हिमालय से आपराधिक छेड़खानी के नतीजे तो भुगतने ही होंगे!

अनिल जैन

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021 (18:41 IST)
उत्तराखंड समेत समूचे हिमालयी क्षेत्र में बरसात के मौसम में तो बादल फटने, ग्लेशियर टूटने, बाढ़ आने, जमीन दरकने और भूकंप के झटकों की वजह से जान-माल की तबाही होती ही रहती है। ऐसी आपदाओं का कहर कभी उत्तराखंड, कश्मीर और हिमाचल प्रदेश तो कभी पूर्वोत्तर के राज्य अक्सर झेलते रहते हैं। लेकिन यह पहला मौका है, जब सर्दी के मौसम में उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने के रूप में कुदरत का कहर बरपा है। वहां चमोली जिले में नंदादेवी ग्लेशियर के टूटने से भीषण तबाही मची है और बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ है।
 
आश्चर्यजनक रूप से सर्दी के मौसम में घटी यह घटना एक नए खतरे की ओर इशारा करती है। कहने को तो यह खतरा प्राकृतिक है और इसे जलवायु चक्र में हो रहे परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन असल में यह मनुष्य की खुदगर्जी और विनाशकारी विकास की भूख से उपजा संकट है। पिछली बार जब 2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे।
 
कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है। इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत रहा है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए।
दुनिया के जलवायु चक्र में तेजी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज्यादा संवेदनशील है कि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी खतरा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है। इस खतरे की तमाम चेतावनियों और आहटों के बावजूद न तो सरकारें सचेत हैं और न ही आम लोग। दोनों की ओर से विनाशकारी विकास की गतिविधियां धड़ल्ले से जारी हैं।
 
इस सिलसिले में मध्य हिमालयी भू-भाग की कच्ची चट्टानें काटकर बनाए जा रहे विशाल बांधों के अलावा चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना उल्लेखनीय है जिसका काम इस समय वहां जोर-शोर से जारी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस स्वप्निल परियोजना ड्रीम प्रोजेक्ट के काम की तेजी, मशीनों का शोर इतना ऊंचा है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी के नोटिसों की फड़फड़ाहट भी किसी को सुनाई नहीं देती। यह चार हिन्दू तीर्थों- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में चौड़ी और हर मौसम में खुली रहने वाली 8 लेन की सड़क से जोड़ने की परियोजना है। इस परियोजना के तहत धड़ल्ले से साफ किए जा रहे जंगल और पहाड़ों को काटने के लिए किए जा रहे विस्फोट ही वहां आपदा को न्योता दे रहे हैं। चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से आई आपदा को इसी रूप में देखा जा सकता है।
दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है। इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने 200 सालों में नहीं किया था, उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले 60-65 सालों में ही कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है जिससे हमें कभी भीषण गर्मी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम झेलना पड़ता है और कभी बादल फट पड़ते हैं, तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है और पहाड़ धंसने लगते हैं।
 
कुछ साल पहले पूर्वोत्तर और उसके बाद समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले नेपाल के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। हजारों-हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर गईं तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्रासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हकीकत यह है कि ये मानव निर्मित आपदाएं ही थीं जिसे विकास और आधुनिकता के नाम पर न्योता जा रहा था और अभी भी यह सिलसिला जारी है।
 
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए। जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की जरूरत है। हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है।
 
हिमालय एशिया का वॉटर टॉवर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है। लिहाजा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है। पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है लेकिन इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं।
 
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य आदि सबकी़ दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं। ये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय बाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक कारोबारी गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं।
 
पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी-सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है।
 
पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरूरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आमतौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इन सबके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है।
 
अब तो अदालतें भी ऐसे मामलों में थोड़े-बहुत किंतु-परंतु लगाने की औपचारिकता निभाते हुए जिस तरह सरकारों के सुर में सुर मिलाने लगी हैं, उसे देखते हुए उनके भरोसे ही सब कुछ छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं, लेकिन सिर्फ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता। राजनीतिक नेतृत्व और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) का तो चाल-चलन ही उनसे यह उम्मीद करने की इजाजत नहीं देता कि वे हिमालय की हिफाजत के लिए कोई ईमानदार पहल करेंगे।
 
पिछले 2 दशक में रियो से शुरू होकर मेड्रिड तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुईं जिनमें दक्षिण एशिया की सरकारों के नुमाइंदों ने भी शिरकत की। 1 दशक पहले 2011 में डरबन के जलवायु सम्मेलन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहरी चिंताएं उभरकर सामने आई थीं, लेकिन उस सम्मेलन में भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा जा सका था।
 
दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोकचेतना अभियान की जिसका सपना 50 के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'हिमालय बचाओ' का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए गांधीवादी पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आंदोलन' शुरू किया था। हालांकि संदर्भ और परिप्रेक्ष्य काफी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्र तो मिल ही सकते हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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