अमेरिकी सीनेट में भारत को क्यों मिली निराशा?

हाल ही में अपने अमेरिकी दौरे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अमेरिकी संसद को संबोधित करने के बाद स्टेंडिंग ओवेशन मिला। मीडिया में कहा गया कि अमेरिका, भारत को अपने देश का ग्लोबल स्ट्रेटेजिक और डिफेंस पार्टनर मानता है और इसके लिए वह अमेरिका के कानूनी प्रावधानों के अनुरूप वांछित परिवर्तन करने वाला है। लेकिन अमेरिका की सीनेट ने राष्ट्रपति ओबामा की पहल को अस्वीकार कर दिया। इसका सीधा सा परिणाम यह हुआ कि शीर्ष रिपब्लिकन सीनेटर जॉन मैक्केन ने एनडीएए-17 में जो संशोधन पेश किए थे, उन पर स्वीकृति की मोहर लगाना जरूरी नहीं समझा गया।    
दूसरी ओर, कांग्रेस ने पाकिस्तान को सिक्योरिटी एनहैंसमेंट ऑथराइजेशन के नाम पर 80 करोड़ डॉलर की मदद देने का प्रावधान कर दिया। इतना ही नहीं, अमेरिकी सीनेट ने पाक को हक्कानी नेटवर्क से लड़ने के लिए 30 करोड़ डॉलर का प्रावधान भी जारी रखा है। यह राशि पाक के वर्ष 2015 से अमेरिका के 'एनुअल डिफेंस ऑथराइजेशन' में शामिल रही है। इस मामले में उल्लेखनीय बात यह है कि अमेरिका के एनडीएए (नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन एक्ट) में अब तक 400 से ज्यादा संशोधन किए गए हैं। लेकिन, आश्चर्य की बात है कि इनमें एक भी बदलाव या संशोधन ऐसा नहीं है जो कि पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद में कटौती करने या रोकने की बात करता हो। 
 
इस तथ्य से आप क्या निष्कर्ष निकालते हैं? इसका एकमात्र सीधा सा अर्थ यही है कि अमेरिका, पाकिस्तान को कमजोर होते नहीं देखना चाहता है। अपनी इसी भारत विरोधी रणनीति के तहत अमेरिकी सांसदों ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद को और अधिक आसान बनाते जाने का ही काम किया है। साथ ही, भारत को निरंतर आश्वासन दिया कि भारत को तो अमेरिका अपना बड़ा रक्षा सहयोगी देश मानता है लेकिन अब अमेरिकी कानूनों में समुचित बदलाव करने की बात आती है तो अमेरिका की पाक समर्थक लॉबी सक्रिय हो जाती है।     
 
अमेरिका आतंकवादी हमलों के बाद से ही पाकिस्तान को अहम रणनीतिक सहयोगी मानता रहा है और इस तरह के प्रावधानों के तहत पाकिस्तान को सभी तरह से मदद देने में कभी पीछे नहीं रहता था। पहले अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को साझी मदद देता था। इस मदद को कोलिशन सपोर्ट फंड (सीएसएफ) का नाम दिया जाता रहा है और 2013 तक सीएसएफ के तहत अमेरिका से 3.1 अरब डॉलर की मदद की गई। चूंकि यह फंड अक्टूबर में समाप्त होने जा रहा था और यह अमेरिका के अफगानिस्तान मिशन से संबंधित था, जिसके अब खत्म किए जाने की घोषणा कर दी गई है। 
 
पहले यह मदद दोनों देशों के बीच सीमा समझौते के लिए दी जाती थी, लेकिन अब यह पाकिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए ही दी जा रही है। इतना ही नहीं, पिछले सप्ताह ही अमेरिका की प्रतिनिधि सभा (हाउस ऑफ रिप्रजें‍टेटिव) ने एक बिल पास कर दिया जिसके तहत पाकिस्तान को हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मदद की राशि 45 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 90 करोड़ डॉलर कर दी गई।
 
विदित हो कि आतंकवादियों का हक्कानी नेटवर्क अफगानिस्तान में सक्रिय है और यह वहां तालिबान को संचालित करता है, लेकिन इसके लिए मदद अफगानिस्तान की बजाय पाकिस्तान को दी जाती है? क्या इन उदाहरणों से साफ नहीं होता कि अमेरिका को जहां भारत में सहयोगी दिखता है, वहीं पाकिस्तान को मदद करने का कोई मौका नहीं छोड़ता है।      
 
यह स्थिति तब है जबकि अमेरिका को पता है कि ओसामा बिन लादेन मामले पर ब्लैकमेल करने का काम भी पाकिस्तान ने बखूबी किया है। इस दोगली नीति का लोग ही नहीं, देश भी प्रयोग करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों का वास्तविक केन्द्र सऊदी अरब है, लेकिन कच्चे तेल और कारोबारी संबंधों की खातिर अमेरिका, सऊदी अरब को कभी नाराज नहीं करना चाहेगा। इसलिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होते हैं, वरन देशों के स्थायी हित होते हैं लेकिन कभी-कभी तो शक होता है कि क्या अमेरिका अपने राष्ट्रीय हितों को भी नजरअंदाज कर देता है?    
 
