हिमालय के आंगन में लंगूर का हक़

डॉ. हिमानी नौटियाल
बुधवार, 9 दिसंबर 2020 (15:29 IST)
पश्चिमी हिमालय की हरी-भरी मंडल घाटी में मौसम अंगड़ाई ले रहा है। गर्मी के पांच महीने गुजर चुके हैं। पेड़ों से अब पत्तियां झड़ने का समय आ गया है। यहां क़रीब ही सिरोली गांव है जिसके पश्चिम की ओर कुछ ही दूर उस पहाड़ी के एक हिस्से पर लंगूरों के सोने की जगह है। हर रोज़ शाम घिरते ही लंगूरों की टोली जंगल में जहां भी हो, यहां पहुंच जाती है और फिर पूरी रात इन पेड़ों पर सोते हुए गुज़ारती है। यहां से नीचे की पूरी घाटी का विहंगम नज़ारा दिखता है।
 
हिमालयी लंगूरों पर अपनी रिसर्च के दौरान मेरा एक ठिकाना यहां भी रहा, जहां से मैं नीचे सिरोली गांव से लेकर सांसों गांव तक देख सकती हूं। इन गांवों से लगे ख़ूबसूरत सीढ़ीदार खेत और पूरब की ओर फैले पूरे पहाड़ मेरी नज़रों के दायरे में रहते हैं। उत्तर की ओर नज़र उठाओ तो रुद्रनाथ की चोटियां जैसे नीचे मंडल घाटी की ओर देख रही हों और मुझे और मेरी टीम को बार-बार अपनी ओर बुला रही हों। 
 
लंगूरों के सामाजिक व्यवहार के अपने वैज्ञानिक अध्ययन के दौरान अक्सर मेरा ध्यान नीचे मंडल घाटी की ओर जाता है। रागी यानी मंडुए की फसल काटने में जुटी महिलाएं, उछलते-कूदते स्कूल जाते बच्चे और अपने मवेशियों को चराने के लिए क़रीब के जंगल ले जाते बूढ़े और जवान। इस सबके बीच गाय-बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज़ जैसे कानों में रस घोलती है और रोज़मर्रा के नीरस से लगने वाले काम को मधुर और ख़ूबसूरत बना देती है।
 
दूर पूरब में सांसो गांव के ठीक ऊपर के जंगल की रंगत बदलने लगी है। पेड़ों की हरी पत्तियों पर नई लाल और पीली कोंपलें फूट रही हैं। सुबह की सुनहरी धूप जंगल की इस आभा को और रंगीन बना रही है। घाटी की इस ख़ूबसूरती को जी भर देखने के बाद मैंने नज़रें घुमाईं तो लंगूरों की चिर-परिचित टोली पर ही रुकीं। वयस्क मादा लंगूर गीता अपने दो साल के बच्चे गबरू के साथ पेड़ की डाल पर सो रही है।
 
गीता 12 साल की हो चुकी है। उसके बालों का रंग अब बदलने लगा है। छाती पर हल्के काले फर इस बात का सबूत हैं कि ये हिमालयी लंगूर अब उम्र की ढलान पर है। बांज के एक छोटे से पेड़ पर ज़मीन से बस दो फुट ऊपर एक छितराई हुई शाख पर मां और बेटे सोए हुए हैं। नींद में डूबा गबरू मां से चिपका हुआ है। ममता भरी बाहों में लिपटे गबरू का सिर मां की दायीं जांघ पर टिका है। चैन से सोए इन मां-बेटे को देख किसी को अंदाज़ा नहीं होगा कि बीती शाम उनके लिए कितनी भयानक थी।
 
दरअसल कल शाम घिरते वक़्त लंगूरों की इस टोली ने गोंदी गांव में अपने सोने का ठिकाना बदला। वो नदी पार सिरोली गांव की ओर आ रहे थे कि पालतू कुत्तों और कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। डर से लंगूर यहां वहां भागे तो उनकी टोली दो हिस्सों में बंट गई। बीती पूरी रात उनके लिए दहशत भरी रही। कुछ लंगूर तो गोंदी गांव और नदी को पार कर सिरोली गांव में सोने के अपने तय ठिकाने पर पहुंच गए। लेकिन जो नदी के दूसरी ओर रह गए वो रात भर पुराने ठिकाने पर ही सोए। 
 
