ठीक तीस बरस पहले 2 और 3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस रिसने से समूचे शहर में मौत का तांडव मच गया था। उस रात लगभग पांच हजार लोग मौत के आगोश में समा गए थे। इनमें ज्यादातर लोग ऐसे थे, जो रात को सोए तो थे, लेकिन उनकी सुबह कभी नहीं हुई। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक इस भयावह हादसे में अब तक लगभग 15 हजार लोगों की मौत हो चुकी है। इससे भी कहीं ज्यादा लोगों को तरह-तरह से बीमार और लाचार बना चुकी इस त्रासदी को याद कर भोपाल के बाशिंदों की रूह आज भी कांप उठती है।
जो लोग इस त्रासदी में मरने से बच गए थे, उनमें से कई तो तिल-तिल कर मर गए और जो लोग अब भी बचे हैं वे अपनी बीमारियों को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं। इस त्रासदी से सिर्फ उस समय की पीढ़ियों के लोग ही प्रभावित नहीं हुए बल्कि उसके बाद पैदा हुई पीढ़ियां भी इसके असर से अछूती नहीं रहीं।
त्रासदी के बाद भोपाल में जिन बच्चों ने जन्म लिया उनमें से कई विकलांग पैदा हुए तो कई किसी और बीमारी के साथ इस दुनिया में आए और अभी भी आ रहे हैं। बीसवीं सदी की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के गुनहगारों को सजा दिलाने का मामला अभी भी कानूनी और प्रकारांतर से राजनीतिक झमेलों में उलझा हुआ है। लोग अभी भी न्याय का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि इस बीच, भोपाल गैस त्रासदी के खलनायक वॉरेन एंडरसन की इसी वर्ष सितंबर माह में फ्लोरिडा में गुमनाम स्थिति में मौत हो गई।
भोपाल गैस कांड में 7 जून, 2010 को आए स्थानीय अदालत के फैसले में आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सभी आरोपी तुरत-फुरत जमानत पर रिहा भी कर दिए गए। इस फैसले के खिलाफ भोपाल से लेकर दिल्ली तक आंदोलन का ज्वार उठा, जिसके बाद केंद्र और राज्य सरकार ने सभी आरोपियों को माकूल सजा और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा दिलाने के अलावा उनके दीर्घकालिक पुनर्वास संबंधी कुछ निर्णय भी लिए लेकिन वे निर्णय सिर्फ घोषणा बनकर ही रह गए।
एंडरसन की तो मौत हो गई, लेकिन कार्बाइड कारखाने के घातक रसायनों का सुरक्षित निबटारा भी अभी तक नहीं हुआ है जबकि यह काम केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता सूची में अव्वल होना चाहिए था। दरअसल, 1984 के बाद विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता में आए और चले गए, लेकिन सभी ने भोपाल के गैस पीड़ितों को मायूस ही किया।
सरकारों की नीयत साफ और इच्छाशक्ति मजबूत होती तो वे त्रासदी के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए कई कदम उठा सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यह हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य तो है ही, हमारी व्यवस्था की बदनीयती और सामूहिक विफलता का नमूना भी है। एंडरसन के पिता स्वीडिश नागरिक थे जो कि अमेरिका में आकर बस गए थे। एंडरसन ने यूनियन कार्बाइड के सेल्स रिप्रजेंटेटिव के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की थी और वे इसी कंपनी के चेयरमैन भी बन गए थे।
2-3 दिसंबर, 1983 की वह रात जो विश्व की औद्योगिक दुर्घटनाओं के बीच सबसे भयानक घटनाओं में शामिल है, घटी। एंडरसन को हजारों लोगों की मौत के जुर्म में गिरफ्तार किया गया, लेकिन विवाद गहराते रहे और दुर्भाग्यवश उन्हें जमानत दे दी गई।
बहरहाल, कंपनी ने अपना बचाव करने के लिए भारत सरकार को 1986 में 470 मिलियन डॉलर की राशि का भुगतान किया था ताकि इस केस की कानूनी देयताओं को पूरा किया जा सके। एंडरसन 1982 के सुरक्षा ऑडिट को गोपनीय रखने का दोषी भी रहा है।
कथित रूप से उन्होंने प्लांट में सुरक्षा के लिए किए जा रहे संशोधनों का जिम्मा जानबूझकर यूएस प्लांट को सौंपा और यूएस प्लांट द्वारा भारतीय रसायनों का प्रयोग नहीं किया गया। एंडरसन पर कथित रूप से यह इल्जाम भी है, कि उसने जानबूझकर इस भयंकर जनसंहार को अंजाम दिया था।
एंडरसन की मौत की खबर उनके परिवारजनों ने नहीं दी बल्कि अमेरिका के स्थानीय अखबारों के जरिए इसकी पुष्टि हुई। दुर्भाग्वश 3 दशकों से न्याय मिलने का इंतजार कर रहे और त्रासदी का प्रकोप झेल रहे परिवारों और जान गंवा चुके लोगों के परिवारजन की एक आशा भी एंडरसन के साथ समाप्त हो गई। 2 और 3 दिसंबर 1984 की आधी रात को शुरू हुआ ये मौत का खेल 1969 में शुरू हुआ था क्योंकि इसी साल तो हमारी सरकार ने अपनी बाहें फैलाकर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड कंपनी का स्वागत किया और भोपाल में कीटनाशक कारख़ाना खुलवाया गया था।