हाल में हमारे देश में अनेक ऐसे धर्मगुरुओं का उभार हुआ है जिन्होंने धर्म को धन से जोड़ दिया है। वे भारत में सबसे तेज रफ्तार से उपभोक्ता सामान बेचकर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। उनके प्रशंसकों की संख्या करोड़ों में है, जो उन्हें धर्मगुरु से ज्यादा एक व्यावसायिक के रूप में प्रतिष्ठा दिला रहे हैं।
यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति है। कभी हमारे यहां धर्म की राजनीति में घुसपैठ होती रही है तो अब आर्थिक गतिविधियों से उनका गठबंधन हो रहा है। जब-जब ऐसी स्थितियां हुई हैं, तब-तब धर्म और धर्मगुरु अपने विशुद्ध स्थान से खिसके हैं। खिसकते-खिसकते वे ऐसी डांवाडोल स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां धर्म को 'अफीम' कहा जाने लगा है।
धर्म और धर्मगुरुओं के इर्द-गिर्द पूंजी की प्रतिष्ठा होने से अनेक विसंगतियां और विषमताएं समाज और राष्ट्र में व्याप्त हुई हैं। धर्म से हटकर अन्य क्षेत्रों में धर्मगुरुओं की पैठ ने कहर ही ढाया है।
कई तथाकथित धर्मगुरुओं पर आपराधिक गतिविधियों के आरोप भी लगते रहे हैं। जमीन हड़पने और अवैध संपत्ति अर्जित करने के ही नहीं, हत्या और यौन-शोषण के आरोप भी उन पर लगते रहे हैं। हैरानी की बात है कि इसके बावजूद ऐसे धर्मगुरुओं पर लाखों-करोड़ों अंधभक्तों का विश्वास कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है।
जो धर्मगुरु अपराधों के आरोप से मुक्त हैं वे अपने संस्थानों, मंदिरों और ट्रस्टों के लिए तेजी से संपत्ति व भूमि जमा करने की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो सके हैं। और अब रही-सही कसर ये तथाकथित धर्मगुरु व्यापार में हाथ आजमाकर पूरी कर रहे हैं।
अब तो व्यापार हो, राजनीति हो, खेती-बाड़ी हो, शिक्षा हो या चिकित्सा- हर लाभकारी एवं धन से जुड़े क्षेत्र में ये धर्मगुरु असरदार भूमिका में प्रस्तुत हैं। चूंकि मामला धर्म का है इसलिए प्रशासन एवं कानून भी मूक बना हुआ देख रहा है।
हमारे देश में धर्म और राजनीति के गठबंधन पर लंबे समय से चर्चाएं होती रही हैं। धर्म और राजनीति दो भिन्न-भिन्न धाराएं हैं। दोनों का उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न है। धर्म व्यक्तित्व रूपांतरण की प्रक्रिया है और राजनीति राज्य को सही दिशा में ले चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति राजनीतिक नेतृत्व की महत्वाकांक्षा रखने व राजनीतिक दल का गठन करने के लिए स्वतंत्र है।
बहस केवल इस बात पर है कि धर्मगुरुओं और राजनीति का गठबंधन देश के हितों के अनुकूल है या नहीं? दूसरा सवाल यह है कि कहीं इस गठबंधन से कुछ संवैधानिक सिद्धांतों, जैसे धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन होने का खतरा तो नहीं है? जब धर्मगुरु राजनीति की ओर आने की बात करते हैं तो उनका सबसे बड़ा संदेश भ्रष्टाचार विरोध और नैतिकता का होता है।
वे कहते हैं कि मौजूदा राजनीति की मुख्य समस्या भ्रष्टाचार है और वे उसे दूर करेंगे। यह बहुत अच्छा कार्य है, पर क्यों न इसकी शुरुआत स्वयं धर्मगुरुओं के नाम पर ही हो रहे तरह-तरह के भ्रष्टाचार को दूर करके की जाए? पहले अपने आंगन को बुहार लिया जाए, फिर व्यापक राजनीतिक स्वच्छता अभियान छेड़ा जाए।
जैसा कि राजनीति का सूत्र है- 'दूसरों को देखो' और धर्मनीति का सूत्र है- 'अपने आपको देखो।' कहां धर्मगुरु इस सूत्र का पालन कर पाते हैं? इस तरह की सार्थक पहल न कर प्राय: धर्मगुरु पूरे देश को अपनी नैतिक शक्ति के बल पर सुधारने का दावा करते हैं।
वे जो कार्यक्रम लोगों के सामने रखते हैं, वे किसी-न-किसी रूप में लाभकारी लोक-लुभावन कार्यक्रम होते हैं। वे लोगों को बड़े पैमाने पर एकत्र कर सकते हैं और ताली बजवा सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों की देश व दुनिया को बदलने की क्षमता प्राय: बहुत सीमित होती है।
आज की भ्रष्ट, स्वार्थी, पदलोलुप और मायायुक्त राजनीति की छवि को स्वच्छ बनाने के लिए राजनीति पर धर्म के नियंत्रण की बात समझ में आती है और अतीत में इस तरह का प्रचलन रहा है। धर्मगुरुओं ने महत्वपूर्ण भूमिका द्वारा आदर्श मूल्यों को स्थापित किया है।
यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्म की विकृतियों को मिटाने के लिए राजनीति और राजनीति की विकृतियों को मिटाने के लिए धर्म का अपना उपयोग है, पर जब इन्हें एकमेक कर दिया जाता है तो अनेक प्रकार की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। कुछ राष्ट्रों में ऐसा हुआ है और उसके दुष्परिणाम भी देखने को मिले हैं।
धर्म को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए, इस बात की जरूरत सर्वाधिक है। लेकिन अपनी लोकप्रियता के बल पर कुछ धर्मगुरु भारतीय राजनीति के बदलते दौर में कुछ सीटें जीतकर सामने आए हैं।
धर्मगुरु से राजनीतिज्ञ बन जाने की ये घटनाएं न केवल धर्मक्षेत्र के लिए बल्कि राजनीति के लिए भी घातक हैं। जहां धर्मगुरुओं के अनुयायी अधिक संख्या में हैं, उन क्षेत्रों में वे स्वयं जीतें न जीतें, वहां के परिणाम को प्रभावित कर ही सकते हैं। उनका यह असर किस दिशा में होगा? कौन सी बड़ी ताकत को लाभ मिलेगा?
