सेना के जवानों पर मुकदमा उचित नहीं

यह खबर निश्चय ही हर भारतवासी को चिंतित करेगी कि जम्मू कश्मीर पुलिस ने वहां कार्रवाई कर रहे सेना के जवानों पर मुकदमा दर्ज किया है। जिनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, वे जवान 10 गढ़वाल यूनिट के हैं और इनमें एक मेजर स्तर का अधिकारी भी शामिल है। मुकदमा 302 यानी हत्या और 307 यानी हत्या के प्रयास के तथा 336 यानी जिन्दगी को खतरे में डालने वाले के तहत दर्ज हुआ है।


पिछले काफी समय से जम्मू कश्मीर पुलिस, सेना, केन्द्रीय रिजर्व पुलिसबल और सीमा सुरक्षाबल के बीच गजब किस्म का समन्वय देखा जा रहा था। कश्मीर में शांति की कामना करने वाले हर व्यक्ति की चाहत है कि यह समन्वय बना रहे और राज्य के अंदर के आतंकवादी तथा सीमा पार से आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले परास्त हों। आपसी समन्वय के कारण ही 2017 में सुरक्षाबलों को बड़ी कामयाबी मिली और 200 से ज्यादा आतंकवादी मारे गए। कई आतंकवादी बने नवजवान वापस आम जिन्दगी में लौटे हैं। इस एक घटना ने समन्वय की स्थिति पर गहरा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। यह प्रश्न उठने लगा है कि सुरक्षा एजेंसियां आपसी तालमेल से जो ऑपरेशन ऑल आउट चला रहीं हैं, उनका क्या होगा? क्या पुलिस और सेना के बीच फिर से किसी प्रकार के टकराव के दौर की शुरुआत होगी और आतंकवादी एवं अलगाववादी इसका लाभ उठाएंगे?

ऐसा होता है तो निश्चय ही जम्मू कश्मीर के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। आखिर सेना के जवानों पर मुकदमा दर्ज की नौबत क्यों आई और क्या यह सही कदम है? आरोप लगाया गया है कि सेना की गोलीबारी में दो लोगों की मौत हो गई। इसके अनुसार, सेना की कार्रवाई से कुछ और लोगों की मौत हो सकती थी लेकिन वे संयोग से बच गए। वैसे इस घटना की न्यायिक जांच के आदेश भी दे दिए गए हैं। घटना शोपियां जिले के गांव गनोवपोरा की है। सेना का काफिला वहां से गुजर रहा था। दरअसल, काफिला बड़ा था, जिसमें से पांच गाड़ियां पीछे छूट गईं थीं। उस पर लोगों ने पत्थर फेंकने शुरु कर दिए। आरंभ में संख्या कम थी, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी। सेना की ओर से जवाबी कार्रवाई न देख वे पूरी तरह हमलावर हो गए थे। एक जवान को उन्होंने खींच लिया और उस पर हमला कर दिया। जो कुछ दृश्य दिख रहा है उसमें साफ है कि सेना ने कार्रवाई न की होती तो पत्थरबाज उन्हें पीट-पीटकर मार डालते।

अब सेना के पास दो ही विकल्प थे, या तो अपने साथी को उन पत्थरबाजों के हाथों मरता छोड़कर भाग जाती या उसे बचाने के लिए कार्रवाई करती। इनके लिए भागना भी आसान नहीं था। कारण, हमलावरों की संख्या ज्यादा हो गई थी, गाड़ियों पर पत्थर बरस रहे थे, लोग डंडों से भी प्रहार कर रहे थे। पूरे घटनाक्रम का निष्पक्ष विश्लेषण करने वाला कोई भी यह स्वीकार करेगा कि एक विकट स्थिति पैदा हो गई थी, जिसमें सेना को कार्रवाई करनी पड़ी। जो कोई भी सेना के जवानों को दोष देता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनकी जगह आप होते तो क्या करते? सेना के खिलाफ इनका गुस्सा किस कारण था? कुछ दिन पहले उसी गांव में एक आतंकवादी छिपा हुआ था जिसे सेना ने मुठभेड़ में मार दिया था।

अगर आतंकवादियों के पक्ष में किसी की हमदर्दी है और वह पत्थरों और डंडों से सेना के काफिले पर हमले के रूप में निकालेगा तो फिर उसका जवाब देना पड़ेगा। जितना फुटेज सामने आया है उसमें देखा जा सकता है कि सेना आरंभ में बल प्रयोग से बच रही है। इसका परिणाम है कि उनकी गाड़ियों के शीशे तक चटक रहे हैं। मौत किसी की हो दुख तो होगा किंतु लोगों को सोचना चाहिए कि आप सेना पर हमला करने आएंगे तो जवाब में आपको फूल नहीं मिलेगा। हमले का मतलब आप अपराध कर रहे हैं, आप हमलावर हैं। दुर्भाग्य देखिए, प्रदेश की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती तक ने सेना की कार्रवाई की तीखी आलोचना कर दी।

