भारतीयों का ज्ञान बढ़ाने के लिए परदेसी विश्वविद्यालय और परदेसी गुरुओं के बिना क्या काम नहीं चल सकता? मनमोहन सरकार के राष्ट्रीय ज्ञान आयोग को उनके बिना ज्ञान के गलियारों में अँधेरा ही दिखाई दे रहा है, जबकि उसी सरकार के शिक्षा मंत्रालय का एक बड़ा वर्ग तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग शैक्षणिक क्षेत्र में परदेसी घुसपैठ को अनुचित मानता है।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सत्यानंद गंगाराम पित्रोदा (सैम पित्रोदा के नाम से विख्यात
जब देसी प्राइवेट स्कूलों में इस तरह का टका-सा जवाब देकर भगाया जा सकता है तो विदेशी विश्वविद्यालयों की दुकानें आने पर 10 हजार रुपए का जेब खर्च दे सकने वाले छात्रों के अभिभावक क्या परिसर के दरवाजे में घुसने की अनुमति भी पा सकेंगे?
और पिछले दिनों पद्मभूषण से अलंकृत) का मानना है कि 'वैश्वीकरण के दौर में हमें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए दुनिया के सारे दरवाजे खोल देने चाहिए। फिर चाहे जापानी हो, चीनी, कोरियाई, अमेरिकी या योरपीय हो। हमें शिक्षा जगत में प्राइवेट खिलाड़ी चाहिए। कुछ इस व्यवस्था का दुरुपयोग करेंगे, कुछ धंधे से मुनाफा कमाएँगे, पर यह तो पैकेज में शामिल होता ही है। हम जानते हैं कि सरकार अकेले समाज की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती।'
संभव है सैम पित्रोदा एनआरआई (आप्रवासी भारतीय) होने के कारण शिक्षा की दुनियादारी या कहें कि दुकानदारी अच्छी जानते हों लेकिन उन्हें भारतीय समाज के जमीनी हालत और मानसिकता का अंदाज कम है। सरकार की सीमाएँ तो हर देश में हैं लेकिन अमेरिका या योरपीय देशों में हमारी तरह सामाजिक तथा आर्थिक असमानता नहीं है।
इन देशों की सरकारें अपने शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक संस्थानों के जरिए भारतीय बाजार तथा युवा प्रतिभाओं का लाभ उठाने के लिए हर साल अरब डॉलर झोंक रही हैं तो हथियारों तथा परमाणु बिजलीघरों के लिए अरबों रुपए खर्च करने वाली भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय स्थापित करने पर 10 अरब रुपए क्यों नहीं खर्च कर सकती?
अंकल सैम को बिहार, उड़ीसा, झारखंड जैसे सुदूर क्षेत्रों में जाने की फुर्सत तो संभवतः नहीं मिल पाए लेकिन वे अपने एयरकंडीशन कमरे तथा महँगी आयातित कार से बाहर निकल राजधानी दिल्ली के किसी बाजारू प्राइवेट स्कूल में जाकर तो देख लें। अन्यथा हमारे अखबार में पिछले दिनों स्कूलों पर छपी रिपोर्ट ही पढ़ने का कष्ट उठा लें। परदेसी पैटर्न पर बने कई प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को दाखिले के लिए जाने वाले माँ-बाप को प्रबंधन पहले उनकी औकात समझाता है।
'अच्छा तो आप हाईकोर्ट में मुलाजिम हो? तुम क्या कॉलेज या अखबार में नौकरी करते हो? मिस्टर अपनी हैसियत पहचानो- पढ़ाई की बात दूर रही यहाँ आने वाले बच्चों के जेब खर्च का मुकाबला तुम्हारे बच्चे नहीं कर पाएँगे। किसी तरह कर्ज से फीस का जुगाड़ कर भी लोगे तो बच्चे का हर हफ्ते सैर-सपाटे, महीने में शॉपिंग मॉल जाने का पैसा कहाँ से दे पाओगे?' ऐसे सवालों के जवाब सामान्य मध्यवर्गीय लोगों के पास नहीं हो सकते। वे सिर झुकाकर 'ज्ञान-गंगा' में नहा सकते हैं अथवा दो साल बाद अपने छोटे बच्चे को इसी स्कूल में घुसाने के लिए बेईमानी, भ्रष्टाचार या अपराध से मोटी कमाई का रास्ता ढूँढने लगते हैं।
जब देसी प्राइवेट स्कूलों में इस तरह का टका-सा जवाब देकर भगाया जा सकता है तो विदेशी विश्वविद्यालयों की दुकानें आने पर 10 हजार रुपए का जेब खर्च दे सकने वाले छात्रों के अभिभावक क्या परिसर के दरवाजे में घुसने की अनुमति भी पा सकेंगे? महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में भारत के विश्वविद्यालयों की शाखाएँ खोलने की अनुमति नहीं मिलती। फिर चीन या जापान से आए गुरु क्या अपने देश के विचारों और अपने इतिहास के पन्नों को दिमाग से निकाल फेंक भारतीय छात्रों को ज्ञान बाँटेंगे?
