ईश्वर की पाँचवीं आज्ञा

हमारे प्रभु ने कहा, 'यदि तुम मुझसे प्यार करते हो तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।' (योहन 14:15)

पाँचवीं आज्ञा कहती है- 'हत्या मत कर।' (निर्गमन 20:13) ख्रीस्त ने अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए कहा, 'तुमने सुना है कि कहा गया था, अपने मित्र से प्रेम रख और अपने शत्रु से बैर,' किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ, अपने शत्रुओं से प्रेम रखो और अत्याचारियों के लिए प्रार्थना करो, इससे अपने स्वर्गीय पिता के पुत्र साबित होंगे, क्योंकि वह अपना सूरज भले और बुरे दोनों पर उगाता और धर्म तथा अधर्मी दोनों पर पानी बरसाता है, क्योंकि यदि उन्हीं को तुम प्यार करो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो क्या इनाम पाओगे?

क्या नाकेदार भी यह नहीं करते? और यदि अपने भाइयों को ही नमस्कार करो, तो यह कौन सी बड़ी बात है? क्या गैर यहूदी भी ऐसा नहीं करते? इसलिए तुम भी सिद्ध बनो जैसे तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।' (मत्ती 5:43-48)

पाँचवीं आज्ञा का पठन, 'तुम हत्या मत करना।' अर्थात्‌ हमें मानव जीवन की देखरेख करनी है, हमारी स्वयं की एवं दूसरों की।

1. एक न्यायिक युद्ध, 2. एक अपराधी का मृत्यु दण्ड, 3. न्यायसंगत आत्मरक्षा इन कुछ निश्चित परिस्थितियों के अतिरिक्त ईश्वर, जिसने हमें जीवन दिया है, हमारा जीवन ले सकता है।

युद्ध- आत्मरक्षा के न्यायसंगत अधिकार की तरह युद्ध कभी-कभी अनिवार्य है।

एक अपराधी का मृत्युदंड- जिस तरह किसी एक व्यक्ति को आत्मरक्षा का अधिकार है, उसी तरह एक न्यायसंगत शासनाधिकारी को समाज की रक्षा का अधिकार और कर्त्तव्य है।

न्यायसंगत आत्मरक्षा- यदि किसी व्यक्ति पर आक्रमण किया जाता है, तो उसे आत्मरक्षा का अधिकार है।

यह आज्ञा हमें यह सब कुछ करने से मना करती है, जो हमारे अपने शरीर या दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं।

यह मना करती है
- हत्या, किसी भी निर्दोष व्यक्ति की अन्यायपूर्ण हत्या।
- आत्महत्या, जिसका अर्थ है स्वयं का विनाश।
- गर्भपात, जिसका अर्थ है गर्भस्थ शिशु की हत्या।



(यह एक माँ की कहानी है, जो एक सर्जन के पास गई और स्वयं का गर्भपात करने के लिए पूछा। डॉक्टर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और उसे यह सलाह दी। उसने कहा कि बच्चे के जन्म तक रुक जाओ और तब उस शिशु की श्वास नलिका के ऊपर अपनी अँगुली दबाओ, जब तक कि वह शिशु श्वास लेना बंद न कर दे। माँ ने चिल्लाकर कहा, 'परन्तु डॉक्टर! मैं यह भयंकर काम कैसे कर सकती हूँ! यह तो हत्या होगी।'

'और यही करने को तुम मुझसे कह रही हो।' डॉक्टर ने कहा। 'जैसे तुम हत्या नहीं कर सकती, मैं भी किसी भी हालत में नहीं कर सकता हूँ।'

हाँ, गर्भपात गर्भस्थ शिशु की हत्या है। इसे करने का कुछ भी कारण हो यह स्पष्ट हत्या है। स्वयं जीवन के अधिकार से बढ़कर दूसरा मूलभूत अधिकार नहीं है और किसी भी निर्दोष जीवन को जो गर्भ में शुरू हो चुका है, उसे जीवन के स्रोत, ईश्वर को अप्रसन्न किए बिना जान-बूझकर समाप्त नहीं किया जा सकता। यह निर्दोष की हत्या है।)

