गुजरात विधानसभा चुनाव की हुंकार...

ललि‍त गर्ग
इन दिनों देश में गुजरात के विधानसभा चुनाव चर्चा का विषय बने हुए हैं, राजनीतिक सरगर्मियां भी तेज हो गई हैं, चुनाव आयोग अब सितंबर में किसी भी वक्त गुजरात में चुनाव की तिथियों की घोषणा कर सकता है। 
 
सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह चुनाव चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है, भले ही कुछ पूर्वानुमानों एवं एबीपी न्यूज-लोकनीति सीएसडीएस के ओपिनियन पोल में बीजेपी के खाते में सबसे ज्यादा सीटें जाने का अनुमान जताया गया है। 
 
हाल ही में गुजरात में हुए राज्यसभा के चुनाव के दौरान अहमद पटेल के निर्वाचन को लेकर पैदा हुई स्थिति के बाद कांग्रेस को राज्य में मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है, लिहाजा आने वाले विधानसभा चुनाव अब और ज्यादा दिलचस्प हो गए हैं। 
 
गुजरात देश का ऐसा राज्य है, जो बीजेपी का अजेय दुर्ग माना जाता है। पिछले 22 सालों में कांग्रेस ने इस राज्य को जीतने के लिए सब कुछ किया लेकिन वह बीजेपी को हिला तक ही नहीं पाई। इस राज्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह दोनों ही आते हैं। इस दृष्टि से बीजेपी के लिए यह राज्य नाक का सवाल है और हर लिहाज से कांग्रेस के लिए भी। 
 
इस राज्य पर कभी 'हिन्दूवादी लहर' पर सवार होकर जीतने वाली बीजेपी 'मोदी लहर' पर सवार होकर कांग्रेस को हर मोर्च पर पटखनी दे चुकी है। लेकिन इस बार कांग्रेस नेताओं को लगता है कि उनके पास मौका है, क्योंकि इस बार के चुनाव में बीजेपी का चेहरा न तो नरेन्द्र मोदी होंगे और न अमित शाह। इस तरह के समीकरण बीजेपी के पक्ष में नही हैं। इस स्थिति का फायदा न केवल कांग्रेस उठाना चाहती है बल्कि शंकरसिंह वाघेला नई पार्टी बनाकर तो 'आप' सभी सीटों पर चुनाव लड़कर अपना रंग दिखाना चाहते हैं। अन्य राजनीतिक दल भी व्यापक तैयारी के साथ इस चुनाव संग्राम में उतरने का मानस बना चुके हैं। 
 
गुजरात में पाटीदार आरक्षण के मुद्दे पर नाराज हैं। 2 साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में शुरू हुए आंदोलन की आग ने बीजेपी की सत्ता को झुलसा दिया था जिसके चलते आनंदीबेन पटेल को अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ गई थी। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट के बाद से दलितों में गुस्सा है। 
 
गुजरात की राजनीति में वहां के आदिवासी समुदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। यह समुदाय भी लगातार हो रही उपेक्षा से नाराज है। इन सब स्थितियों एवं मुद्दों को कांग्रेस भुनाना चाहती है और ये ही मुद्दे बीजेपी के लिए भी भारी पड़ रहे हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गुजरात का सीएम रहते हुए गुजरात की जनता ने उन्हें लगातार 3 बार कुर्सी तक पहुंचाया लेकिन 2012 के चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी द्वारा मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़ने के बाद गुजरात को मोदी का विकल्प नहीं मिल सका है। 
 
हालांकि प्रधानमंत्री ने आनंदीबेन पर भरोसा कर उन्हें राज्य की कमान सौंपी लेकिन आनंदीबेन प्रधानमंत्री द्वारा गुजरात में तैयार की गई सियासी जमीन को कायम रखने में नाकाम रहीं और प्रधानमंत्री को उन्हें गद्दी से हटाकर विजय रूपाणी को गद्दी सौंपनी पड़ी। लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर रूपाणी भी ज्यादा सफल नहीं माने जा रहे। 
 
इन स्थितियों में बीजेपी के सामने एक चुनौती है, क्योंकि मुद्दों के साथ-साथ प्रभावी व्यक्ति ही जीत का आधार हो सकता है। बीजेपी में कोई प्रभावी चेहरा दिखाई नहीं दे रहा है, मुद्दों का आधार भी हिला हुआ है। केवल मोदी अपने व्यक्तित्व एवं लहर से ही यह चमत्कार घटित कर सकते हैं और उसकी संभावनाएं भी अभी तो दिखाई दे रही हैं। 
 