अन्य विदेशी कंपनियों की तरह विदेशी विश्वविद्यालय सस्ते दामों पर सरकारी जमीन, रियायती बिजली-पानी, टैक्स में छूट इत्यादि लेकर भारत में कमाया मुनाफा क्या चीन, जापान, योरप या अमेरिका नहीं भेजेंगे? उन्हें कौन बाध्य करेगा कि वे यहाँ की कमाई का उपयोग भारत के आदिवासी, पिछड़े तथा पूर्वोत्तर क्षेत्रों में सस्ती शैक्षणिक सुविधाएँ दे सकने के लिए करें?
बहरहाल, ज्ञान आयोग के महागुरु पहले न्यूनतम ज्ञान की गंगा बहाने के लिए अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व का उपयोग क्यों नहीं करते? सरकार ने आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों के बच्चों के लिए स्कूलों में सीटें सुरक्षित रखने का प्रावधान कर दिया लेकिन शिक्षा विभाग के बाबुओं, अफसरों और नेताओं को हर साल 'रिजर्व फंड' पहुँचाने वाले प्राइवेट स्कूल प्रबंधक कौन से नियमों की परवाह करते हैं? नियम-कानूनों की बारीकियाँ समझाकर या किसी अन्य बहाने से गरीब माँ-बाप को भगाने में उन्हें कोई कष्ट नहीं होता।
सरकारी स्कूलों में भी हर साल गरीब मजदूर-मजदूरनी से आमदनी का प्रमाण-पत्र माँगा जाता है।
भगवान भैरोबाबा के चरणों में शराब का प्रसाद परोसकर जीवन धन्य समझने वाले धर्म के तथाकथित ठेकेदार युवक-युवतियों के किसी रेस्तराँ में अंगूर का पानी चखने पर दंगा करने लगते हैं
रिक्शा चलाने वाला, ठेला ढोने वाला, घर में झाड़ू-पोंछा करने वाली माँ, दिहाड़ी पर सीवर में छलाँग लगा मैला साफ करने वाला, यमुना किनारे कीचड़ में कूद-फाँदकर मछली पकड़ने वाला भला सैम अंकल को 'इनकम' का सर्टिफिकेट कहाँ से लाकर दे सकता है?
ज्ञान आयोग को शायद मालूम नहीं कि इस समय देश के 11 करोड़ बच्चों को स्कूलों में दोपहर का भोजन देने की व्यवस्था सरकारी खातों से हो रही है ताकि वे स्कूल न छोड़ें। वैसे कम से कम 20 करोड़ बच्चों को ऐसी सुविधाएँ देने की आवश्यकता है। ऐसे बच्चे किसी तरह जब स्कूली शिक्षा पूरी कर लेंगे, तब क्या भारत में चल रहे किसी विदेशी विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने लायक बन सकेंगे? प्राइवेट और विदेशी विश्वविद्यालयों का बाजार खुलने पर विभिन्न राज्यों में दीन-हीन हालत में चल रहे कई देसी विश्वविद्यालयों की हालत सीमित साधनों के कारण और खराब नहीं हो जाएगी?
भारत की विडंबना यह है कि समाज को दो समानांतर धाराओं में बाँटने की भयावह कोशिशें हो रही हैं। एक धारा घोर पश्चिमी तर्ज पर शिक्षा तथा चमक-दमक वाली संस्कृति विकसित करना चाहती है जबकि दूसरी धारा पोंगापंथी, अंधविश्वास, राम और बजरंग के नाम पर छेड़खानी, हत्या-बलात्कार और हिंसक हुड़दंग के बल पर तथाकथित धर्मध्वजा फहराना चाहती है। भगवान भैरोबाबा के चरणों में शराब का प्रसाद परोसकर जीवन धन्य समझने वाले धर्म के तथाकथित ठेकेदार युवक-युवतियों के किसी रेस्तराँ में अंगूर का पानी चखने पर दंगा करने लगते हैं।
वे 'संस्कार शिक्षा' की बात करते हैं। उनके धर्म-ग्रंथों में भले ही गंधर्व विवाह और काम-शास्त्रों पर हजारों पंक्तियाँ लिखी हों लेकिन किसी पत्र-पत्रिका या पेंटिंग में थोड़ा खुलापन दिखते ही हंगामा कर देते हैं। सवाल यह है कि विदेशी या देशी अतिवाद से हटकर समाज को संतुलित भारतीय माध्यमों से आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता? भारत के हर गाँव, कस्बे, महानगर में सत्यानंद गंगाराम जैसे लाखों प्रतिभावान लोग मिल सकते हैं। उन्हें एमिटी जैसे अच्छे शैक्षणिक संस्थान चलाने की पूरी स्वतंत्रता और सुविधाएँ दीजिए। मंदी के दौर में परदेसी बाजों की बजाय देसी शहनाई से ही सुकून का पाठ क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता?