कैसे होगा आतंक का अंत?

भारत के दो प्रमुख शहरों में हाल में हुए एक के बाद एक श्रृंखलाबद्ध धमाकों के बाद जनता का भरोसा सरकार और सुरक्षा एजेंसियों से उठ-सा गया है। केन्द्र सरकार इस हमले के बाद सकते में थी। भरी सभा में गुजरात में ऐसा न होने देने का भरोसा दिलाने वाले मुख्यमंत्री मोदी भी अहमदाबाद में हुए धमाकों के बाद सदमे में नजर आए, पर दुर्भाग्य की बात यह रही क‍ि हर बार की तरह इस बार भी धमाकों का धुआँ छँटते ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ने एक-दूसरे पर दोषारोपण शुरू कर दिया।

सही यह होता की बयानबाजी के बजाय इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई रूपरेखा बनाई जाती। इस पर गंभीरता से चिंतन की जरूरत है, क्योंकि इन घटनाओं के होने के पीछे कई कारण हैं, जो इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं क‍ि आतंकियों ने इस देश में किस हद तक जड़ें जमा ली हैं।

स्थानीय तत्वों की लिप्तता : अकसर देखा गया है कि आतंकवादियों द्वारा दंगों एवं अन्य कारणों से व्यथित मासूम लोगों की भावनाओं को भड़काकर, उकसाकर आतंकी घटना को अंजाम दिया जाता है।

बम बनाने के सामान की सहज उपलब्धता : हाल के धमाकों में इस्तेमाल की गई सभी वस्तुएँ सर्वसुलभ थीं। साइकिल भारत के निम्न वर्ग का सबसे बड़ा आवागमन का साधन है, जिस पर कोई शक नहीं करता और इसे खरीदने के लिए कोई दस्तावेज नहीं देना पड़ते हैं। दूसरा है अमोनियम नाइट्रेट, जो भारत जैसे कृषिप्रधान देश में खेती के लिए आमतौर पर उपयोग में लाया जाता है। साथ ही पेट्रोल, टिफिन, नट-बोल्ट, छोटे गैस सिलेंडर, बॉल-बेरिंग जैसी वस्तुएँ तकरीबन रोजाना ही उपयोग में लाई जाती हैं।

मगर जब इन सब वस्तुओं को एक साथ रखा जाता है तो यह एक घातक बम में बदल जाती हैं। अमोनियम नाइट्रेट और पेट्रोल एक-दूसरे के साथ मिलकर अत्यंत ज्वलनशील गैस पैदा करते हैं और एक छोटे-से चार्ज से इसमें विस्फोट हो जाता है। खदानों में इस्तेमाल की जाने वाली नाइजेल-90 जिलेटिन छड़ भी आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आतंकियों को बम कहीं से आयात नहीं करने पड़ते हैं, सब यहीं मिल जाता है। आयात होता है तो बस आतंक का प्लान और एक-दो विदेशी जो किसी भी देश के हो सकते हैं। बाकी काम स्थानीय गुटों की मदद से छोटे अपराधी या ऐसे लोग जिन्हें आतंकवादियों द्वारा भड़का दिया जाता है, करते हैं। भीड़भरे इलाके में कोई पैकेट या सामान रखने के लिए थोडा-बहुत रुपया देकर भी किसी को बरगलाया जा सकता है।

बल की समस्या : मध्यम शहरों में कानून-व्यवस्था पस्त हाल में है। उदाहरण के लिए इंदौर जैसे मध्यम शहर में 25 लाख की आबादी पर केवल 2500 का पुलिस बल तैनात है। सुरक्षा एजेंसियाँ भी महानगरों जितनी प्रशिक्षित और मुस्तैद नहीं हैं। सुरक्षा इंतजाम पुख्ता न होने की स्थिति में इन शहरों में आतंकवादी घटनाओं को आसानी से अंजाम दिया जा सकता है। लगभग यही समस्या हर मध्यम शहर की है।

शांतिपूर्ण हल : देशी इस्लामिक गुटों से बातचीत का रास्ता भी खुला रखना चाहिए, अगर पंजाब समस्या, मिजो समस्या का हल निकल सकता है तो यह समस्या भी देर-सवेर सुलझ ही जाएगी। देशी गुटों में जो भारतीय नागरिक हैं, उन्हें फिर से मुख्यधारा में लौटाने के लिए प्रोत्साहन दें, अलगाववाद की भावना उनमें से मिटाना होगी।

जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग : विदेशी आतंकवादियों पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाना चाहिए। इन्हें मदद दे रहे देशों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए, जब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई तालिबान से तंग आकर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर तालिबान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की चेतावनी दे सकते हैं तो भारत सरकार क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकती है?

