इस महंगे लोकतंत्र में आम आदमी की जगह कहां?

अनिल जैन
एक समय था जब पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक बाहुबलियों की भूमिका बेहद अहम हुआ करती थी। खासकर उत्तर भारत के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में तो जिस उम्मीदवार के पास जितने ज्यादा बाहुबली होते थे, उसकी जीत उतनी ही ज्यादा सुनिश्चित मानी जाती थी। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल बढता गया और चुनावी सुरक्षा इंतजामों में सुधार होता गया, वैसे-वैसे चुनाव नतीजों को प्रभावित करने में तो बाहुबल की भूमिका सिमटती गई, मगर राजनीति का पतन जारी रहा, जिसके चलते बाहुबली खुद ही उम्मीदवार बनकर चुनाव मैदान में उतरने लगे।
 
इस प्रकार हमारी राजनीति में बाहुबलियों की मौजूदगी तो बनी ही रही, साथ ही धनबल के रूप में एक नई बीमारी ने हमारी चुनाव प्रक्रिया को अपने शिकंजे में जकड लिया। धनबल की भूमिका ने न सिर्फ चुनाव प्रचार को महंगा बना दिया है बल्कि समूची चुनाव प्रक्रिया को एक तरह से भ्रष्ट भी कर दिया है।
 
अब तो धनबल की भूमिका इस कदर बढ गई है कि हर चुनाव पिछले चुनाव से महंगा साबित होता जा रहा है। पांच महीने पहले हुए गुजरात विधानसभा चुनाव को अभी तक का सबसे महंगा विधानसभा चुनाव माना जा रहा था, लेकिन हाल ही संपन्न कर्नाटक विधानसभा के चुनाव ने गुजरात को बहुत पीछे छोड दिया है।
 
गुजरात में भाजपा और कांग्रेस का कुल अनुमानित खर्च 1750 करोड रुपए था, जबकि कर्नाटक में विभिन्न दलों के खर्च का यह आंकडा 10,000 करोड के आसपास पहुंच गया। एक गैर सरकारी संगठन 'सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक यह खर्च 2013 के चुनाव की तुलना में दोगुना से अधिक है। खास बात यह है कि इसमें प्रधानमंत्री के प्रचार अभियान पर हुआ खर्च तो शामिल ही नहीं है। कर्नाटक में जो कुल चुनावी खर्च हुआ है, उसमें उम्मीदवारों का व्यक्तिगत खर्च 75 फीसदी तक बढ़ गया है।
 
इससे पहले चुनाव में खर्च को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स रिफॉर्म्स (एडीआर) ने भी अपनी एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि कर्नाटक में चुनाव प्रचार के लिए भाजपा, कांग्रेस और जनता दल (एस) ने कितने हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल किया। दरअसल हेलिकॉप्टरों की मांग से विभिन्न दलों के 'अमीर’ और 'गरीब’ होने का भी पता चलता है। 
 
एडीआर के अनुसार पिछले चार वित्त वर्षों मे भाजपा की आय 81 फीसदी बढ़ी है। इस हिसाब से 'अमीर’ भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में प्रचार के लिए चुनाव आयोग के पास हेलिकॉप्टर सेवा की मांग से संबंधित 53 आवेदन दिए थे। वही एडीआर के अनुसार कांग्रेस की आय में 14 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है, लिहाजा इस 'गरीब’ पार्टी ने चुनाव प्रचार के लिए सबसे कम 10 हेलिकॉप्टरों का आवेदन आयोग को दिया था। कर्नाटक चुनाव में हेलिकॉप्टरों की मांग में दूसरे स्थान पर जनता दल (एस) रहा, जिसने चुनाव आयोग को प्रचार में हेलिकॉप्टर इस्तेमाल के लिए 16 आवेदन सौंपे थे।
 
एडीआर की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक चुनाव में इस बार 883 करोड़पति उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें से 208 भाजपा से, 207 कांग्रेस से और 154 जनता दल (एस) से थे। इस चुनाव में पिछली विधानसभा के 184 सदस्यों ने फिर से चुनाव लड़ा था। इन नेताओं की औसत संपत्ति 2013 में 26.92 करोड़ रुपए थी, जो 2018 मे बढ़कर 44.24 करोड़ रुपए हो गई। यानी पांच साल में उनकी संपत्ति में औसतन 17.32 करोड रुपए का इजाफा हुआ। 
 
जिस राज्य में पैसे का खेल इतना अधिक हो, वहां विधायक खरीदने के लिए 100 करोड़ रुपये की बोली लग रही थी, तो यह ज्यादा नहीं थी. लेकिन जरा यह सोचिए कि आखिरकार इस पैसे का भुगतान कौन करता? इसका जवाब सीधा है. यह पैसा कर्नाटक की जनता से वसूला जाता या फिर उन प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी से जिस पर साझा हक जनता का है. 
 
