भारत का मीडिया महाराष्ट्र की राजनीतिक नौटंकी में उलझा रहा और उधर श्रीलंका के आम चुनावों में सत्ता पलट हो गई। गोटबाया राजपक्षे ने 18 नवंबर को श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ भी ले ली। शपथ लेते ही उन्होंने अपने भाई महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जो पहले भी प्रधानमंत्री रह चुके हैं। थोड़ा अतीत में चलें तो आपको स्मरण होगा कि श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे को उग्रवादी संगठन तमिल इलम के जड़मूल से सफाए के लिए जाना जाता है साथ ही चीन के प्रति उनके झुकाव के लिए भी। इनके कार्यकाल में श्रीलंका ने चीन के साथ न केवल घनिष्ठ संबंध बनाए वरन भारत के साथ रिश्ता कमजोर भी किया।
चूंकि श्रीलंका भारत के लिए सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण देश है, अतः इनके कार्यकाल में भारत, श्रीलंका के साथ चीन की बढ़ती घनिष्ठता की वजह से चिंतित था। सन् 2015 के आम चुनावों में भारत पर आरोप भी लगे कि राजपक्षे को चुनावों में हराने में भारत का परोक्ष हाथ था, जिसका हमने वर्णन भी किया था। यद्यपि भारत इसे स्वीकार नहीं करता। राजपक्षे के जाने के बाद पिछले 5 वर्षों तक भारत की मित्र सरकार सत्ता में थी, किन्तु अब राजपक्षे परिवार पुनः सत्ता में आ गया है।
राजपक्षे के पुराने कार्यकाल में चीन ने श्रीलंका में बहुत निवेश किया था, विशेषकर हंबनटोटा बंदरगाह को विकसित करने में, किंतु जिन देशों ने चीन से कर्जा लिया है, वे जानते हैं कि चीन का कर्जा कितना महंगा होता है। ये उस बनिए की सूद की तरह होता है जो कभी समाप्त नहीं होता। व्यापारिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह से हर वर्ष हजारों जहाज गुजरते हैं।
कठिन शर्तों और कर्ज न चुकाने के कारण, दिसंबर 2017 में हंबनटोटा बंदरगाह और इसके आसपास की 15000 एकड़ जमीन श्रीलंका की तत्कालीन सरकार को चीन को देनी पड़ी थी। भारत की समस्या/ चिंता हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को देने की नहीं थी। मुद्दा यह था कि चीन की मंशा इसको सामरिक अड्डा बनाने की थी जो भारत की दक्षिणी सीमा को असुरक्षित कर रही थी।
आपको बता दें कि बहुत से अफ़्रीकी देश चीन से कर्जा लेकर अब तकलीफ में हैं। चीन की दूसरी खास बात है कि वह किसी को नकद धन नहीं देता। वह खुद संबंधित प्रोजेक्ट का निर्माण करके देता है, जिसमें उसके अपने श्रमिक, अपने इंजीनियर, अपना सामान और अपना मैनेजमेंट होता है। बाद में टोल टैक्स की तरह वह किराए के साथ ब्याज भी वसूलता है जब तक कि उसका अपना मूल उसे वापस नहीं मिल जाता। आरंभ में तो चीन का प्रस्ताव बहुत लुभावना होता है किंतु उसके जाल में फंसने के बाद ही समझ में आता है कि वह मदद नहीं कर रहा था वरन सौदा कर रहा था।
राजपक्षे का सत्ता में आना, भारत के लिए निश्चित ही थोड़ा चिंता का सबब है, विशेषकर चीन को लेकर, किंतु सत्ता परिवर्तन के थोड़े संकेत और रुझान पिछले वर्ष से ही मिलने लगे थे, जिसे लेकर हमारा विदेश विभाग पहले से ही जागरूक था। इसी तारतम्य में पिछले वर्ष मोदीजी ने श्रीलंका यात्रा पर जाने से पूर्व राजपक्षे से भारत में मुलाकात भी की थी। उसके बाद नई सरकार के आते ही मोदीजी ने तुरंत बधाई संदेश दे दिया और पीछे-पीछे हमारे विदेश मंत्री शिवशंकर श्रीलंका पहुंच गए नए राष्ट्रपति को न्योता देने।
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने न केवल भारत का न्योता ही स्वीकार किया वरन उन्होंने तुरंत भारत आने का कार्यक्रम भी बना लिया। राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा भारत की ही रही। लेख छपने तक उनकी भारत यात्रा पूरी भी हो चूकेगी। श्रीलंका को अब चीन की चालाकियां अच्छी तरह समझ में आ गई हैं और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को भी। इसीलिए गोटबाया के चुनावी घोषणा पत्र में बंदरगाह से चीन का नियंत्रण वापस लेने की घोषणा भी शामिल थी।
कूटनीति के जानकार तो यही कहेंगे कि दूसरे देशों में हमेशा किसी एक दल या एक नेता के साथ बंधना ठीक नहीं। पक्ष हो या विपक्ष भारत के संबंध सभी दलों के नेताओं के साथ मधुर होने चाहिए, विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ। फिर चाहे नेपाल हो, बांग्लादेश हो या श्रीलंका। यद्यपि कभी-कभी किसी राजनेता के साथ अधिक जुड़ने से लाभ भी होता है, किंतु उसके जाने के बाद नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। इसलिए आवश्यक संतुलन बनाए रखना जरूरी है। यही ध्यान रखते हुए भारत ने अपनी नीति में तुरंत बदलाव किया। कूटनीति में स्थाई जैसा कुछ नहीं। आज की भाषा में कहें तो अब सब रियल टाइम में अपडेट होता है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)