गीता की इस टोली के 78 लंगूरों का मैं पिछले चार साल से अध्ययन कर रही हूं। मैंने इसका नाम ग्रुप S रखा है और अध्ययन के लिए अधिकतर लंगूरों के नाम भी तय किए हैं। इस टोली के हर सदस्य को मैं अब क़रीब से जान गई हूं। किसी भी लंगूर को दूर से ही पहचान सकती हूं। उसका व्यवहार समझ में आ गया है। इंसानों की ही तरह हर लंगूर का एक अलग व्यक्तित्व होता है। जंगल में इस टोली का इलाका दो वर्ग किलोमीटर में फैला है, जहां उनके सोने के 14 ठिकाने हैं। ये जगह ख़ुद इन लंगूरों ने ही तय की हैं अपनी सुविधा और सुरक्षा के हिसाब से। हर रात लंगूरों की टोली किसी एक ठिकाने पर आसपास के पेड़ों पर ही सोती है और कुछ दिनों के अंतराल पर अपने ठिकाने बदलती रहती है।
 
उनके गृह इलाके का क़रीब चालीस फीसदी हिस्सा खेतों में पड़ता है जिसके आसपास पांच छोटे गांव फैले हुए हैं। इंसानी रिहायश के काफ़ी क़रीब होने की वजह से अक्सर गांव वालों और पालतू कुत्तों से उनका पाला पड़ता रहता है। यहां लगभग सभी लोगों ने अपने कुत्तों को खेतों से लंगूर भगाने के लिए ही तैयार किया है। लेकिन दिक्कत ये है कि ये कुत्ते लंगूरों को भगाने तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि अक्सर उन्हें अपना शिकार भी बना लेते हैं।
 
पिछले दो साल में ही मैंने सात लंगूरों को कुत्तों का शिकार होते और आठ लंगूरों को कुत्तों से बुरी तरह घायल होते देखा है। ग्रुप S का तो स्थानीय लोगों से कुछ ज़्यादा ही पाला पड़ता है। उनके इलाके का कुछ हिस्सा ज़्यादा ही ख़तरनाक है। गोंदी गांव ऐसा ही है। ये एक छोटा सा गांव है, तीन ओर जंगलों से घिरा और चौथी दिशा में एक नदी से, जो इसे घाटी के दूसरे गांवों से अलग करती है।
 
गोंदी गांव इस टोली के गृह इलाके के सबसे पश्चिम की ओर है। गोंदी के दायीं ओर एक ऊंची खड़ी पहाड़ी है जहां से सीधे सिरोली गांव के पहाड़ी छोर तक पहुंचा जा सकता है। पास होने की वजह से लंगूर अक्सर इस रास्ते को चुनते हैं। लेकिन यहां पालतू कुत्तों का आतंक बहुत ज़्यादा है। ये ज़्यादा ख़तरनाक इसलिए भी साबित होता है क्योंकि बीच के रास्ते में पेड़ बहुत दूर-दूर और बिखरे हुए हैं। इस वजह से लंगूरों को कुत्तों से बचने के लिए काफ़ी दूर तक ज़मीन पर ही भागना पड़ता है और तेज़ भागते कुत्ते उन्हें कई बार पकड़ लेते हैं या काट लेते हैं। 
 
यही नहीं, यहां क़रीब ही एक सड़क भी है जहां से हर रोज़ सैकड़ों गाड़ियां गुज़रती हैं। लंगूर जब भी गोंदी गांव के पास से गुज़रते हैं तो ख़तरा बढ़ जाता है। अब कल की ही रात लंगूरों की टोली अपनी जान बचाने के लिए दो ओर भागी और बिछुड़ गई। क़रीब 22 दिन पहले भी जब लंगूरों की टोली यहां से गुज़री थी तो उनका कुत्तों से भयानक सामना हुआ था। तब एक कुत्ते ने सड़क पार करती एक वयस्क मादा लंगूर शीता को दबोच कर मार दिया था।
 
