दल-बदल का रोग और नाकारा कानून

भारतीय राजनीति में आचरण की शुचिता और वैचारिक प्रतिबद्धता का लोप हुए बहुत लंबा अरसा बीत चुका है, लिहाजा व्यक्तिगत या सामूहिक दल-बदल की खबरें अब किसी को भी चौंकाती या हैरान नहीं करती हैं। हां, इस बात पर कोफ्त जरूर होती है कि सात दशक पूरे करने जा रहे हमारे लोकतंत्र के अनुभव ने देश की राजनीति को पतन के किस दलदल में लाकर खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों की विधानसभाओं में तो, जहां दो राजनीतिक दलों के बीच बहुमत के लिए बहुत कम सदस्यों का अंतर होता है, अक्सर ही विधायकों को पाला बदलकर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा करते देखा जाता है। 
 
हाल के दिनों में उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश विधायकों के दल-बदल के चलते राजनीतिक अस्थिरता के शिकार हो चुके हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, गोवा में भी ऐसे हालात पैदा होते रहे हैं और सीमावर्ती पूर्वोत्तर के तमाम छोटे-छोटे सूबे तो अक्सर ऐसी स्थिति से दो-चार होते ही रहते हैं। वैसे जनतांत्रिक राजनीति में दल-बदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक खुले और लोकतांत्रिक समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। अगर विचारों में परिवर्तन को सिरे से ही बुराई मान लिया जाए तो यह उस व्यक्ति के अधिकार का हनन या उसमें हस्तक्षेप करना होगा। आजादी के बाद भारत की राजनीति में दल-बदल की ऐसी कई मिसालें हमारे सामने हैं, जिनसे इस अधिकार की सिर्फ पुष्टि ही नहीं हुई है बल्कि हमारा लोकतंत्र भी परिपक्व हुआ है।
 
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी यानी राजाजी और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी अपने समय में देश के शीर्ष राजनेताओं में शुमार किए जाते थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। राजाजी को तो कांग्रेस ने ही देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी। डॉ. मुखर्जी भी आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की सरकार में मंत्री थे, लेकिन दोनों ही नेताओं को वैचारिक मतभेदों के चलते बाद में कांग्रेस से अलग होना पड़ा। राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी का गठन किया और डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद से भारतीय जनसंघ की स्थापना कर ली। कांग्रेस से ही जुड़े एक अन्य विद्वान राजनेता मीनू मसानी भी कांग्रेस से नाता तोड़कर राजाजी की स्वतंत्र पार्टी में शामिल हुए थे।
 
इसके पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर रहे समाजवादी धड़े के आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया आदि नेताओं ने तो बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था। उसी दौर में महात्मा गांधी के अनन्यतम अनुयायी आचार्य जेबी कृपलानी ने भी कांग्रेस से नाता तोड़कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी, जो बाद में सोशलिस्ट पार्टी में विलीन हो गई थी। ये सारे दल-बदल किसी न किसी विचार और आदर्श पर आधारित थे, न कि महज सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य से प्रेरित।
 
दरअसल सन् 1967 के आम चुनाव तक दल-बदल को राजनीतिक प्रक्रिया का एक सामान्य अंग ही माना जाता था। यह एक रोग या अनिवार्य बुराई है, यह धारणा उस वर्ष विधानसभा चुनावों के बाद जो कुछ हुआ, उसके कारण विकसित हुई। आज यह बुराई एक भयावह और चिंताजनक रूप ले चुकी है। देश के किसी भी सूबे और किसी भी दल की राजनीति इस बीमारी से अछूती नहीं है।
 
1967 में विभिन्न राज्यों में व्यापक पैमाने पर घटी दल बदलने और पार्टी तोड़ने की घटनाओं ने निर्वाचित सदनों की पवित्रता नष्ट कर उन्हें जनप्रतिनिधियों के नीलामीघर में तब्दील कर दिया। उसके बाद तो ऐसी घटनाएं आम हो गईं। दल बदलने और पार्टी तोड़ने की घटनाएं अक्सर सरकार गिराने या अल्पमत की सरकार को बहुमत वाली सरकार में तब्दील करने के लिए तो होती ही हैं, इसके अलावा चुनावों के समय टिकट वितरण के दौरान और चुनाव के बाद स्पष्ट जनादेश के अभाव में जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के लिए भी खूब होती हैं। राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए अपनी पार्टी की विचारधारा या राजनीतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा अब मजाक की चीज बनकर रह गई है। तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही सबसे बड़ा राजनीतिक मूल्य हो गया है। 
 
