा बनाकर ओढ़ूँगा। और वे अपने साथी महादेव देसाई की ओर मुड़कर बोले- देखो, तुम अपनी सारी पुरानी धोतियाँ मुझे दे दो।

दोस्तो, 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे...।' गाँधीजी ने इस भजन को पूरी तरह आत्मसात भी कर रखा था। वे वाकई एक महात्मा, संत, पीर थे, क्योंकि जो पराई पीर जानता है वही तो होता है पीर। जो दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हैं, दूसरों के दुःख-दर्द जिनसे नहीं देखे जाते, वे लोग दयालु होते हैं। वे अपनी पीड़ा भूलकर दूसरों की पीड़ा दूर करने में जुट जाते हैं।

वे दूसरों के दुखों में उनका साथ देते हैं, उनके साथ खड़े नजर आते हैं। इसलिए यदि आप भी दूसरों के लिए दया की भावना रखते हैं, तो आप भी पीर से कम नहीं। लेकिन आज किसी और के बारे में सोचने वालों की कमी होती जा रही है। लोगों को लगता है कि जब किसी को हमारी चिंता नहीं, हमारी फिक्र नहीं, तो हम क्यों दूसरों की करें। यदि आपकी भी सोच ऐसी ही है तो यह गलत है।

दरअसल जब हम ही किसी के लिए नहीं सोचते तो कोई हमारे लिए क्यों सोचेगा। आप दूसरों के प्रति दया, सहानुभूति नहीं दिखाएँगे, उनकी पीड़ा में शामिल नहीं होंगे तो जब आपके दुर्दिन आएँगे तो कोई आपको अपने साथ खड़ा नजर नहीं आएगा। इसलिए अपने मन में पीड़ितों के लिए सहानुभूति लाएँ। इससे आपको भी अच्छी ही अनुभूति होगी। साथ ही दूसरे भी आपका साथ देंगे, आपकी मुसीबत में काम आएँगे।

दूसरी ओर, कुछ लोगों के मन में ऐसा कीड़ा होता है जिसे दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में बड़ा मजा आता है। ये लोग दूसरों के घाव पर मल्हम लगाने का बीड़ा उठाने की बजाय उसे कुरेदते हैं ताकि सामने वाले का दर्द बड़े और ये आनंद लें। यह राक्षसी प्रवृत्ति है। यदि आप भी ऐसे ही निर्दयी हैं तो आपको बता दें कि आज आपका समय है, इसलिए आज आप मजा ले पा रहे हैं, लेकिन जिस दिन काल का पहिया उलटा घूमना शुरू होगा और जो एक न एक दिन होना ही है, उस दिन आपका यही मजा आपको रुलाएगा। और तब कोई आपके आँसू पोंछने नहीं आएगा।

सब आपको देखकर यही कहेंगे कि बड़ा फन्नो खाँ बनता था। अब पता पड़ेगा जब खुद पर बीतेगी। इसलिए जितनी जल्दी हो, इस आदत को बदल लें। इसके साथ ही यदि आज आप पीड़ित हैं और कोई दूसरा आपके साथ बुरा कर रहा है तो भी आप दया करना न छोड़ें। जिस दिन उस पर बीतेगी, उस दिन उसे आपके दर्द का अहसास होगा और वह अपनी गलती पर पछताएगा। वो कहते हैं न कि जाके पाँव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।

और अंत में, आज 'वैष्णव जन तो तेने...' जैसे हजारों भजनों के रचयिता नरसी मेहता की जयंती है। इस अवसर पर आत्ममंथन करें कि क्या आप किसी दुर्घटना में घायल व्यक्ति को देखकर आगे बढ़ने की बजाय आगे बढ़कर उसकी सहायता करते हैं?

क्या आप भूखे को खाना देते हैं? क्या आप जरूरतमंद की मदद करते हैं? क्या दूसरे की पीड़ा आपको पीड़ित कर देती है? यदि इन सबका उत्तर 'हाँ' है तो आप दयालु हैं। और यदि उत्तर 'नहीं' है तो आप खुद तय करें कि आपको क्या करना है। उफ, ये जरा-सी फुंसी भी कितनी दुखती है।

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