आज इस समस्या से सिर्फ सेना, पुलिस या सशस्त्र बल को ही नहीं, आतंकवाद से पूरे देश को लड़ना होगा। इसके लिए तात्कालिक और दीर्घकालीन सुरक्षा मापदंड बनाने होंगे।

तात्कालिक उपाय : धमाकों से सहमकर आम जनता पर बंदिशें लगाने के बजाय भारत सरकार को अमेरिका और इसराइल की तर्ज पर seek and destroy (ढूँढो और मारो) की नीति अपनाते हुए इन आतंक फैलाने वालों का सफाया कर उनमें पलटवार का ऐसा डर बैठाना चाहिए क‍ि कोई भी आतंकवादी या आतंकी संगठन भारत और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाने से पहले सौ बार सोचे। अंतरराष्ट्रीय दबाव की परवाह किए बगैर भारत सरकार को इस मुद्दे पर कठोर रुख अख्तियार करना होगा।

जब सरकार परमाणु करार पर इतनी सख्ती से अपने रुख पर अडिग रह सकती है तो आतंकवाद के मुद्दे पर तो समूचा देश और सभी राजनीतिक दल सरकार के साथ हैं। आतंकवाद निरोधी कानून को पुख्ता बनाना होगा। हाल ही में अलग-अलग राज्यों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों की जाँच और आगे निर्विघ्न कार्रवाई के लिए एक संघीय एजेंसी बनाई जाए, हाल में ऐसा करने के सरकार ने संकेत भी दिए हैं। सुरक्षा बलों को आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विशेष अधिकार दिए जाएँ।

वर्तमान कानून इस समस्या से निपटने में प्रभावी नहीं है। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए आतंकवादियों अथवा आतंकवादी संगठनों के समर्थको व शुभचिंतको पर भी कठोर कार्यवाई की जाना चाहिए। इन व्यक्ति अथवा संस्थाओं पर वित्तीय प्रतिबंध लगाए जाना चाहिए।

भारत में कानून बड़े पुराने हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं रहे। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में कानून इतने लचीले हैं कि हत्या जैसे संगीन अपराध करने वाले भी कई बार इस लचीलेपन का फायदा उठाकर बच निकलते हैं। इन कानूनों की समीक्षा कर इन्हें वर्तमान सामाजिक, आर्थिक ढाँचे के अनुरूप बनाना चाहिए, क्योंकि सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के चलते लोग अपराध की तरफ उन्मुख होते हैं और छोटे अपराधी अकसर आतंकवादियों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद करते हैं। दाऊद इब्राहीम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

दीर्घकालीन उपाय : सबसे पहले हमें आने वाली पीढ़ी को आतंकवाद के विरुद्ध और मानवता के हित में तैयार करना होगा। भारत के संविधान ने सभी धर्मों को अपने धर्म के प्रचार, प्रसार व शिक्षा की स्वतंत्रता दी है, पर कई बार इसकी आड़ में बच्चों में बचपन से ही अलगाववाद की भावना भर दी जाती है।

इन संस्थानों को बन्द करने के बजाय इनमें एकरूपता लाई जाना चाहिए, साथ ही एक निगरानी प्रणाली की भी स्थापना होना चाहिए। चाहे मुस्लिम मदरसे हों, सिख स्कूल हों, मिशनरी हों या हिन्दू पाठशाला, सभी के पाठ्यक्रम में बच्चों को सभी धर्मों के बारे में अलग से पाठ रखे जाएँ, जिससे सर्वधर्म-समभाव की भावना उत्पन्न हो। कई बार बच्चों में दूसरे धर्मों के प्रति गलत व बुरी धारणाएँ बन जाती हैं, पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बच्चे के दिमाग में फैली भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।

आतंकवाद निरोधक कानूनों की समय-समय पर समीक्षा हो, जिससे जरूरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव या फेरबदल संभव हो। संघीय एजेंसी और खुफिया तंत्रों में बेहतर तालमेल के लिए अधिकारियों को अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाए, जिससे अधिकारियों में सूचना तंत्र की समझ और नेटवर्क बढ़ाया जा सके। इन धमाकों में स्थानीय लोगों की लिप्तता होने के संकेत मिले हैं और समय-समय पर ऐसे भी संकेत मिले हैं कि आतंकवादी सेना तथा अन्य महत्वपूर्ण संगठनों में घुसपैठ कर चुके हैं।

ऐसे तत्वों की पहचान की जा सकती है साथ ही आतंकवादी घटनाओं और दंगे-फसाद इत्याद‍ि को भी रोका जा सकता है, पर उसके लिए जरूरत है एक मजबूत सूचना तंत्र स्थापित करने की, एक ऐसी एकीकृत निगरानी एजेंसी बनाने की, जिसके लोग सभी विभागों में फैले हों और जो सभी विभागों से मिली सूचना के आधार पर समय रहते संबंधित विभाग को सूचित कर सकें।

इसके साथ ही केन्द्र और राज्य सरकारों को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा। शीर्ष नेतृत्व को कुछ कठोर कदम उठाना ही होंगे, भले ही इसके लिए उन्हें अपने राजनैतिक हित भी खतरे में क्यों न डालना पड़ें, क्योंकि नेता हो या आम आदमी सबका वजूद इस देश से है, इसकी सुरक्षा सर्वोपरि है।

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