जो खबरें आईं हैं, उनके अनुसार, उन्होंने तो रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण को फोन करके अपनी नाराजगी व्यक्त की। उनके बयान में पत्थरबाजों के खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुना गया। ऐसा ही आचरण उमर अब्दुल्ला का है। ऐसा भी नहीं है कि लोगों के हमले में सेना को क्षति नहीं पहुंची। हिंसक भीड़ के हमले में एक जेसीओ (जूनियर कमीशंड ऑफिसर) समेत सात सैन्यकर्मी घायल हो गए थे। सेना के जवान मर जाएं तो कोई बात नहीं लेकिन आतंकवादियों की समर्थक हिंसक भीड़ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए! अलगाववादियों को तो बहाना चाहिए। उन्होंने बंद का आह्वान कर दिया। किंतु मेहबूबा मुफ्ती प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। प्रदेश की कानून व्यवस्था उनकी जिम्मेवारी है। क्या उन्हें नहीं पता कि 2017 में आतंकवादियों से जूझते हुए 88 जवानों ने अपनी बलि दी है? इस वर्ष ही 11 जवान शहीद हो चुके हैं।

सेना के जवानों के बलिदान को कोई भूल सकता है क्या? मेहबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी पीडीपी सरकार में होते हुए भी प्रदेश से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून यानी अफस्पा हटाने की पक्षधर हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस भी इसकी मांग कर रही है। ये पार्टियां चाहती हैं कि ऐसे आधार बन जाएं, जिनसे वे केन्द्र पर इसके लिए दबाव बना सकें। इस कानून में सैन्यबलों को कुछ विशेष अधिकार एवं कानूनी सुरक्षा कवच मिले हुए हैं। अगर ऐसा नहीं होगा तो आतंकवाद से लड़ना कठिन हो जाएगा। हम यहां अफस्पा के बहस में नहीं पड़ना चाहते, लेकिन हाल में ऐसी खबर आई है, जिसमें कहा गया कि सरकार अफस्पा को थोड़ा सरल और नरम बनाने पर विचार कर रही है। हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है और केन्द्र सरकार के रवैए को देखते हुए इस पर विश्वास करना संभव भी नहीं कि इस समय वे अफस्पा पर पुनर्विचार करेंगे।

थलसेनाध्यक्ष जनरल विपीन रावत ने भी इसकी संभावना से इनकार किया है, किंतु ऐसी खबरों के पीछे कोई लोग तो हैं। हमें यह समझना होगा कि सुरक्षाबलों को आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के स्थलों पर बड़ी कठिनाई में काम करना पड़ता है। बाहर रहकर सेना की आलोचना करना आसान है, लेकिन उनकी जगह स्वयं को रखकर विचार करिए तो सब कुछ आसानी से समझ में आ जाता है। एक ओर आतंकवादी हैं, जिनसे आपको मुठभेड़ करना है, जिनके हमलों से जनता को बचाना है और दूसरी ओर उनके समर्थन में उनका ढाल बने पत्थर उठाए या किसी तरह से खड़े लोग हैं। आपको लोगों को बचाना है और आतंकवादी या आतंकवादियों को पकड़ना या मारना है। इसमें कई बार लोग भी मारे जाते हैं।

सेना के जवानों के जो बयान हम टीवी पर देखते हैं, उसमें वे कहते हैं कि हम एक भी आम आदमी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते लेकिन कई बार जब बिलकुल जान पर बन आती है तो बल प्रयोग करना पड़ता है। आज सेना की कार्रवाइयों का ही प्रतिफल है कि घाटी में पत्थरबाजी में भारी कमी आई है। जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिदेशक ने ही सेना की प्रशंसा करते हुए कुछ दिनों पहले बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि 2017 में पत्थरबाजी में 90 प्रतिशत की कमी आई, उसमें सेना के ऑल आउट ऑपरेशन तथा एनआईए द्वारा आतंकी फंडिंग के मामले में अलगाववादियों के खिलाफ हुई कार्रवाई की भूमिका है। उन्होंने साफ कहा था कि ऑपरेशन ऑल आउट में बड़े आतंकवादियों के मारे जाने से पत्थरबाजी में कमी आई। अगर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ऐसी धारणा रखते हैं तो वे सेना के किसी टुकड़ी के खिलाफ आसानी से मुकदमा दर्ज करने के लिए तैयार नहीं होंगे। निश्चय ही इसके पीछे राजनीतिक दबाव होगा।

यह दबाव किसका हो सकता है बताने की आवश्यकता नहीं, किंतु देश ऐसे मुकदमे के पक्ष में नहीं हो सकता। इस तरह सेना के जवानों के खिलाफ मुदकमे होंगे तो फिर ऑपरेशन ऑल आउट में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जो अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच रही है उसमें बाधा उत्पन्न हो जाएगी। यह उनका मनोबल तोड़ने का काम करेगा। हालांकि कोई चारा न देख सेना की ओर से भी प्राथमिकी दर्ज करा दी गई है। इससे एकपक्षीय कार्रवाई संभव नहीं होगा। वैसे भी देश इस मामले में सेना के जवानों के साथ है।

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