शीता के साथ दो साल का उसका बच्चा शालू भी था, लेकिन वो खुशकिस्मत रहा कि बच गया। कल शाम 5 बजकर 12 मिनट पर भी जब लंगूर ठीक उसी जगह से गुज़र रहे थे, वही कुत्ता फिर उनके पीछे दौड़ पड़ा जिसने शीता को मारा था। लेकिन क़रीब 15 लंगूर तब तक सड़क पार कर चुके थे और सुरक्षित सिरोली में अपने सोने के ठिकानों पर पहुंच गए थे। हालांकि उनकी मुसीबत ख़त्म नहीं हुई थी। बाद में गांव वालों ने उन्हें देखा तो गुलेल से निशाना बनाने की कोशिश की। इस सबके बीच लंगूरों की टोली के कुछ और सदस्य भी जैसे तैसे सिरोली के अपने ठिकाने पर पहुंच गए। तब तक रात घिर आई थी लिहाज़ा बाकी बचे लंगूरों के लिए सुरक्षित भागकर सिरोली में अपनी टोली से मिलने का समय नहीं बचा था। वो वापस लौट गए।
  
पिछली बार जब कुत्तों ने शीता को मारा तो उसका दो साल का बच्चा टोली से दूर अकेला छूट गया था। जहां तक मुझे याद है मैंने अगली सुबह उसे एक छोटे से बांज के पेड़ पर अकेले डरे-सहमे बैठे हुए देखा था। आज सुबह उसी बांज के पेड़ पर गीता और उसके बच्चे गबरू को सोते देखा तो दिल भर आया। उस रोज़ मन डूब गया था आज एक नई उम्मीद से भर गया है। कैसे ये नन्हा मासूम अपनी मां से चिपका बेफ़िक्र सोया हुआ है।
 
काश! शालू भी गबरू की तरह खुशकिस्मत होता, उसकी मां उसके पास होती। काश हमारे गांवों के लोग जंगलों के मूल बाशिंदे इन जानवरों के हक़ हुकूक को भी उतनी ही अहमियत देते जितना वो अपने हकों को देते हैं। काश हम ये समझ पाते कि धरती पर उनका भी उतना ही हक़ है जितना हमारा। काश जंगलों की जैव विविधता को बचाने और बढ़ाने में इन लंगूरों की भूमिका को वो समझ पाते।
 
मैंने तो अपने अध्ययन में जंगल के अंदर एक मादा भालू, उसके बच्चे और लंगूर की भोजन के लिए पारस्परिक निर्भरता का भी अध्ययन किया है। जंगल के बाशिंदों और वनस्पति जगत के बीच नाज़ुक संतुलन में सबकी भूमिका है। हमारी लापरवाही जंगलों के इन नागरिकों और बाकी जैव जगत के बीच इस संतुलन को बिगाड़ रही है जो अंत में हमारी ज़िंदगी का संतुलन भी बिगाड़ देगी। कुछ इनही खयालों में न जाने कब बीस-पच्चीस मिनट बीत गए।
 
नीचे गांवों से गूंजकर आती आवाज़ों ने मेरा ध्यान तोड़ा। कुछ लोग खेतों की ओर निकल रहे हैं तो कुछ अपने गाय बैलों को लेकर जंगलों की ओर। आसपास चिड़ियों की चहचहाट है। लंगूरों की ये टोली एक बार फिर जंगल में अपना दिन शुरू करने को तैयार है लेकिन उससे पहले उन्हें गोंदी गांव में अटके अपने साथियों का इंतज़ार है। मुझे अब दिन भर उनके पीछे ही चलना है। मेरी टीम आती ही होगी। चलती हूं। लौटूंगी फिर किसी दिन लंगूरों के किसी और किस्से के साथ। (लेखिका प्राइमेटोलोजिस्ट हैं। नेशनल ज्योग्राफ़िक की यंग एक्सप्लोरर रह चुकीं हिमानी जापान की क्योटो यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर चुकी हैं)
 

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