खुशवंत सिंह एक ऐसे लेखक, पत्रकार और इतिहासकार थे जोकि अपनी बेबाक जीवनशैली के लिए आजीवन जाने जाते रहे। वे कट्टर नहीं थे और एक अकाली सिख होने पर भी गायत्री मंत्र पढ़ते थे। उनके घर के प्रवेश द्वार पर गणपति की प्रतिमा लगी है और कृपालु जी महाराज उनके पसंदीदा साधु थे। वे एक जमाने में इंदिरा गांधी के करीबी रहे पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद से वे इंदिरा जी को नापसंद करते थे। उन्हें लगने लगा कि यह महिला कट्टर ब्राह्मणी है। वे अटलबिहारी बाजपेयी के उदार राजनीतिक विचारों और खानपान शैली के प्रशंसक रहे और आडवाणी के खुल्लमखुल्ला प्रशंसक भी।
और जहां तक उनके लेखक होने की बात है तो उनकी 'ट्रेन टू पाकिस्तान' की कहानी को 'उसने कहा था' जैसी कहानी के समकक्ष रखा जा सकता है। इस किताव में उनका गांव का सीधा साधा आकर्ष़ण, पंजाव की मासूमियत, दैहिक आसक्ति, धार्मिक आस्था और अंत में त्याग और बलिदान। उनके पत्रकारीय लेखन का ही कमाल था कि अस्सी से ज्यादा किताबें लिखने वाले इस लेखक का एक साप्ताहिक स्तम्भ 'विद मैलिस टुवार्डस् वन एंड ऑल' पचास वर्ष से अधिक समय तक चला।
आज यह स्थिति है कि किसी भी पत्रकार का लिखा किसी को भी दूसरे दिन तक याद नहीं रहता है। लेकिन वे इन्फॉर्म करते थे, उकसाते थे और हंसाने का भी काम करते थे। यहां तक उन्होंने सरदारों पर भी जोक लिख मारे। उनकी कुछ रचनाएं ऐसी हैं जिन्हें पोर्न लेखन की श्रेणी में रखा जा सकता है तो उन्होंने कई खंडों में सिखों का इतिहास लिखा। उन्होंने जपजी साहिब का अंग्रेजी में ट्रांसलेशन भी किया। वे सिख होने पर गर्व करते थे लेकिन शायद ही कभी गुरुद्वारे जाते हों।
उनके बेटे राहुल सिंह ने एक बार कहा था कि खुशवंत सिंह पॉलिटिकली अनकरेक्ट हो सकते हैं लेकिन वे दिल लिखते हैं। इसलिए कहा जाता है कि उनकी ज्यादातर कितावें जर्नलिस्टिक एप्रोच से लिखी गई हैं। सिख इतिहास पर उनकी किताबों में कई ऐसी अवधारणाएं हैं जिनका कोई सबूत इतिहास में नहीं मिलता। जैसे- वह कहते हैं कि गुरु नानक देव जी के समय यह कह दिया गया था कि सिख ना हिंदू हैं और ना ही मुसलमान।
एक ओर वह कहते हैं कि गुरु नानक देव जी के काफी कम मानने वाले थे। कोई भी उनकी रिसर्च क्षमताओं पर सवाल नहीं उठाता है लेकिन ये स्रोतों पर आधारित ज्यादा लगती हैं। सिख इतिहास के प्राथमिक लेखक होने के कारण उन्हें परेशानियां आईं होंगी। सिख इतिहास पर उनकी आखिरी किताब उस समय हुई घटनाओं का व्हाइट पेपर है, जिसे उन्होंने जर्नलिस्टिक एप्रोच के साथ लिखा गया है। इसमें उन्होंने एसजीपीसी को 'गवर्नमेंट विदइन द गवर्नमेंट' करार दिया है। उनके लेखन में खामियों तो हो सकती हैं लेकिन उन्होंने सभी बातें केवल दिमाग से नहीं लिखीं। वे इतनी बड़ी आयु तक जी सके तो इसका एक ही अर्थ है कि वे अपने निजी जीवन में बहुत ही अनुशासित और समय के पाबंद थे।
