आर्य समाजी और नक्सली समर्थक स्वामी अग्निवेश ने शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का मखौल उड़ाते हुए दावा किया कि राजघाट के समक्ष उनके सत्याग्रह के मुकाबले अण्णा हजारे के धरने में कई गुना अधिक भीड़ थी।
भीड़ तो सचमुच थी, लेकिन उसमें सैकड़ों ऐसे लोग भी थे, जो रामलीला मैदान में पिछले सप्ताह मासूम लोगों पर हुई बर्बर पुलिस कार्रवाई का विरोध करना चाहते थे। स्वामी रामदेव ने अपने समर्थकों को अण्णा हजारे के धरने में साथ देने का आह्वान भी किया था। असल में सत्ता के भ्रष्टाचार और ज्यादतियों के विरुद्ध देशव्यापी वातावरण से कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन किसी नेता की लोकप्रियता का आकलन क्या भीड़ के आधार पर संभव है?
मुंबई या श्रीनगर में किसी कट्टरपंथी सांप्रदायिक या अलगाववादी संगठन के मुखिया द्वारा जुटाई गई भीड़ को राष्ट्र और लोकतंत्र की आवाज माना जा सकता है? खाड़ी के कुछ देशों में मासूम स्त्री को पत्थरों से मृत्युदंड देने वाली भीड़ को 'न्यायिक आदर्श' कहा जा सकता है?
स्वामी अग्निवेश, बाबा रामदेव, अण्णा हजारे, गोविंदाचार्य अथवा बिनायक सेन और उनके सलाहकार-सहयोगी जनता के दुःख-दर्द से इतने विचलित हैं तो लोकसभा का चुनाव लड़कर अपनी कथित लोकप्रियता के बल पर सत्ता की बागडोर संभालने का संकल्प क्यों नहीं लेते?
गोविंदाचार्य ने तो अपने राजनीतिक और निजी प्रभाव के बल पर उमा भारती को अलग से पार्टी बनाने के लिए प्रेरित किया था। जनता द्वारा यह पहल अस्वीकारे जाने के बाद अब उमा भारती पुनः भाजपा की शरण में हैं। अग्निवेश स्वयं आर्य समाज, जनता पार्टी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के जरिए 40 वर्षों से राजनीतिक उठापटक करते रहे व स्वयं या उनके पसंदीदा लोग सत्ता में भी रहे, लेकिन सही अर्थों में सामाजिक कल्याण के मसीहा क्यों नहीं बन सके?
दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के पास अनुशासित स्वयंसेवकों की बड़ी जमात है। सुषमा स्वराज भी भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह प्रभावशाली तर्कों की बौछार से सदन और देश को प्रभावित कर देती हैं। लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में भी भाजपा के पास प्रखर और ईमानदार नेताओं की कमी नहीं है।
संवैधानिक प्रावधानों के तहत व्यवस्था में सुधार के लिए संसद में दबाव बना सकने की क्षमता उनके पास है। फिर भी भाजपा अपने एजेंडे के लिए सरकार को स्वामी रामदेव से बात करने के लिए क्यों कह रही है?
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या गिरिजाघर के धर्मगुरु धार्मिक स्थलों के निर्माण या अनुष्ठान का दायित्व निभा सकते हैं। योगी स्वामी समाज में योग के प्रचार-प्रसार से समाज का भला कर सकते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि आजादी की लड़ाई में भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद की तरह धर्मगुरु भी रहते थे या वे खुद भूमिगत रहने के लिए साधु वेश धारण कर लेते थे।
लेकिन यह दलील देने वाले भूल जाते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान संसद या विधानसभा नहीं थी। तब हर गली-मोहल्ले से लोगों को जुटाना जोखिमभरा होने के साथ क्रांतिकारी अवश्य बना देता था। लेकिन अब आजादी का दुरुपयोग न होने के साथ आर्थिक असमानता दूर करने, कानून के बल पर अत्याचार के विरोध तथा मनमानी व भ्रष्टाचार पर अंकुश की जरूरत है।
समस्याएँ और चुनौतियाँ राम-रावण, कृष्ण-कंस काल से लेकर मार्क्स-माओ काल में भी रही हैं। उनका सही समाधान लोकतांत्रिक तरीकों से ही संभव है। सबसे दुःखद भूमिका कांग्रेस गठबंधन सरकार की है, जो संसदीय व्यवस्था से रास्ते निकालने के बजाय प्रतिपक्ष के समानांतर कमजोर केंद्रों और लोगों के बल पर अपना बचाव कर रही है।
भोली-भाली भीड़ के कथित नुमाइंदों को तरजीह देने पर किसी दिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक अराजकता पैदा हो सकती है। जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गाँधी के समय गंभीर असहमतियों और विरोध के बावजूद राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रतिपक्ष का साथ लेकर बड़े फैसले हुए हैं। इलाज भीड़ के फरमान से नहीं, राजनीतिक ईमानदारी और चातुर्य से ही संभव है। (भाषा)