तो 1967 में दल-बदल के जरिए राज्यों में शुरू हुआ सरकारें गिराने-बनाने-बचाने का खेल बाद के वर्षों में लगातार विकसित होता गया। इस खेल को समाप्त करने के लिए पहली बार उस समय गंभीरतापूर्वक सोचा गया, जब आठवें आम चुनाव में कांग्रेस ने राजीव गांधी की अगुवाई में तीन चौथाई से अधिक बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। राजीव गांधी की सरकार ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52वें संविधान संशोधन के जरिए दल-बदल विरोधी कानून संसद में पारित कराया। हालांकि इस कानून को पारित कराने को लेकर राजीव गांधी की नीयत पर सवाल भी उठे। कई लोगों ने इसे उनके 450 से अधिक सांसदों के भारी-भरकम बहुमत की सुरक्षा के लिए उठाया गया कदम माना।
 
इस कानून में सबसे बड़ी खामी या विसंगति यह थी कि इसके जरिए व्यक्तिगत दल-बदल पर तो रोक लगाई गई किन्तु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई। शुरू में इस कानून में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक या सांसद दल बदलते हैं तो उनका यह कदम दल-बदल नहीं बल्कि दल-विभाजन माना जाएगा। आगे चलकर यह संख्या पचास प्रतिशत और फिर दो तिहाई कर दी गई। 
 
लेकिन मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। जिस समय यह कानून पारित किया जा रहा था, संसद के भीतर लगभग सभी दलों ने इसका समर्थन किया था, यहां तक कि जनता पार्टी के सांसद और वरिष्ठ समाजवादी नेता प्रो. मधु दंडवते ने भी इसे ऐतिहासिक कदम करार दिया था। लेकिन समाजवादी चिंतक और संसदविद् मधु लिमये एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अखबारों में अपने लेखों के माध्यम से इसके प्रावधानों पर सवाल उठाते साफ कहा था कि इस कानून से दलबदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून खुदरा दल-बदल को तो रोकता है, मगर थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। दल-बदल विरोधी कानून बनने के कुछ वर्षों के भीतर ही यह साफ हो गया कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम है और आज तो यह कानून न सिर्फ नाकारा बन गया है, बल्कि इसने हमारे संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को जन्म दे दिया है।
 
दरअसल दल-बदल विरोधी कानून में दो-तिहाई सदस्यों का एक साथ अलग होना आवश्यक करार दिए जाने के बावजूद इस कानून का मजाक इसलिए बनाया जाने लगा है क्योंकि इस कानून को लागू करने का दायित्व सदन के अध्यक्ष का है और विधानसभा अथवा लोकसभा अध्यक्ष भी सत्तारुढ अथवा बहुमत प्राप्त दल के ही अपरोक्ष रूप से सदस्य होते हैं। उनके द्वारा सरकार को बचाने के लिए अक्सर दल-बदल विरोधी कानून का मनमाने तरीके से दुरुपयोग किया जाता है। दल-बदल विरोधी कानून के तहत सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने की याचिकाओं पर फैसला लेने में उनके द्वारा इतना ज्यादा समय बर्बाद कर दिया जाता है कि उनके फैसले का महत्व ही समाप्त हो जाता है।
 
विधानसभा अथवा लोकसभा अध्यक्ष द्वारा अपनी पार्टी के हित एवं नेतृत्व के दिशा निर्देशानुसार कार्रवाई की जाती है, जिससे दल-बदल विरोधी कानून का महत्व ही समाप्त हो जाता है। ऐसे मामलों में कभी-कभी राज्यपालों की उनकी अपनी राजनीतिक निष्ठाओं से प्रेरित भूमिका भी आग में घी का काम करती है। इसलिए इस कानून में इस तरह के बदलाव की दरकार है जिसके अनुसार सदन के अध्यक्ष को दल-बदल विरोधी कानून के उल्लंघन संबंधी याचिकाओं पर 24 घंटों के अंदर फैसला लेना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। विधानसभा अध्यक्ष के फैसले के विरोध में यदि किसी सदस्य द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाती है तो उसका फैसला भी तत्काल उसी प्रकार दिया जाना चाहिए जिस प्रकार किसी मुकदमे में जमानत की याचिकाओं पर फैसला दिया जाता है।
 