पंजाव यूनिवर्सिटी में एक बार बोलते हुए राहुल सिंह ने कहा था-पंजाब यूनिवर्सिटी उन्हें अपना एल्युमनी कहते हुए सम्मानित कर रही है, लेकिन सब स्टूडेंट्स के लिए यह खुशी की बात है कि वह हमेशा थर्ड डिवीजनर रहे हैं।
खुशवंत सिंह के प्रसिद्ध होने का एक कारण यह भी है कि वह हर किसी को लेटर का जवाब जरूर देते और वो भी पोस्ट कार्ड पर। एक बार साउथ इंडिया के काफी पिछड़े से गांव में राहुल सिंह की गाड़ी खराब हो गई, तो वहां एक किसान ने पोस्ट कार्ड दिखाया कि यह आपके पिता ने मुझे लिखा था।
एसजीपीसी ने खुशवंत सिंह को जब सरदारों पर जोक लिखने से मना किया तो उन्होंने उनको भी पोस्ट कार्ड पर जवाब दिया। इस पर तीन शब्द लिखे थे- गो टु हेल।
बीबीसी के लिए एक साक्षात्कार में उनका खुद के बारे में कहना था कि जिस्म से तो बूढ़ा हूं लेकिन आंख तो अब भी बदमाश है। दिल अब भी जवान है। दिल में ख़्वाहिशें तो रहती हैं आख़िरी दम तक रहेंगी। पूरी नहीं कर पाऊंगा ये भी मुझे मालूम है। वे किसी चीज को छिपाते नहीं थे। वे कहते थे कि शराब पीता हूं तो खुल्लम-खुल्ला पीता हूं, कहता हूं मैं पीता हूं। मुलीद हूं, नास्तिक हूं छिपाया नहीं कभी, मैं कहता हूं कि मेरा कोई दीन-ईमान धरम-वरम कुछ नहीं है।
लेकिन उन्होंने किसी मज़हब का मज़ाक़ नहीं उड़ाया। किसी का अपमान नहीं किया और अपनी बात को रखा मगर साथ में उसकी इज़्जत भी की। वे मानते थे कि किसी के दिल को चोट पहुंचाना ग़लत बात है। इसीलिए जब सलमान रुश्दी की 'दि सैटेनिक वर्सेस' किताब आई थी तो वह छपने से पहले ही उसे पढ़ी थी। उन्होंने काफ़ी दिलचस्प चीज़ें लिखी हैं कि कई पार्टियों में उनका जाना होता था और वहां आपके बारे में टीका-टिप्पणियां होती थीं और वे ख़ामोश रहते थे। उनका कहना था कि, '' हां अब ये उसका हक है, मुझसे उसकी राय मुख़्तलिफ़ है।''
वे सुबह चार बजे से उठकर काम करना शुरू कर देते थे क्योंकि मेरा पाठ-पूजा में कोई यकीन नहीं था लेकिन वे किसी तरह अपना समय खराब नहीं करते थे। बस अपने काम पर लगे रहते। जिस आदमी ने 80 से ज़्यादा क़िताबें लिखी हों, उसके पास कितना वक़्त होता होगा ऐय्याशी के लिए। बहुत कम, मेरे पास तो बिल्कुल भी नहीं था लेकिन उन्होंने अपनी छवि जरूर एक डर्टी ओल्ड मैन की बना रखी थी।
वे जब 'इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया' के संपादक बनकर मुंबई आए तो वीकली की प्रसार संख्या साठ-सत्तर हजार थी। कुछ ही समय में उन्होंने ऐसा चमत्कार दिखाया कि यह तीन-चार लाख के बीच छपने लगी। उनसे पहले वीकली में शादी-ब्याह की तस्वीरें छपा करती थीं। उन्होंने इनके स्थान पर विचारात्मक सामग्री के साथ-साथ गोवा के समुद्रतटों पर बिकिनी पहने लड़कियों की आकर्षक तस्वीरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया। वीकली विचार और ग्लैमर की पत्रिका के रूप में उभरने लगी। उन्हें देश के मूर्धन्य रचनाकारों और ग्लैमरस सुंदरियों का सहयोग एक साथ मिलने लगा।
