जरूरत 'पंचमेल खिचड़ी पार्टी' की

बाहर ही नहीं, कांग्रेस के अंदर भी डॉ. मनमोहनसिंह सहित कई पढ़े-लिखे नाराज हैं। उन्हें लगता है, कांग्रेस के ही कुछ लोगों की सार्वजनिक टिप्पणियों से मुसीबत आती है। वे तो थोड़ा पीछे हट गए, वरना अब्दुल रहमान अंतुले को करकरे विवाद पर मंत्रिमंडल से निकाल दिया जाता और कुछ भाई उन्हें पार्टी से निलंबित करवा ही देते।

यह पहला मौका नहीं है। हाल में अर्जुनसिंह, राहुल गाँधी, जयराम रमेश, शीला दीक्षित,
  इंदिरा गाँधी ने तो 23 नवंबर, 1973 को खचाखच भरी लोकसभा में स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया था, 'हमें याद दिलाया जाता है कि कांग्रेस एक पंचमेल खिचड़ी है। सो तो वह है ही और हमें अपनी विविधता पर गर्व है। इसके साथ ही हमारे बीच बहुत एकता है      
मारग्रेअल्वा, सत्यव्रत चतुर्वेदी, दिग्विजयसिंह जैसे कई नेताओं की सार्वजनिक टिप्पणियों पर पार्टी के अंदर और बाहर बवाल मचा। वैसे भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यू), समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियाँ तक अपनों के सार्वजनिक बयानों पर परेशानी में पड़ती रही हैं।

मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के युवा साथियों ने तत्काल 'इंपैक्ट' दिखाने के लिए पार्टियों की मुसीबतें बढ़ाई हैं। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे सशक्त हथियार का सर्वाधिक इस्तेमाल करने वाले लोगों को मुँह बंद कराने के लिए क्या इतना दबाव बनाना चाहिए?

कांग्रेस तो अब अपनी स्थापना (28 दिसंबर 1885) के 123 वर्ष पूरे करने जा रही है। तिलक, गाँधी, नेहरू के युग में रही खुली छूट की तो आज कल्पना ही किसी पार्टी में नहीं की जा सकती। लेकिन एक दौर में 'दुर्गा' और 'तानाशाही तेवर' दिखाने वाली इंदिरा गाँधी भी मतभिन्नता को अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत आवश्यक और उपयोगी मानती थीं। नए सत्ताधारियों को अमेरिकी शासन और अर्थव्यवस्था को पढ़ते-समझते कभी फुर्सत ही नहीं मिल पाई कि पिछले तीस-पैंतीस वर्षों की राजनीतिक व्यवस्था और अनुभवों का अध्ययन कर सकें।

इंदिरा गाँधी ने तो 23 नवंबर, 1973 को खचाखच भरी लोकसभा में स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया था, 'हमें याद दिलाया जाता है कि कांग्रेस एक पंचमेल खिचड़ी है। सो तो वह है ही और हमें अपनी विविधता पर गर्व है। इसके साथ ही हमारे बीच बहुत एकता है। हमें पता है कि कभी-कभी कुछ लोग ग्रुपबाजी का सहारा लेते हैं या एक-दूसरे के खिलाफ बात करते हैं लेकिन जब कोई नीति निश्चित हो जाती है तो हम आगे बढ़ते हैं।'

इंदिरा गाँधी ने ही जनवरी 1975 में एक वामपंथी पत्रिका के साथ इंटरव्यू में कहा, 'हमारा दल (कांग्रेस) एक बहुत ढीला-ढाला-सा दल है। मैं नहीं समझती कि किसी पार्टी को एक संकीर्ण पार्टी बना देना कोई अच्छी बात होगी। जब तक कोई खास वजह न हो, जैसे कोई काम में बाधा डाले, तब तक यह अक्लमंदी नहीं होगी कि लोगों को पार्टी से बाहर निकाल दिया जाए। कांग्रेस दल सदा ही एक बहुत व्यापक आधार और विचारों वाला दल रहा है। राजनीतिक दलों का एक दोष यह है कि उनमें जो लोग पदों पर हैं, वे अकसर नवागंतुकों के आगे आने की राहों को रोक देते हैं और अपना ही सिक्का जमाए रखना चाहते हैं। हमें इस प्रवृत्ति से बचने के लिए सावधान रहना चाहिए और नई प्रतिभाओं तथा नए विचारों को लगातार बढ़ावा देना चाहिए, जैसे कि एक बड़ी नदी हमेशा ही छोटे-छोटे नदी-नालों के जल को ग्रहण कर अपनी ताजगी बनाए रखती है।'