(बच्चे के जन्म के समय यदि माँ के जीवन को खतरा हो, तो गर्भपात ही उसका निराकरण नहीं है। बहुत बार माँ और बच्चा चिकित्सा के दूसरे माध्यमों द्वारा बच जाते हैं।)

परन्तु उस डॉक्टर के लिए शर्म की बात है। वह जिसने फरेबी (हिप्पोक्रटिक) शपथ ली, जिसके द्वारा उसने ईश्वर को साक्षी मानकर कहा था कि 'जीवन को बचाना उसका कर्त्तव्य है, उसका विनाश नहीं।'

अब जब कभी वह 'गर्भपात' करता या 'सुख-मृत्यु' देता है, उस शपथ को तोड़ता है।

सुख-मृत्यु (मरसी-किलिंग) यह बीमार या वृद्ध व्यक्ति की हत्या होती है।

यदि इसके लिए रोगी अपनी इच्छा जाहिर करता है, तो वह आत्महत्या है। यदि डॉक्टर, संबंधी या मित्रों द्वारा ऐसा करने की सलाह दी जाती है, तो वह हत्या है।

जीवन ईश्वर का है मनुष्य का नहीं। इसलिए, न तो डॉक्टर, न ही स्वयं रोगी, न संबंधी और न ही मित्रों को अधिकार है कि वे रोगी या वृद्ध व्यक्ति की जान लें।

(मृत्यु के पहले दुःख उठाने का एक उद्देश्य है, जैसे- जिंदगी में किए गए पापों का प्रायश्चित। अकसर बहुत से अच्छे कार्य अपने जीवनकाल कार्यों की अपेक्षा दुःख भरे बिस्तर पर पूर्ण होते हैं।)

बंध्यीकरण- अगला गर्भ रोकने के लिए सोचे-समझे उद्देश्य से जब यह किया जाता है, तो यह आत्मामारू पाप है।

मतवालापन- यह बदनामी देता है और घर में झगड़े का कारण बनता है और अकसर माँ एवं बच्चों के जीवन की आवश्यकताओं को छीन लेता है।

नशीले पदार्थ- जब तक डॉक्टर नुस्खा लिखकर नहीं देता है, यह मन और शरीर को असुधार्य नुकसान दे सकता है।

घृणा- किसी के बुराई की कामना करना।

'यदि कोई डींग मारकर कहे कि वह ईश्वर से प्यार करता है और अपने भाई से घृणा करे तो वह झूठा है।' (योहन 3:15)

प्रतिशोध- बुराई के बदले बुराई।

('बदला चुकाने वाले से प्रभु इसका बदला चुकाएगा।') (प्रवक्ता ग्रंथ 28:1)

क्या तुमने कभी इस विषय पर गौर किया है? एक व्यक्ति जो प्रतिशोध की कोशिश कर रहा है और अपमानों एवं अन्यायों के लिए क्षमा देने की इच्छा नहीं रखता है.... किस तरह ईमानदारीपूर्वक 'हे हमारे पिता' प्रार्थना बोल सकता है... जहाँ हम ईश्वर से अपने अपराधों की क्षमा के लिए यह शर्त रखते हैं कि हम भी दूसरों के अपराधों को क्षमा करें ???

अच्छी सलाह ....
अकसर जल्दी में लिखे गुस्से के पत्र नफरत और शत्रुता का कारण बनते हैं। राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन युद्ध के सचिव स्टेनटॉन को देखने रुके थे। उन्होंने स्टेनटॉन को बड़े गुस्से में पाया। एक सेनाध्यक्ष (यह अमेरिका के गृहयुद्ध के समय की बात है।) आज्ञा पूर्ण करने में असफल हो गया था ( शायद कुछ गलत फहमी के कारण) 'मैं सोचता हूँ कि मैं बैठ जाऊँ,' उसने कहा, 'और उनके विषय में जो सोचता हूँ वह लिख दूँ।'

'ऐसा ही करो' लिंकन ने कहा, 'अभी लिख डालो जब यह तुम्हारे मन में है। इसे स्पष्ट बनाओ।'

