नवग्रहों की पीड़ा दूर करें दुर्गा

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शक्ति एवं भक्ति के साथ सांसारिक सुखों को देने के लिए वर्तमान समय में यदि कोई देवता है। तो वह एक मात्र देवी दुर्गा ही हैं। सामान्यतया समस्त देवी-देवता ही पूजा का अच्छा परिणाम देते हैं। किन्तु कलियुग में दुर्गा एवं गणेश ही पूर्ण एवं तत्काल फल देने वाले हैं। कहा भी है- 'कलौ चण्डी विनायकौ।'

नवग्रहों की पीड़ा एवं दैवी आपदाओं से मुक्ति का एक मात्र साधन देवी की आराधना ही है। वर्तमान समय में कालसर्प एवं मांगलिक दोष के अलावा कुछ दोष ऐसे भी है। जिनकी शान्ति सम्भवतः अन्य किसी साधना अथवा पूजा से कठिन है। जैसे अवतंष योग।

जब कुंडली में नीच शनि, निर्बल गुरु एवं मंगल से किसी तरह का संयोग बनता है। तब व्यवसाय एवं नौकरी दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसी प्रकार जब कुंडली में राहु एवं चन्द्रमा अपोक्लिम अथवा पणफर भाव में लग्नेश अथवा नवमेश के साथ अस्तगत अथवा निर्बल होते हैं। तब वक्रदाय योग होता है। विवाह का न होना अथवा विवाह होकर भी टूट जाना अथवा तलाक आदि की स्थिति उत्पन्न होती है।

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बुध अथवा सूर्य के साथ गुरु का छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में होकर उच्चगत मंगल से दृष्ट होना रुदाग्र योग बनाता है। जिससे बच्चे पैदा न होना, अथवा बच्चा होकर मर जाना आदि पीड़ा होती है। ऐसी स्थिति में दुर्गा तंत्र में आए वर्णन के अनुसार देवी का अनुष्ठान शत-प्रतिशत परिणाम देने वाला होता है। यद्यपि इसका वर्णन शक्ति संगम तंत्र, देवी भागवत, तंत्र रहस्य तथा दक्षिण भारत का प्रधान ग्रंथ 'वलयक्कम' में भी बहुत अच्छी तरह से किया गया है।

जैसे वृषभ राशि वालों को यदि कालसर्प की पीड़ा हो तो कंचनलता के पाँच पत्ते लेकर उन पर लाल चंदन का लेप करें। अपने सिर के एक बाल को धीरे से उखाड़ कर एक पत्ते पर रख कर उसे शेष पाँचों पत्तों से उलटा कर ढँक दें।

- पाँच सेर गाय का दूध लेकर उसमें तिन्ने के चावल का खीर बनाएँ। खीर को पाँच भाग में बाँट केले के पत्ते पर रख लें। शेष बचे खीर को अलग बर्तन में रख ले। ध्यान रहे इस कार्य में या तो मात्र पत्तों का प्रयोग करें, अथवा ताँबे का बर्तन प्रयोग में लावें। अन्य कोई धातु प्रयुक्त नहीं हो सकती है। तथा उन पर दुर्गा देवी के नवार्ण मंत्र का 133 बार पाठ करते हुए 133 बार लौंग के फूलयुक्त दूध की हल्की पतली धार के साथ अभिषेक करें। 27वें दिन परिणाम सामने होगा।

तांत्रिक ग्रन्थों में यह बताया गया है कि नवदुर्गा नवग्रहों के लिए ही प्रवर्तित हुईं हैं।
'नौरत्नचण्डीखेटाश्च जाता निधिनाह्ढवाप्तोह्ढवगुण्ठ देव्या।'

अर्थात् नौ रत्न, नौ ग्रहों की पीड़ा से मुक्ति, नौ निधि की प्राप्ति, नौ दुर्गा के अनुष्ठान से सर्वथा सम्भव है। भगवान राम ने भी इसके प्रभाव से प्रभावित होकर अपनी दश अथवा आठ नहीं बल्कि नवधा भक्ति का ही उपदेश दिया है।

ध्यान रहे आज के वैज्ञानिक भी अपने सम्पूर्ण खोज के बाद इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रौन इन तीन तत्वों के प्रत्येक के अल्फा,बीटा तथा गामा तीन-तीन किरणों के भेद से 3-3 अर्थात 9 किरणों को ही प्राप्त किया हैं। किन्तु ग्रह व्यवस्था, तांत्रिक ग्रन्थों में इसका क्रम निम्न प्रकार बताया गया है।

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सूर्यकृत पीड़ा की शान्ति के लिए कात्यायनी, चन्द्रमा के लिए चन्द्रघण्टा, मंगल के लिए शैलपुत्री, बुध के लिए स्कन्दमाता, गुरु के लिए ब्रह्मचारिणी, शुक्र के लिए महागौरी, शनि के लिए कालरात्रि, राहु के लिए कूष्माण्डा तथा केतु के लिए सिद्धिदात्री। अर्थात् जिस ग्रह की पीड़ा, कष्ट हो उससे संबंधित दुर्गा के रूप की पूजा विधि-विधान से करने पर अवश्य ही शान्ति प्राप्त होती है।

विक्रान्ता, आयुष्मा, अतिलोम, घृष्णा, मांदिगोठ, विषेंधरी आदि भयंकर कुयोगों की शान्ति यदि संभव है तो एकमात्र दुर्गा की पूजा ही समर्थ है। वास्तव में आदि काल से ही मनुष्य, देवी-देवता अथवा किसी भी प्राणी पर यदि कोई संकट पड़ा है तो उसके लिए सभी ने दुर्गा माता की ही अराधना की है। और माता दुर्गा ने ही सबका उद्धार किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जादू टोना, रोग, भय, पिशाच्च, बेताल तथा डाकिनी आदि से मुक्ति प्राप्ति दुर्गा की तांत्रिक पूजा-पद्धति सर्वथा ही सफल है।

दुर्गा के अनुष्ठान की तांत्रिक विधि का विधिवत अनुपालन हमारे भारत में कम किन्तु इटली के सार्सिडिया, आस्ट्रेलिया के वैलिंग्टन, दक्षिणी अमेरिका के चिली एवं वॉशिंगटन डीसी, दक्षिणी अमेरिका के चिली तथा चीन में यांग टीसी क्यांग नदी के तटवर्ती प्रान्तों में ज्यादा देखने को मिल सकती हैं।

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