विविधता में एकता की बात कागजी आदर्श के रूप में नहीं समझी जा सकती। जवाहरलाल नेहरू ने विविध विचारों और संस्कृति की समझ के लिए अपनी एकमात्र बेटी की शिक्षा-व्यवस्था इसी ढंग से की थी। इसी संदर्भ में 21 दिसंबर, 1955 को पं. नेहरू ने लोकसभा में एक बहस के दौरान बताया था, 'मैं अच्छा पिता नहीं था और वर्षों तक अपनी बेटी के साथ नहीं था। जब मेरे सामने अपनी बेटी की शिक्षा की समस्या आई तो मैंने उसका समाधान इस प्रकार किया। जब वह छोटी थी तो मैंने उसे उत्तरप्रदेश में नहीं, बल्कि पूना के स्कूल में भेजा क्योंकि मैं चाहता था कि वह बचपन से ही भारत की कुछ भाषाएँ सीखे। पूना में भी मैंने उसे एक गुजराती स्कूल में दाखिल कराया, क्योंकि मैं चाहता था कि वह गुजराती तथा मराठी भाषाएँ सीखे और उस संस्कृति-समाज से प्रभावित हो। बाद में मैंने उसे शांति निकेतन भेजा ताकि वह बंगला पृष्ठभूमि समझ सके, न केवल बंगला भाषा बल्कि संस्कृति भी।'

कांग्रेस में रहते हुए पं. नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के विचारों में गहरी मतभिन्नता सार्वजनिक होती रही लेकिन किसी ने दूसरे को पद या पार्टी से हटाने की कोशिश नहीं की। उनके पत्र-व्यवहार आज के राजनीतिज्ञों के आदर्श बन सकते हैं। हिन्दुओं और मुसलमानों को स्वतंत्र भारत में ठीक से बसाने, उन्हें शिक्षा और रोजगार देने के मुद्दों पर भी उन शीर्ष नेताओं के बीच बहस छिड़ती रही लेकिन उनके दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं थे।

दिग्विजयसिंह, अंतुले या अर्जुनसिंह को लोकतंत्र में क्या कोई अपनी बात रखने
  आर्थिक नीतियों को लेकर यदि आँख मूँदकर परदेसी फाइलों को मानने वालों की जयकार होती रहती तो आज भारत की स्थिति कुछ लातिनी अमेरिका या अफ्रीकी देशों सव्यवस्था का दिमाग, दिल और पेट गड़बड़ा चुका है      
का हक भी नहीं देगा? सरदार पटेल की यह बात याद रखी जानी चाहिए कि 'लोकतंत्र में शासन ताकत से नहीं चलता। भिन्न विचारों की छूट के साथ व्यापक सहमति से चलता है। अगर लोगों को सहमति के लिए मजबूर किया जाएगा तो उसकी विपरीत प्रतिक्रिया होगी।'

नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री, कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, वीवी गिरि, जगजीवनराम, चन्द्रशेखर, इन्द्रकुमार गुजराल, शंकरदयाल शर्मा, आर. वेंकटरमण, राजीव गाँधी, कमलापति त्रिपाठी, द्वारका प्रसाद मिश्र, भागवत झा आजाद, सिद्धेश्वर प्रसाद, हेमवतीनंदन बहुगुणा, वसंत साठे, नारायणदत्त तिवारी, विश्वनाथप्रताप सिंह जैसे कितने ही कांग्रेसी नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति में असहमतियों को जगह देते हुए समाज और देश को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

किसी भी राजनीतिक पार्टी या व्यवस्था में एक छोटे-से समूह द्वारा अपनी मर्जी लादना-थोपना ही तो असली फासिज्म है। अपने साथियों या विरोधियों को डरा-धमकाकर, जोर-जबरदस्ती कर अपनी बातें थोपना ही गैरलोकतांत्रिक तथा फासिस्ट तरीका है। आजकल यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि असहमति रखने वाले को तत्काल अनुशासन के डंडे से पीट-पीटकर बाहर कर दिया जाए। अब राजनीतिक दलों के अधिवेशनों में ऐसे नेताओं या कार्यकर्ताओं को मंच या माइक ही नहीं मिलने दिया जाता, जो चल रही व्यवस्था की कमियाँ बताने की कोशिश करें।

इस प्रवृत्ति से संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में बदबू बढ़ रही है। कांग्रेस, स्थापना के समय से एक पार्टी की नहीं, भिन्न विचारों वाले समूह की संस्था थी। वह या कोई पार्टी तभी शक्तिशाली रह सकती है, जब उसमें आत्मालोचना और सुधार की पर्याप्त छूट हो। आर्थिक नीतियों को लेकर यदि आँख मूँदकर परदेसी फाइलों को मानने वालों की जयकार होती रहती तो आज भारत की स्थिति कुछ लातिनी अमेरिका या अफ्रीकी देशों सव्यवस्था का दिमाग, दिल और पेट गड़बड़ा चुका है। इसे ठीक रखने के लिए किसी पंचमेल खिचड़ी वाली पार्टी का सशक्त होना बहुत जरूरी है।

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