स्टेनटॉन ने तुरंत, एक वास्तविक व्यंग्यात्मक, चुभन भरा पत्र लिखा। उसने लिंकन को जोर से पढ़कर सुनाया, तो उसने कहा, 'बहुत बढ़िया है। यह बहुत अच्छा है।'

'मैं इसे किसके द्वारा भेजूँ?' स्टेनटॉन ने जोर से कहा। 'इसे भेजोगे?' राष्ट्रपति ने कहा, 'क्यों? मैं तुम्हें कुछ सलाह देता हूँ। इसे बिलकुल मत भेजो। इसे फाड़ डालो। तुमने अपने मन की भड़ास निकाल डाली है और इसी की तुम्हें जरूरत है। उसे फाड़ डालो और इस तरह के पत्रों को आगे कभी नहीं भेजोगे।' .... 'मैं कभी नहीं भेजूँगा।'

अच्छा उदाहरण....

जापानी धर्म सतावट के समय बन्गो के छोटे शहर में उन ख्रीस्तीयों की नामावली तैयार की जा रही थी, जिन्हें मृत्यु दंड दिया जाना था।

अण्डु उसुगामरा नामक एक नामी नागरिक, अधिकारियों के पास गया और उनसे कहा, 'मेरा नाम सूची में सबसे पहले लिखो। मैं ही प्रथम ख्रीस्तीय बना हूँ।'

वह अपने 80 वर्षीय पिता के पास गया कि उसे शहीद होने के लिए उत्साहित करे। वह वृद्ध व्यक्ति पहले समुराई योद्धा था और उसका सिर्फ छह माह पहले ही धर्म परिवर्तन हुआ था। यद्यपि वह अपने विश्वास के लिए सहर्ष मरने को तैयार था फिर भी वह समझ नहीं सका कि बिना विरोध के वह किस तरह मर जाए। 'नहीं, अभी भी मेरी तलवार मेरे पास है। मैं लड़ते हुए मरूँगा। यह मेरे लिए शर्म की बात है कि मैं बिना प्रतिरक्षा के मारा जाऊँ।'

उसुगामरा ने देखा कि उसे ख्रीस्तीय शहीद की बात समझाना व्यर्थ है। 'तब ठीक है,' उसने कहा, 'यदि तुम एक शहीद की मृत्यु नहीं मरोगे, तो क्या तुम मेरे बच्चे की जान बचाने के लिए ख्रीस्तीय की तरह उसकी परवरिश करने के लिए अपने साथ गाँव ले जाओगे?'

वृद्ध व्यक्ति बहुत ही गंभीर हो गया, 'क्या? एक कायर के समान भाग जाऊँ? नहीं, मैं रुकूँगा और तुम सब के समान शहीद बनूँगा, परन्तु मुझे अपनी सुरक्षा करनी चाहिए और अपने आक्रमण करने वाले एक या दो व्यक्तियों को मार डालना चाहिए और तब बड़ी खुशी के साथ शहीद बनूँगा।'

उसुगामरा ने विवाद करना छोड़ दिया और सच्चे हृदय से प्रार्थनाएँ करने लगा। जल्दी ही वह सुनी गई।

उसकी जवान पत्नी एक सुंदर किमोनो बुनने में व्यस्त थी। वृद्ध व्यक्ति, जो उसे बहुत चाहता था, उसने पूछा कि यह किसलिए है? 'मैं इसे पहनकर सबसे अच्छी दिखना चाहती हूँ', उसने कहा, 'जब वे मुझे क्रूस पर ठोंकने के लिए आएँगे।'

वृद्धि ने चारों तरफ देखा और दूसरों को भी ऐसा ही करते पाया, जो किमोनो बनाने में व्यस्त थे और उन्हें मेडल, रोजरी इत्यादि से जड़ रहे थे, जिसे वे लहूगवाही के लिए पहनने की कामना करते थे।

वृद्ध ने यह सब देख आश्चर्यजनक रूप से अपना मन बदल लिया, अपनी तलवार दूर फेंक दी, रोजरी ले ली और उसे ऊपर उठाते हुए कहा, तुम लोगों के समान मैं भी मरूँगा। हम सब एक साथ स्वर्ग जाएँगे।

वहाँ बड़ा आनंद छा गया... और अंत तक वह अपने वचनों पर बना रहा।

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