कर्नाटक चुनाव में हुआ खर्च और उसके उम्मीदवारों की आर्थिक स्थिति से संबंधित ये सारे आंकडे तो हमारी बेतहाशा महंगी होती जा रही चुनाव प्रक्रिया की बानगी भर है। ये आंकडे बताते हैं कि हमारी समूची चुनाव प्रक्रिया और राजनीति किस तरह पूंजी या यूं कहा जाए कि कालेधन की बंधक बन गई है, जिसमें गरीब या साधारण आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति की भागीदारी के लिए कोई जगह नहीं है। 
 
लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए एक प्रत्याशी अधिकतम 70 लाख रुपए खर्च कर सकता है, जबकि विधानसभाओं के चुनाव में खर्च की अधिकतम सीमा 28 लाख रुपए है। लेकिन चुनावों के दौरान अकसर देखने में आता है कि राजनीतिक दल जो करोडों रुपए खर्च करते हैं, उसका कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं होता। उम्मीदवार भी अपना खर्च पूरा नहीं दिखाते, बल्कि अधिकतम सीमा से भी कम दिखाते हैं। 
 
अब जाहिर है, जो करोड़ों रुपए खर्च करेगा, वह चुनाव जीतने के बाद उसकी भरपाई भी करेगा। यह भरपाई जायज तरीके से तो हो नहीं सकती बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को कहीं न कहीं आघात पहुंचाकर ही की जा सकती है। सो, यही से उन बडे-बडे घपलों-घोटालों की शुरुआत होती है, जो हमारे लोकतंत्र को लगातार खोखला करते जा रहे हैं और आम जनता में राजनीति को लेकर नफरत का भाव विकसित कर रहे हैं। 
 
ऊपर जिस चुनाव खर्च की सीमा की चर्चा की गई है, वह चुनाव आचार संहिता लागू होने से लेकर मतदान तक होने वाले खर्च की है। लेकिन चुनाव की तारीख घोषित होने और आचार संहिता लागू होने से पहले तक जो खर्च पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा किया जाता है उसका तो कोई लेखा-जोखा ही नहीं दिया जाता है। आम तौर पर पार्टियां और उम्मीदवार चुनाव प्रचार का काम चुनाव घोषित होने के महीनो पहले से शुरु कर देते हैं और उसमें लाखों-करोड़ों खर्च कर देते हैं।
 
मिसाल के तौर पर बीते लोकसभा चुनाव को ही लेते हैं। आम चुनावों की तारीख तय होने से बहुत पहले जैसे ही भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, वैसे ही मोदी देशभर में रैलियां करने निकल पडे। यह बात सितंबर 2013 की है। पार्टी ने उन रैलियों-सभाओं पर जितना भी खर्च किया, उसका हिसाब देने के लिए वह बाध्य नहीं रही, इसलिए उसका हिसाब किसी के पास नहीं है। 
 
जाहिर सी बात है, जब तक चुनाव की घोषणा नहीं होगी, तब तक आचार संहिता लागू नहीं होगी. ऐसे में अगर पार्टियां छह महीने पहले या साल भर पहले से चुनाव प्रचार शुरु कर देती हैं, तो कायदे से उनके खर्च का भी लोकतांत्रिक और वैधानिक हिसाब-किताब होना चाहिए, क्योंकि इसी दौरान कॉरपोरेट फंडिंग भी होती है और दूसरे स्रोतों से भी खूब धन जुटाया जाता है। 
 
सवाल है कि अगर यह समस्या इतनी गंभीर है, तो इसका समाधान ढूंढने की कोशिश क्यों नहीं हो रही है? इसका जवाब यह है कि सरकारें और राजनीतिक पार्टियां चाहती ही नहीं कि इस बीमारी का इलाज हो, क्योंकि वे जानती हैं कि इसके इलाज की बात करना खुद पर ही नकेल कसने जैसा है। यही वजह है कि चुनाव सुधार कोई भी बात किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडा में आज तक जगह नहीं बना पाई है।

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