पंद्रह अगस्त को लद्दाख में जनता के जश्न को यदि आपने टीवी पर देखा हो तो आज़ादी के सही मायने समझ में आए होंगे। अभी तक हमारी पीढ़ी ने 1947 में हुए आज़ादी के जश्न को कल्पना में ही जिया था किन्तु इस वर्ष भारत ने उस जश्न को लद्दाख में पुनः साक्षात् होते देखा है। अनुच्छेद 370 की दुकान चलाने वाले लद्दाखियों के भी उतने ही गुनाहगार हैं जितने कश्मीरी पंडितों के। कभी हमें अपने ऊपर भी अफ़सोस होता है कि देश के मस्तक पर एक काजल की कोठरी थी जिसकी परवाह किए बगैर हम हर वर्ष देश को रोशन कर रहे थे। भारत की अधिकांश पढ़ी-लिखी जनता भी लद्दाख को लेकर अंधियारे में ही रहती यदि लद्दाख के सांसद जाम्यांग नामग्याल ने संसद के माध्यम से लद्दाखियों की बेबसी और पीड़ा से भारत की जनता को अवगत नहीं कराया होता।
अब उस पड़ोसी मुल्क की बात करें जो स्वयं अपनी आजादी के बोझ को संभाल नहीं पा रहा, वह दूसरे की आजादी पर जान देने को आतुर बैठा है। उसने अपनी आज़ादी का जश्न इस तरह मनाया कि स्वयं को रोटी, कपड़ा और मकान से ही आजाद कर लिया है। जो नंगे बैठे हैं वे अपना सर्वस्व लुटाने की बातें कर रहे हैं। विश्व बाजार में उसे कोई भीख देने को तैयार नहीं, एक लंगोट पहनकर अलग-अलग देशों में जाकर कश्मीर के नाम पर सहायता की याचना/ मिन्नत कर रहा है और दूसरी ओर कश्मीरियों को सहायता देने का वादा कर रहा है।
फटेहाल देश के फटेहाल बाशिंदे जिनके ख्वाब भी छोटे नहीं हैं। सीधे बादशाहों वाले हूरों के बीच। गरीब और वंचित को जन्नत का लालच देकर जिहादी बनाया जा रहा है। जहां मीडिया गढ़ी कहानियां बेचता हो। जहां सच से परहेज हो और झूठ का बोलबाला हो। जिसके सैनिक को पता है कि उसके शव का भी त्याग कर दिया जाएगा और उसे जन्नत तो छोड़िए दोजख भी नसीब नहीं होगी। जिन्हें धर्म-अधर्म का भेद नहीं मालूम। मसला यह है कि भारत में जो अनुच्छेद 370 की दुकान बंद होने से पाकिस्तानी नेताओं और आतंक के आकाओं की दुकानों पर भी ताले लगने का खतरा हो गया है इसलिए वे बांग देने लगे हैं।
इनकी बांग में सुर मिला भारत के कुछ तथाकथित नामी नेताओं का। ये वो लोग हैं जो अपने ही घर में अपना वजूद खो चुके हैं। जिनकी राजनीति की दुकान अभी तक एक समुदाय विशेष को लेकर चलती थी। देश के लोकतंत्र को धर्म से दूषित करने वाले यही लोग हैं जो दशकों से अपनी रोटियां सेंक रहे थे। यदि गाहे बगाहे किसी दूसरे ने उसी तर्ज पर अपनी रोटी सेंक ली तो उसे गुनाहगार करार देते हैं। धारा 370 समाप्त होने के पश्चात् ये नेता भी भ्रमित हो चुके हैं और वे अपने ही गोल में दनादन गोल दाग रहे हैं। जनता इन्हें पहले ही हाशिए में तो कर ही चुकी है और अपनी करनी से अब तो ये हाशिए से भी बाहर हो जाएंगे।
भारत के इन विमूढ़ नेताओं के साथ कुछ ऐसे पत्रकार भी शामिल हैं जो न केवल अप्रासंगिक हो चुके हैं वरन उनकी राष्ट्रभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं, जिनकी रोजी-रोटी राष्ट्र की आलोचना करने से चलती है। भारत का ऐसा चित्रण करेंगे कि जैसे यहां तो प्रजातंत्र का गला घोंट दिया गया है। मानवाधिकारों का हनन हो चुका है। इत्यादि। जिन लेखों को कोई भारतीय अख़बार नहीं छापेगा वे लेख विदेशी अख़बारों में छप रहे हैं। इन्हें अपने राष्ट्र को विदेशों में बदनाम करने से परहेज नहीं है। इनकी औकात किसी विदेशी सरकार की राय को बनाने या बदलने की तो नहीं होती है किन्तु विदेशी नागरिकों के मन में अवश्य ये भारत के प्रति द्वेष बढ़ा रहे हैं। भारत के सकारात्मक सोच वाले कुछ नेताओं और अप्रवासी भारतीयों ने बड़े प्रयासों से भारत को सांप और बिच्छू की इस इमेज से बाहर निकाला है।
अपने घर के लेखक तो सुधर नहीं सकते किन्तु भारत के प्रभाव को समझते हुए राष्ट्रपति ट्रंप, इमरान को दिए अपने बयान से पलट चुके हैं। बोले अब भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का ऑफर समाप्त हुआ जैसे कोई सेल लगी हुई थी। उधर न्यूयॉर्क के एक सांसद को उन्हीं के देश के विदेश सचिव को चिट्ठी लिखनी महंगी पड़ गई जिसमें भारत में कश्मीर के वर्तमान हालातों पर चिंता व्यक्त की गई थी। अमेरिका में बसे प्रवासी भारतीय उस सांसद पर चढ़ बैठे तो तुरंत वे अपनी चिट्ठी को लेकर माफीनामे की मुद्रा में आ गए।
सोचिए, राष्ट्र के बाहर बैठे प्रवासी भारतीय, भारत की इज्जत और हितों के लिए अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं और हमारे देश में बैठे कुछ पत्रकार/ नेता विदेशी अख़बारों में उल्टियां कर रहे हैं, जहर उगल रहे हैं। लानत है ऐसे पत्रकारों पर, नेताओं पर जो अपने मतभेद अपने घर में नहीं रख सकते और दुश्मन देशों को चारा देने का काम कर रहे हैं।