लेकिन इन चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए पाटीदारों और दलितों के बाद आदिवासी समुदाय मुसीबत का बड़ा सबब बन सकते हैं। राज्य के आदिवासी इलाकों में षड्यंत्रपूर्वक भिलीस्तान आंदोलन खड़ा किया गया है जिसमें तथाकथित राजनीतिक दल एवं धार्मिक ताकतें भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर आदिवासी समुदाय को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। इस अनियंत्रित होती आदिवासी अस्तित्व और अस्मिता को धुंधलाने की साजिश के कारण आदिवासी समाज और उनके नेताओं में भारी विद्रोह पनप रहा है। यह प्रांत के लिए ही नहीं, समूचे देश के लिए एक चिंता का विषय है। 
 
जिस प्रांत में भाजपा लगभग 20 वर्षों से सत्ता में है उस प्रांत में आदिवासी समुदाय की उपेक्षा के कारण उसे राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल होता दिख रहा है। यह न केवल प्रांत के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी व भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघानी के लिए चुनौती है बल्कि केंद्र की भाजपा सरकार भी इसके लिए चिंतित है। 
 
यह न केवल इन दोनों के लिए बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए भी एक गंभीर मसला बना हुआ है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री ने समय से पूर्व सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया है ताकि गुजरात के वोट बैंक को वे अपने पक्ष में कर सकें। वे लंबे समय से प्रतिमाह गुजरात की यात्रा भी कर रहे हैं ताकि जटिल होती समस्या को हल करने में सहायता मिल सके। समस्या जब बहुत चिंतनीय बन जाती है तो उसे बड़ी गंभीरता से मोड़ देना होता है। पर यदि उस मोड़ पर पुराने अनुभवी लोगों के जीए गए सत्यों की मुहर नहीं होगी तो सच्चे सिक्के भी झुठला दिए जाते हैं।
 
अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी, क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। 
 
राजनीतिक पार्टियां अगर सचमुच में प्रदेश के आदिवासी समुदाय का विकास चाहती हैं और 'आखिरी व्यक्ति' तक लाभ पहुंचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी। इन दिनों गुजरात के आदिवासी समुदाय का राजनीतिक लाभ बटोरने की चेष्टाएं सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात भाजपा की 'विस्तारक' पहल के तहत आदिवासी परिवार के साथ दोपहर का भोजन किया। 
 
लेकिन इन सकारात्मक घटनाओं के साथ-साथ आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम भी चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही प्रयासों ने भिलीस्तान जैसी समस्या को खड़ा कर दिया है। एक आंदोलन का रूप देकर आदिवासी समुदाय को विखंडित करने की कोशिश की जा रही है। इस भिलीस्तान आंदोलन को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खंड-खंड हो जाएगा। 
 
इसके लिए तथाकथित हिन्दू विरोधी लोग भी सक्रिय हैं। इन आदिवासी क्षेत्रों में जबरन धर्मांतरण की घटनाएं भी गंभीर चिंता का विषय है। यही ताकतें आदिवासियों को हिन्दू मानने से भी नकार रही हैं और इसके लिए तरह-तरह के षड्यंत्र किए जा रहे हैं। जबकि सर्वविदित है कि आदिवासी हिन्दू संस्कृति का ही अभिन्न अंग है और वे भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य विरासत एवं थाती हैं। उनके उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों से सावधान होने की जरूरत है। 
 
तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखंडित करने का यह हिंसक दौर आगामी चुनावों के लिए गंभीर समस्या बन सकता है। एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहिम के साथ यदि इन चुनावों की जमीन तैयार की जाए, आदिवासी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं को प्रोत्साहन मिले, उनको आगे करके इस चुनाव की संरचना रची जाए तो परिणाम आश्चर्यकारी आ सकते हैं। जरूरत सिर्फ सार्थक प्रयत्न की है। 
 
भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है? लक्ष्य पाने के लिए इतनी तीव्र बेचैनी पैदा करनी है जितनी नाव डूबते समय मल्लाह में उस पार पहुंचने की बेचैनी होती है। 
 
गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव आदिवासी समाज के लिए एक ऐसा संदेश हों, जो उनके जीवन मूल्यों को सुरक्षा दे और नए निर्माण का दायित्व ओढ़े। ऐसा करके प्रधानमंत्री मोदी न केवल अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करेंगे, बल्कि एक नई राजनीतिक सोच को भी जन्म देंगे।

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