महाराष्ट्र में संकट टला लेकिन सवाल अब भी शेष हैं!

अनिल जैन

गुरुवार, 7 मई 2020 (22:51 IST)
महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के रवैये से जो राजनीतिक संकट खडा होता दिख रहा था, वह अब टल गया है। अब वहां मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को विधान मंडल का सदस्य बनने के लिए मनोनयन के जरिए विधान परिषद में जाने की जरूरत नहीं पडेगी।
 
चुनाव आयोग ने अब वहां राज्य विधान परिषद की नौ रिक्त सीटों के लिए द्विवार्षिक चुनाव 21 मई को कराने का एलान कर दिया है। इन चुनावों के जरिए मुख्यमंत्री ठाकरे विधान परिषद का सदस्य बनने का रास्ता साफ हो गया है। अब वे इस उच्च सदन के लिए निर्वाचित होकर छह महीने की निर्धारित समय सीमा में विधान मंडल का सदस्य बनने की संवैधानिक शर्त पूरी कर सकेंगे।
 
मुख्यमंत्री ठाकरे के विधान परिषद का सदस्य बनने का रास्ता साफ होने के साथ ही पिछले करीब एक महीने से राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच चल रहा टकराव खत्म हो गया है। मगर इस ताजा राजनीतिक घटनाक्रम से एक बार फिर साबित हुआ कि हमारे राज्यपालों की नश्वर काया भले ही राजभवनों में विराजती हो मगर उनका विवेक दिल्ली में रहता है जिसे उन्हें राज्यपाल के ओहदे पर नियुक्त होते ही दिल्ली में अपनी नियुक्ति का फैसला करने वाले के पास जमा कराना पडता है।
 
राज्यपाल जैसी ही स्थिति चुनाव आयोग की भी है। कहने को तो चुनाव आयोग अब भी एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है, लेकिन उसका आचरण आम तौर पर कभी भी स्वायत्त नहीं रहा, सिर्फ 1990 के दशक और इस सदी के शुरुआती कुछ वर्षों को छोड़कर। 1990 में टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद ही पहली बार देश को भी और राजनीतिक दलों को भी मालूम हुआ था कि चुनाव आयोग किसे कहते हैं और वह क्या-क्या काम कर सकता है।
 
शेषन ने अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान कई जरूरी चुनाव सुधार लागू किए थे और चुनाव प्रणाली को अधिकतम पारदर्शी बनाया था। उनके बाद सिर्फ जेएम लिंगदोह ही ऐसे मुख्य चुनाव आयुक्त रहे, जिन्होंने उनकी बनाई हुई लीक पर चलते हुए अपना दायित्व निभाया। शेषन और लिंगदोह के बाद चुनाव आयोग की चमक फिर धुंधली पड़ती गई और पिछले पांच वर्षों के दौरान तो इस संवैधानिक संस्था ने पूरी निर्लज्जता के साथ सरकारपरस्ती के नित-नए 'कीर्तिमान’ रचे हैं। इस सिलसिले में महाराष्ट्र का राजनीतिक घटनाक्रम ताजा मिसाल है।
 
महाराष्ट्र का पूरा मामला यह है कि उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री का पद संभाले छह महीने पूरे होने वाले हैं, लेकिन वे अभी तक राज्य विधानमंडल के सदस्य नहीं बन पाए हैं। महाराष्ट्र में दो सदनों वाला विधानमंडल है- विधानसभा और विधान परिषद। मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए इन दोनों में से किसी एक सदन का सदस्य होना अनिवार्य है। उद्धव ठाकरे अभी न तो विधायक हैं और न ही विधान पार्षद (एमएलसी)।
 
उद्धव ठाकरे ने विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर ही 28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। संविधान की धारा 164 (4) के अनुसार उन्हें अपने शपथ ग्रहण के छह महीने के अंदर यानी 28 मई से पहले अनिवार्य रूप से राज्य के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होना है।
 
विधानसभा का सदस्य बनने के लिए ठाकरे को किसी विधायक से इस्तीफा दिलवाकर सीट खाली कराना पड़ती, लेकिन ठाकरे ने ऐसा न करते हुए विधान परिषद के जरिए विधान मंडल का सदस्य बनना तय किया। इस सिलसिले में वे 24 अप्रैल को विधानसभा कोटे की रिक्त हुई विधान परिषद की नौ सीटों के लिए होने वाले द्विवार्षिक चुनाव का इंतजार कर रहे थे। लेकिन कोरोना महामारी के चलते लागू लॉकडाउन का हवाला देकर चुनाव आयोग ने न सिर्फ इन चुनावों को बल्कि देश भर में होने वाले राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों को टाल दिया था। ऐसी स्थिति में ठाकरे के सामने एकमात्र विकल्प यही था कि वे 28 मई से पहले राज्यपाल के मनोनयन कोटे से विधान परिषद का सदस्य बन जाए।
 