इसी तरह की प्रवृत्ति के चलते भारत को अमेरिका में स्पेशल स्टेट्‍स (विशेष दर्जा) दिलाने वाला बिल अमेरिकी संसद में पास नहीं हो पाया। इस बिल को टॉप रिपब्लिकन सीनेटर ने प्रपोज किया था। अगर इन बातों को अमेरिकी आसानी से स्वीकार कर ले तो भला विश्वशक्ति की क्या नाक रह जाएगी? लेकिन हमेशा ही अपने हितों और लाभों से प्रेरित होने वाले अमेरिका ने अमेरिकी कांग्रेस में जो विधेयक पास किया, उसमें भारत के साथ बाइलेटरल रिलेशन का दर्जा बढ़ाने की मांग की गई थी। संसद में नेशनल डिफेंस ऑथोराइजेशन एक्ट (एनडीएए) को दोनों पार्टियों ने 85-13 के वोट से पास किया लेकिन इस एक्ट के कई अहम अमेंडमेंट्स (सुधार) संसद में पास नहीं किए जा सके। 
 
पर दोहरे चरित्र वाले अमेरिकी राजनीतिज्ञों ने बिल के अहम संशोधनों (एसए 4618) के प्रावधानों को पास कराने की जल्दी नहीं दिखाई। इस संशोधन पर न तो बहस हो सकी और न ही राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े अन्य मामलों पर वोटिंग ही हुई। यह तो भारत से जुड़ा मामला था, लेकिन अमेरिकी राजनीतिज्ञों ने तो उन अफगान नागरिकों को विशेष प्रवासी वीजा देने की संख्या को भूल जाने में ही भलाई समझी जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर युद्ध के समय में अमेरिकियों की मदद की लेकिन आज वे तालिबानी उग्रवादियों के निशाने पर हैं।  
 
स्वयं मैक्केन का कहना है कि अक्सर ही यह देखा गया है कि इस महत्वपूर्ण और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी प्रक्रिया को मात्र एक सीनेटर ही रोकने के लिए काफी होता है। हालांकि इस तरह की गैर-जिम्मेदारी से भरी प्रक्रियाओं के बहुत घातक परिणाम सामने आते हैं जो कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों को पर्याप्त गंभीरता से लेना जरूरी नहीं समझते हैं। शायद ऐसी ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के बारे में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल का कहना था कि लोकतंत्र, शासन की सबसे निकृष्ट कोटि की प्रणाली है जिसे हमने अपना रखा है।  
 
पिछले मंगलवार को ही उताह के सीनेटर माइक ली ने सीनेट द्वारा पास रक्षा व्यय संबंधी बिल के तहत महिलाओं को अनिवार्य भर्ती से अलग रखने का संशोधन रखा था। एरीजोना के सीनेटर जॉन मैक्केन का कहना था कि उन्होंने इस संशोधन को प्रभावी बनाने के लिए ली को एक अवसर दिया था, लेकिन उताह के रिपब्लिकन सांसद ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था क्योंकि वे चाहते थे कि समुचित प्रक्रिया के बिना अमेरिकी नागरिकों को अनिश्चित काल के लिए निरुद्ध (डिटेन) करने के सुधार पर सबसे पहले विचार किया जाए। 
 
इसके बाद सीनेट ने नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन एक्ट के तहत प्रावधान किया गया कि सेना में अनिवार्य भर्ती के लिए महिलाएं भी आवेदन कर सकती हैं। सदन में हुए गड़बड़घोटाले के लिए ली ने साउथ कैरोलाइना के रिपब्लिकन सीनेटर लिंडसे ग्राहम को दोषी ठहराया कि उन्होंने सदन के पटल पर दो में से कोई भी एक मुद्दा 'महिलाओं को अनिवार्य सेना भर्ती से छूट या अमेरिकी नागरिकों को अनिश्चितकाल के लिए निरुद्ध करने' नहीं रखने दिया और ली ने बहुत सारे संशोधनों को संसद में सदन के पटल पर रखने से रोक दिया। 
 
अगर सीनेटर जॉन मैक्केन अपना संशोधन सदन में पेश नहीं कर सके तो यह मात्र एक व्यवस्थागत खामी ही नहीं थी वरन उन राजनीतिज्ञों का रवैया भी जिम्मेदार है जो कि अपने विषय के आगे और किसी बात को महत्वपूर्ण समझते ही नहीं हैं। बाद में, सीनेटर मैक्केन ने अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से आग्रह किया है कि भारत को समुचित दर्जा दिया जाए, अत्याधुनिक तकनीक को उपलब्ध कराने और अन्य रक्षा संबंधी सुविधाओं को मुहैया कराए जाने की शीघ्रातिशीघ्र पहल की जाए। 

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