दरअसल दल-बदल की समस्या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि हर स्थिति में दल-बदल अवसरवाद या महत्वाकांक्षा या लोभ के कारण ही होता हो, ऐसा भी नहीं है। इसके मूल में कहीं न कहीं भारतीय लोकतंत्र में स्वीकृत पार्टी प्रणाली भी है और साथ ही राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव भी। मौजूदा दौर में भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी राजनीतिक दल एक नेता और उसके परिवार की निजी जागीर बन गए हैं।
 
ऐसे दलों में संगठनात्मक चुनाव केवल निर्वाचन आयोग के निर्देश की औपचारिक तौर पर खानापूर्ति के लिए होते हैं ताकि दल की मान्यता बची रह सके, लेकिन ये वास्तविक चुनाव नहीं होते जिनमें उम्मीदवार बिना झिझक के किसी के भी खिलाफ खड़ा हो सके और गुप्त मतदान के जरिए चुनाव हो। ऐसी पार्टियों में नेता केवल एक सीमा तक ही अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। वे कभी भी किसी मुद्दे पर अपने दल के सर्वोच्च नेता की राय से असहमति नहीं जता सकते। नतीजतन उनके भीतर असंतोष और आक्रोश बढ़ता जाता है और वे ऐसे समय उग्र होकर बाहर निकलता है जब उनके अपने राजनीतिक हितों पर चोट होती है।
 
हमने चूंकि काफी हद तक ब्रिटिश संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को अपनाया है, इसलिए संसदीय राजनीतिक क्रियाकलापों को लेकर हमारे यहां अक्सर ब्रिटिश संसद की नजीरें पेश की जाती हैं। ब्रिटेन की संसद में कोई भी निर्वाचित सदस्य सदन में पार्टी के रुख से अपनी स्पष्ट असहमति व्यक्त कर सकता है, वह पार्टी के आधिकारिक रुख के खिलाफ वोट भी दे सकता है; लेकिन दो मौकों पर उसे पार्टी व्हिप का पालन अनिवार्य रूप से करना होता है, पहला अविश्वास प्रस्ताव के समय और दूसरा- वित्तीय विधेयक (मनी बिल) के दौरान। इसमें अगर सदस्य अपनी पार्टी के अनुशासन का पालन नहीं करता है तो उसकी सदस्यता खारिज हो जाती है।
 
कारण यह है कि उपरोक्त दो मौके ही हैं, जब शक्ति परीक्षण में हारने पर सरकार गिर जाती है अन्यथा नहीं। आज भी ब्रिटिश संसद में गाहे-बगाहे सदस्य अपनी पार्टी के खिलाफ वोट देते हैं, पार्टी बदल भी लेते हैं, लेकिन उनकी सदस्यता बरकरार रहती है। वहां प्रधानमंत्री रहे ‍विंस्टन चर्चिल, हैरोल्ड मैकमिलन, मार्गेट थैचर जैसे कई नेता हुए हैं, जिन्होंने सांसद के रूप में अपनी पार्टियों के खिलाफ संसद में कई बार मतदान किया। लेकिन भारतीय व्यवस्था ऐसी है कि यदि कोई सांसद या विधायक ऐसा करे तो उसकी संसद या विधानसभा की सदस्यता तत्काल समाप्त हो जाती है। लेकिन इन कमियों को दूर करने के बारे में देश की राजनीतिक जमातें सोचने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए नग्न अवसरवाद और मूल्यहीनता का खुला खेल चल रहा है। सवाल यही है कि हमारी संसद कोई भी कानून सीधा-साधा क्यों नहीं बनाती है? क्यों उसमें इतने जटिल प्रावधान बना दिए जाते हैं जिनका खुलेआम दुरुपयोग किया जाता है, जिससे उस कानून की आत्मा ही मर जाती है।
 

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