किशोरी ताई अपने आपमें एक घराना थीं

शायद ही कोई और ऐसा हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक होगा, जिसकी रुचियों का दायरा इतना व्यापक हो, विविध कलारूपों में जिसकी इतनी गहरी पैठ हो, जितनी कि किशोरी ताई अमोणकर की थी। किशोरी ताई ने स्वयं ही कहीं कहा है कि संगीत को लेकर उनका रवैया किसी इंप्रेशनिस्टिईक पेंटर की तरह था, कि जैसे कैनवास पर कोई चित्रकार अपने भावों का रूपांकन करता है, उसी तरह मैं तानपूरे के वादी-सम्वादी स्वरों के कैनवास पर राग का चित्र बनाती हूं।

चित्रकला सहित अन्य कलानुशासनों पर अधिकार से बात कर सकने वाली किशोरी ताई बड़ी आसानी से किसी और क्षेत्र में भी इतनी ही आला दर्जे की कलाकार हो सकती थीं, लेकिन गनीमत है कि ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि तब हम एक विलक्षण शास्त्रीय गायिका से वंचित रह जाते। लता मंगेशकर के बाद भारत में कोई दूसरी ऐसी गायिका नहीं हुई है, जिसके प्रभाव का क्षेत्र इतना व्यापक रहा हो, जिसका आभामंडल इतना प्रखर रहा हो, जिसका अवदान इतना विराट रहा हो, जो कोकिलकंठी कहलाई हो, जो गानदेवी का पर्याय मानी गई हों, जैसे कि किशोरी ताई थीं।
 
भोपाल से निकलने वाली पूर्वग्रह पत्रिका में एक समय में तीन साक्षात्कारों के बड़े चर्चे थे। ये तीन साक्षात्कार उस वक़्त के तीन बड़े शास्त्रीय गायकों के थे। कुमार गंधर्व का साक्षात्कार नईदुनिया के यशस्वी संपादक राहुल बारपुते ने भानुकुल देवास जाकर लिया था, अशोक वाजपेयी ने भोपाल में ही मल्लिकार्जुन मंसूर से बात की थी और अगर मैं भूल नहीं कर रहा हूं तो मृणाल पांडे ने किशोरी ताई अमोणकर से चर्चा की थी। बाद में ये साक्षात्कार कला-विनोद नामक एक पुस्तक में भी संकलित किए गए थे। 
 
मुझे याद नहीं आता, किशोरी ताई की कला पर उससे प्रामाणिक दस्तावेज़ कोई और होगा। उस इंटरव्यू में उन्होंने अपनी गानशैली और भाव-चेतना के बारे में विस्तार से बातें की हैं। साथ ही यह भी कहा है कि आधुनिक कला के नाम पर किए जाने वाले चोंचलों को वे नितांत संदेह की दृष्टि से देखती हैं। किशोरी ताई के अनुसार, शास्त्रीय कला का मूल लक्ष्य सौंदर्यशास्त्रीय निरूपण होता है, और अगर संगीत में एस्थेटिकल वैल्यू नहीं है तो उसमें कुछ कमी रह गई है।
 
किशोरी ताई ने ख़्याल, मीरा के भजन, मांड आदि गाए हैं। राग भैरवी की बंदिश 'बाबुल मोरा नैहर छूटल जाए' पर उनका गायन सर्वाधि‍क लब्धप्रतिष्ठ है, अलबत्ता इसी गीत को कुंदनलाल सहगल भी गाकर अमर कर चुके थे। किशोरी ताई का रागेश्री निजी रूप से मुझे सर्वाधि‍क प्रिय है : 'आली, पलक ना लागी।' जयपुर घराने की गायकी में अगर देखें तो केसरबाई केतकर, फिर मोगूबाई कुर्डीकर और फिर किशोरी ताई अमोणकर, यह एक स्पष्ट श्रृंखला बंधती नज़र आती है। 
 
गायकी के किसी और शास्त्रीय घराने में मराठी गायिकाओं का वैसा बोलबाला नहीं रहा है, जैसा कि जयपुर-अतरौली घराने में रहा। ताई की शिष्या आरती अंकलेकर के रूप में यह परंपरा निरंतर जारी है। किशोरी ताई ने आगरा घराने के उस्ताद अनवर हुसैन खाँ से भी गाना सीखा। पं. बालकृष्ण बुआ, पर्वतकार, मोहन रावजी पालेकर, शरतचंद्र आरोलकर से भी शिक्षा पाई। फिर अंजनीबाई मालफेकर से मींड की कलात्मकता के गुर सीखे। सच तो यह है कि जयपुर घराने की शीर्ष गायिका होने के बावजूद किशोरी ताई की गायकी में निजी शैली और कल्पनाशीलता का समावेश इतना है कि उन्हें आप किसी एक घराने तक सीमित रख ही नहीं सकते। किशोरी ताई अपने आपमें एक घराना थीं।
 
किशोरी ताई ने एक बार कहा था : "मैं शब्दों और धुनों के साथ प्रयोग करना चाहती थी और देखना चाहती थी कि वे मेरे स्वरों के साथ कैसे लगते हैं। बाद में मैंने यह सिलसिला तोड़ दिया क्योंकि मैं स्वरों की दुनिया में ज़्यादा काम करना चाहती थी। मैं अपनी गायकी को स्वरों की एक भाषा कहती हूं।" गायकी के प्रति किशोरी ताई का यह निजी मंतव्य ही उन्हें सभी से अलग पांत में खड़ा करता था। 
 
आज हमने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की गान-यक्षिणी को खो दिया है। जिस तरह से एक सहस्राब्दी में दो लता मंगेशकर नहीं हो सकतीं, उसी तरह एक सहस्राब्दी में दो किशोरी अमोणकर भी नहीं हो सकती हैं।
 
प्रसंवगश : किशोरी ताई पर अमोल पालेकर और उनकी पत्नी संध्या गोखले ने 'भिन्न षड़ज' नामक वृत्तचित्र बनाया है। 72 मिनट का यह वृत्तचित्र संगीतप्रेमियों को खोजकर देखना चाहिए।
 
पुनश्च : सन् 2007 की बात है। उज्जैन में अनुराधा पौडवाल आई थीं। पत्रकार वार्ता के दौरान किसी ने उनसे पूछा कि आपके प्रिय गायक कौन हैं। अनुराधा ने कहा, किशोरी ताई। पत्रकार ने प्रतिप्रश्न किया : यू मीन, किशोर दा? अनुराधा ने खीझकर कहा, रहने दीजिए। जो पत्रकारिता किशोरी ताई और किशोर दा का अंतर ही नहीं समझ सकती, उससे भला क्या उम्मीदें की जा सकती हैं?

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