उनका एक स्पष्ट फार्मूला था कि पाठकों को भरपूर सूचनाएं मुहैया कराओ, उन्हें अंक-दर-अंक चौंकाते चले जाओ और उत्तेजना से भर दो। फॉर्म्युला हिट कर गया। साहित्य और विचार जगत में साख बनी रही और ग्लैमर की दुनिया में भी लोकप्रियता बढ़ने लगी। वीकली के आवरण पृष्ठ पर बहुत कम वस्त्रों में फिल्म 'सिद्धार्थ' में सिम्मी ग्रेवाल की तस्वीर प्रकाशित कर उन्होंने पत्रकारिता जगत में सनसनी पैदा कर दी। इन तमाम बातों के बीच उन्होंने भविष्य के लिए एमजे अकबर, बची करकरिया, विजय वोहरा जैसे पत्रकार भी तैयार किए।
उन्होंने प्राध्यापन, वकालत, राजनय आदि अनेक क्षेत्रों में हाथ आजमाया, मगर सफलता साहित्य और पत्रकारिता से ही मिली। वह बहुत स्वच्छंद प्रवृत्ति के लगते थे लेकिन उनका जीवन अत्यंत अनुशासित व्यक्ति का था। लंबे अर्से तक वह दिल्ली के जिमखाना क्लब में टेनिस खेलते रहे। 'सिंगल माल्ट' उनकी प्रिय विस्की है, जिसके दो पैग नियत समय पर पीते थे। आतिथ्य के दौरान अपना ब्रैंड मिलने की संभावना न हो तो घर से अपना स्टॉक लेकर चलते थे। खाना जल्द खा लेते थे इसलिए घर में हों या किसी पार्टी में, पार्टी चाहे प्रधानमंत्री के घर पर क्यों न हो, उन्हें समय पर भोजन मिलना चाहिए था। उन्हें सुबह चार बजे उठना होता था क्योंकि उनके लिखने का समय वही था।
वे जीवन भर अपनी शर्तों पर सक्रिय रहे। सिक्ख इतिहास के प्रति उनका गहरा लगाव था लेकिन वह खुद को धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक सिक्ख कहलाना पसंद करते थे। उन्होंने संत भिंडरांवाला और आतंकवाद का विरोध किया और खालिस्तान के पैरोकारों की सख्त आलोचना की। मगर जब स्वर्ण मंदिर पर 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' हुआ तो पद्मभूषण की उपाधि लौटा दी और मंदिर परिसर में सेना भेजने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना की। यह और बात है कि कुछ ही वर्षों बाद 2007 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से नवाजा गया तो उन्होंने उपाधि को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
जीते जी उन्होंने विश्व के अनेक रचनाकारों की तरह अपना मर्सिया खुद ही लिख डाला- शीर्षक इस तरह पढ़ा जाएगा- सरदार खुशवंत डेड, और आगे छोटे अक्षरों में प्रकाशित होगा : गत शाम 6 बजे सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मृत्यु की घोषणा करते हुए अफसोस हो रहा है। वह अपने पीछे एक युवा विधवा, दो छोटे-छोटे बच्चे और बड़ी संख्या में मित्रों और प्रशंसकों को छोड़ गए।' यही नहीं उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपना समाधि लेख भी लिखा था-यहां एक ऐसा मनुष्य लेटा है, जिसने इंसान तो क्या भगवान को भी नहीं बख्शा, उसके लिए अपने आंसू व्यर्थ न करो, वह एक प्रॉब्लमेटिक आदमी था। शरारती लेखन को वह बड़ा आनंद मानता था, खुदा का शुक्र है कि वह मर गया। ऐसे रचनाकार, पत्रकार को आप क्या कहना चाहेंगे, यह आपके विवेक पर छोड़ा जाता है।