रंग देखने वालों तुम्हारी सोच बदरंग है...

रंग, त्वचा, कद, फिगर, गठन, चेहरा, आकार, बाल, आंखें....और भी न जाने क्या-क्या...क्या बस यही है एक नारी की पहचान, उसका परिचय, उसकी परिभाषा... उसकी काबिलियत, उसका बुद्धि कौशल, उसकी सुघड़ता, उसका स्वभाव, उसकी तेजस्विता, उसका संघर्ष, उसका सम्मान, उसका स्नेह... कहां किस जगह अपना स्थान बनाता है?


 

कभी शरद यादव, कभी गोवा के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर, कभी गिरिराज... एक के बाद एक कई नेता नारी के प्रति अपनी कुत्सित मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं और समाज में फिर यह 'प्रश्न' आहत और हैरान होकर खड़ा है कि आखिर क्यों नारी के लिए रूप-रंग ही जरूरी है....भारतीय समाज में क्या कभी उसकी सही पहचान उसे हासिल हो सकेगी?   
 
संसद का गरिमामयी हॉल हो या मुख्यमंत्री जैसे उच्चतम पद, या फिर सत्तासीन पार्टी का कोई बड़ा नेता... जुबान के स्तर पर उनका हल्कापन सामने आना कोई नई बात नहीं है लेकिन चिंतन का विषय है कि मानसिकता के स्तर पर क्या यह गिरावट कभी नहीं रूकेगी?  ऐसे बयानों को सुनने के बाद ही कोई अचरज नहीं कि भारत में स्त्रियों के प्रति इतने अनाचार और अपराध हो रहे हैं ... 

कई निर्भया, कई सुजैट और कई शाहबानो, फलक, आरुषि और जैसे नाम आज भी न्याय का इंतजार कर रहे हैं, 'जिम्मेदारों' के निर्मम बयानों से न्याय की आस धुंधली होती जा रही है। जिस देश में नारी को देवी के तौर पर पूजा जाता हो वहां देह के प्रति इतना 'असभ्य' आकर्षण न केवल चिंतनीय बल्कि शर्मनाक भी है।  

उजले रंग के के प्रति भारतीय मर्दों का आकर्षण कोई आज की बात नहीं है यह नतीजा है 200 सालों की दासता का। अंग्रेजों के शासन में उनकी गोरी स्त्रियां भारतीय पुरुषों के लिए अजीब से कौतुक का विषय हुआ करती थीं। उनकी उन्मुक्त जीवनशैली के अतिरिक्त उनका सफेद रंग भारतीय पुरुषों के लिए आपसी चर्चा का विषय हुआ करता था।     

राजा-महाराजाओं का काल हो या प्रचलित लोकगाथाएं.. रंग-रूप के प्रति रूझान स्पष्ट नजर आया लेकिन भारतीय संस्कृति के पुराणों और आख्यानों में सांवले रंग के प्रति हीनता का दृष्टिकोण कभी नहीं नजर आया...राजा राम और श्रीकृष्ण के श्याम रंग पर की ग्रंथों भरमार है। मुगलकाल में यह रंग भेद परवान चढ़ा जब बादशाह कई बीवियां रखने को स्वतंत्र थे और ऐतिहासिक किस्से बताते हैं कि उनमें परस्पर भेदभाव रंग के आधार पर ही होता था।    
 
सवाल यह है कि एक स्त्री एक पुरुष के लिए सदियों से क्या रही है? क्या है? क्या होती है? क्या होना चाहिए? 
 
संस्कृति और सभ्यता का तकाजा है कि जैसे -जैसे हम प्रगति करें हमारी सोच परिष्कृत होना चाहिए। रंग-रूप से ज्यादा वैचारिकता में निखार आना चाहिए। सोच उजली और सुंदर होना चाहिए। लेकिन त्वचा के रंग के प्रति इस दुराग्रह ने समय के साथ-साथ रंग-रूप को निखारने के लिए ब्यूटी क्रीम, पार्लर, स्पा और स्किन क्लीनिकों की अनगिनत संख्या बढ़ा दी और सोच हमारी बदरंग होती गई। 
 
यही वजह रही कि वह स्त्री जो हमारी संवेदनशील साथी, स्नेहमयी सहचर, सम्माननीय सहगामिनी है ...वह रंग के आधार पर सस्ती मजाक का विषय, टाइम पास टॉपिक, भद्दे चुटकुले, फूहड़ता की तमाम हदें लांघती टिप्पणियां और अभद्र गाने बन कर रह गई है। 

बॉलीवुड के माध्यम से समाज में भी भी इस सोच को संरक्षित करने और आगे बढ़ाने की जरूरत है कि वह देह,शरीर,त्वचा, मांसलता से कहीं आगे एक इंसान, एक मानवी और सृष्टि के आरंभ से पुरुष की ही भांति रची गई अनुभूतियों से भरी प्रकृति की देन है... यह समझ जब तक भीतर से नहीं आएगी नेता हो चाहे अभिनेता..उनकी जुबान से वही निकलेगा जो सदियों से पोषित होता आ रहा है ...नेताओं के यह बयान समाज के उन भद्र पुरुषों को भी बेचैन करने वाले हैं जिन्होंने अपनी जीवनसाथी को उसकी बौद्धिक प्रखरता के साथ इंसान के रूप में स्वीकारा है।


 
आखिर कोई कैसे इतनी विकृत सोच रख सकता है कि रंग काला हो जाएगा तो वर नहीं मिलेगा? आखिर कैसे कोई यह कह पाता है कि अगर कोई काले रंग की होती तो पार्टी की कमान नहीं दी जाती, कोई कैसे कह जाता है कि क्षेत्र विशेष की महिलाएं काली हैं 'लेकिन' उनकी कद-काठी आकर्षक होती है .. यह 'लेकिन' क्यों और कब तक...?  

यह असभ्य और अनैतिक आकर्षण जब तक सोच में, समाज की नस-नस में, पनप रहा है, फैल रहा है तब तक आचरण की गंदगी भी बदबू मारती रहेगी...और लूटी जाती रहेगी नारी देह, कभी हाथों से, कभी आंखों से, कभी शब्दों से, कभी सोच से और कभी सवालों से... 
 
वैचारिक 'स्वच्छता' का एक अभियान इस बेहुदी सोच के लिए चलाना होगा...क्या कोई 'फेयरनेस क्रीम' सोच को उजली बनाती है???      
 
       

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