कुछ संतुलित धर्मगुरुओं ने स्वयं सांप्रदायिक विचार प्रकट करने से परहेज किया है, पर उनकी विचारधारा अंत में उन्हें सांप्रदायिक व कट्टरवादी ताकतों की ओर ही ले जाती है। यह ऐसी प्रवृत्ति है, जो भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था रखने वाले नागरिकों के लिए चिंता का विषय है।
एक और चिंता का विषय यह है कि अंधविश्वास व अंधभक्ति के आधार पर वोट बैंक न बनाए जाएं। इन सब संभावनाओं पर संतुलित बहस होनी चाहिए ताकि धर्मगुरुओं के लिए सार्थक भूमिका की सही पहचान हो सके।
धर्मगुरुओं के धन के प्रति बढ़ते आकर्षण ने भी अनेक तरह की विसंगतियों को जन्म दिया है। अब तक धर्म और धर्मगुरुओं के इर्द-गिर्द ठाट-बाट और राजा-महाराजाओं जैसी वैभवपूर्ण स्थितियां ही देखने को मिलती थीं, लेकिन अब ये तथाकथित धर्मगुरु स्वयं व्यापारी बनकर बड़ी-बड़ी कंपनियों का संचालन कर रहे हैं।
एक प्रमुख महिला धर्मगुरु बहुत सारे धार्मिक कार्यों के अलावा अस्पताल, एक टीवी चैनल, इंजीनियरिंग कॉलेज और बिजनेस स्कूल चलाती है। हाल ही में दिल्ली में आयोजित हुए विश्व धार्मिक सांस्कृतिक सम्मेलन में देखा कि किस तरह से पानी से लेकर खाद्य पदार्थ तक बेचे गए। एक बड़ा पंथ चलाने वाले राम-रहीम ऑर्गेनिक उत्पाद खिलाकर देश को सेहतमंद बनाने की तमन्ना रखते हैं।
ये एक ऐसी लंबी सूची है जिसमें वर्तमान के लगभग सभी चर्चित धर्मगुरु ऐसे ही व्यावसायिक कार्यों और लाभकारी इकाइयों से जुड़े हैं। व्यावसायिक लाभों के लिए राजनीतिक और व्यावसायिक नेटवर्क रखने के साथ-साथ बड़ी संख्या में धार्मिक अनुयायी रखना इन तथाकथित धर्मगुरुओं की परंपरा रही है।
हिन्दू धर्म के व्यावसायिक पहलू पर आधारित चर्चित पुस्तक ‘डिवाइन पॉलिटिक्स’ के लेखक और मानवशास्त्र के विशेषज्ञ लाइस मैकियन के अनुसार गुरु चाहे जैसा हो- छद्म या वास्तविक, आध्यात्मिकता की राजनीति और व्यवसाय में इनका दखल है।’ उनके अनुसार 80 और 90 के दशक में धर्मगुरुओं की गतिविधियां अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद से जुड़ी रही है।
यही कारण है कि प्रारंभ में भारतीय योग विदेशों में बेचा गया। अब इन धर्मगुरुओं द्वारा घरेलू उत्पादों में पैठ बनाने की कोशिश चल रही है। एक तरह से यह आध्यात्मिक पूंजीवाद को प्रोत्साहित करने की चेष्टा है, जो येन-केन प्रकारेण पूजा से धन तक की यात्रा है, जिसका फलना-फूलना भारतीय समाज को किस करवट ले जाएगा? यह भविष्य के गर्भ में है।