मन के चोर को भगाओगे तभी तो चुराओगे मन

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इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि वायरन एक बार स्वास्थ्य लाभ के लिए जेनेवा में ठहरे हुए थे। वहाँ उनके बचपन का एक दोस्त उनसे मिलने पहुँचा। उसे देखकर उनका मन प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने उसकी खूब खातिरदारी की। शाम को वे उसे जेनेवा का सबसे खूबसूरत पार्क दिखाने ले गए। घूमते-घूमते वायरन को लगा कि उनके दोस्त का ध्यान पार्क की खूबसूरती की बजाय उनकी लँगड़ी टाँग पर है।

वे उसे टोकते हुए बोले- यार, तुम्हारी बचपन की आदत अब तक नहीं बदली। तुम तब भी मेरी लँगड़ी टाँग को देखते थे और आज भी देख रहे हो। इस पर वह हँसकर बोला- अरे छोड़ो भी यार। उन दिनों तुम कुछ नहीं थे। तब न चाहते हुए भी तुम्हारी टाँग पर नजर चली जाती थी। अब तो तुम बहुत कुछ हो गए हो। वह मूर्ख ही होगा जो तुम्हारे दिमाग को छोड़कर तुम्हारी लँगड़ी टाँग को देखेगा। यह तो तुम्हारे मन का चोर है जो तुम्हें ऐसा आभास करा रहा है, वरना मैं तो पार्क की हरी-हरी घास को देख रहा था।

मित्रो, ठीक बात है। अधिकतर होता यही है कि हमारे मन में कोई बात ऐसी बैठी होती है या बैठ जाती है, विशेषकर तब जब हमसे कोई गलती हो गई हो, हममें कोई कमी हो या हम किसी से कुछ छिपा रहे हों, तो सामने वाले का ध्यान उस ओर जाए न जाए, हमारा मन जरूर यह कहता है कि हो न हो, उसका ध्यान उसी ओर है। तब हम मन ही मन यह सोचकर उदास या परेशान होते रहते हैं कि सामने वाला हमारे बारे में ऐसा क्यों सोच रहा है, ऐसा कैसे सोच सकता है, कितना गलत सोच है उसका।
इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि वायरन एक बार स्वास्थ्य लाभ के लिए जेनेवा में ठहरे हुए थे। वहाँ उनके बचपन का एक दोस्त उनसे मिलने पहुँचा। उसे देखकर उनका मन प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने उसकी खूब खातिरदारी की।


इसके चलते बिना बात के सामने वाले के प्रति हमारे मन में गलत धारणाएँ बनने लगती हैं, गलत विचार उठने लगते हैं। यदि वह सफाई भी दे तो भी आपका मन नहीं मानता। यह सब होता आपके मन में बैठे चोर की वजह से, जिसे हम दुर्भाव भी कह सकते हैं। यह दुर्भाव दूसरों के प्रति भी हो सकता है और खुद के प्रति भी। यही मन का चोर आपके मन में फितूर पैदा कर-करके आपकी सोच को कुंद कर देता है, नकारात्मक बना देता है। परिणाम यह होता है कि आप सभी से दूर होते चले जाते हैं। यदि आपके साथ भी ऐसा ही हुआ या हो रहा है तो आप ही बताएँ कि क्या आपको अपने मन के चोर को मनमानी करने देना चाहिए। नहीं ना। इसलिए बेहतर यही है कि आप समय रहते चेत जाएँ और इस चोर को बाहर का रास्ता दिखाएँ।

हालाँकि इस चोर को बाहर निकालना आसान काम नहीं। इसके लिए तो आपको मन पक्का करके ठानना पड़ेगा कि आप अपने मन से गलत बातें, गलत धारणाएँ निकालकर ही रहेंगे। ऐसा करने के लिए सबसे पहले आपको अपने मन में सकारात्मक बातों को जगह देना होगी। लेकिन ऐसे में यह चोर भी चुप नहीं बैठेगा। वह बार-बार आपको उल्टा सोचने पर मजबूर करेगा।

असली लड़ाई भी तो यही है कि आप मन को जीतें ताकि वह चोर के बहकावे में न आए। कबीर ने कहा है- तन कौं जोगी सब करैं, मन को बिरला कोई। सब सिद्धि सहजै पाइए जे मन जोगी होई। यानी तन तो आपके वश में हो जाता है लेकिन मन को वश में बिरले ही कर पाते हैं। जिसने मन को वश में कर लिया, उसे योगी बना दिया, फिर उसे सारी सिद्धियाँ, सारी सफलताएँ सहज ही मिल जाती हैं, मिलती चली जाती हैं। इसलिए जब आप जैसे-जैसे अपनी सोच को पॉजीटिव बनाते जाएँगे, वैसे-वैसे मन के द्वार खुलते जाएँगे और अंदर बैठे चोर का दम घुटने लगेगा।

तब वह खुले दरवाजों से चुपचाप बाहर निकल जाएगा। एक बार जब वह बाहर चला जाए तो अपने मन की दीवार को इतना मजबूत बना लें कि फिर कोई चोर उसमें सेंध न लगा पाए। हालाँकि ऐसा नहीं कि इसके बाद आपके मन में दुर्भाव नहीं आएँगे। आएँगे, लेकिन आपको उनकी ओर ध्यान न देकर उन्हें चलता करते रहना पड़ेगा। यदि आप ऐसा करते रहेंगे तब फिर कोई मन का चोर आपके मन पर कब्जा नहीं कर पाएगा और ऐसा करके आप दूसरों का मन चुराते रहेंगे यानी उन्हें अपना बनाते रहेंगे।

अरे देखना, आपका मन कहाँ गया। नहीं है न आपके पास। घबराएँ नहीं, उसे मैंने चुरा लिया है। और निश्चिंत रहें, आपके मन को बड़े जतन से रखूँगा।