विधान परिषद में मनोनयन कोटे की दो सीटें रिक्त थीं। राज्य मंत्रिमंडल ने पिछले महीने राज्यपाल से इन दो में से एक सीट पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को मनोनीत किए जाने की सिफारिश की थी। चूंकि दोनों सीटे कलाकार कोटे से भरी जाना थी, लिहाजा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल ने अपनी सिफारिश में उद्धव ठाकरे के वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर होने का उल्लेख भी किया था।
 
इस प्रकार उनके मनोनयन में किसी तरह की कानूनी बाधा नहीं थी। लेकिन राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की सिफारिश पर पहले तो कई दिनों तक कोई फैसला नहीं किया। बाद में जब उनके इस रवैये की आलोचना होने लगी और सत्तारूढ़ शिवसेना की ओर से उन पर राजभवन को राजनीतिक साजिशों का केंद्र बना देने का आरोप लगाया गया तो उन्होंने सफाई दी कि वे इस संबंध में विधि विशेषज्ञों से परामर्श कर रहे हैं। उन्होंने यह भी सवाल किया कि इतनी जल्दी क्या है? यह सब करने के बाद अंतत: उन्होंने मंत्रिमंडल को सिफारिश लौटा दी।
 
राज्य मंत्रिमंडल ने संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक अपनी सिफारिश दोबारा राज्यपाल को भेजी, जिसे स्वीकार करना राज्यपाल के लिए संवैधानिक बाध्यता थी। लेकिन राज्यपाल ने कोई फैसला न लेते हुए मामले को लटकाए रखा। कहने की आवश्यकता नहीं कि राज्यपाल इस मामले में ठीक उसी तरह 'दिल्ली’ के आदेश पर काम कर रहे थे जैसे पिछले साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनने को लेकर पैदा हुए गतिरोध के दौरान वे कर रहे थे।
 
उस समय उन्होंने पहले तो राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी और फिर एक महीने बाद अचानक आनन-फानन में आधी रात को राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश कर देवेंद्र फडनवीस को मुख्यमंत्री तथा अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। 
 
राज्यपाल कोश्यारी के ताजा रवैये से जाहिर था कि वे राज्य में राजनीतिक अस्थिरता को न्योता दे रहे हैं, बगैर इस बात की चिंता किए कि महाराष्ट्र इस समय देश में कोरोना वायरस के संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित राज्य है और यह संकट राजनीतिक अस्थिरता के चलते ज्यादा गहरा सकता है।
 
ऐसे में मुख्यमंत्री उद्धव ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की। हालांकि यह मामला किसी भी दृष्टि से प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप करने जैसा नहीं था, लेकिन प्रधानमंत्री ने ठाकरे से कहा कि वे देखेंगे कि इस मामले में क्या हो सकता है। उन्होंने अपने आश्वासन के मुताबिक मामले को देखा भी।
 
यह तो स्पष्ट नहीं हुआ कि उनकी ओर से राज्यपाल को क्या संदेश या निर्देश दिया गया, मगर उनके आश्वासन के अगले ही दिन राज्यपाल ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर राज्य विधान परिषद की रिक्त सीटों के चुनाव कराने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर चुनाव आयोग फौरन हरकत में आया।
 
मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोडा, जो कि इस समय अमेरिका में हैं, ने आनन-फानन में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए चुनाव आयोग की बैठक करने की औपचारिकता पूरी की और महाराष्ट्र विधान परिषद की सभी नौ रिक्त सीटों के लिए 21 मई को चुनाव कराने का एलान कर दिया। जाहिर है कि प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से हुई यह पूरी कवायद राज्यपाल द्वारा 'दिल्ली के इशारे पर’ की गई मनमानी को जायज ठहराने के लिए की गई है।
 
राज्यपाल कोश्यारी के पास राज्य मंत्रिमंडल की सिफारिश को न मानने अथवा उसे ठुकराने का कोई संवैधानिक आधार नहीं था। अगर वे मंत्रिमंडल की सिफारिश के आधार पर उद्धव ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत कर भी देते तो कोई नई मिसाल कायम नहीं होती। पहले भी ऐसा हुआ है।
 
उत्तर प्रदेश में 1960 में चंद्रभानु गुप्त जब मुख्यमंत्री बने तो वे राज्य विधानमंडल में किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। उन्हें भी मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राज्यपाल ने विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। इसके अलावा महाराष्ट्र में भी दत्ता मेघे सहित तीन नेताओं के ऐसे उदाहरण हैं, जो राज्य सरकार में मंत्री थे और विधान परिषद में उन्हें मनोनीत किया गया था।
 
इन उदाहरणों की रोशनी में कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे को मनोनीत करने की सिफारिश को ठुकराने का महाराष्ट्र के राज्यपाल का फैसला साफ तौर पर दलीय निष्ठा और 'दिल्ली’ के इशारों से प्रेरित था। 
 
बहरहाल, सवाल उठता है कि जब चुनाव आयोग 21 मई को चुनाव करा सकता है तो उसने पिछले महीने चुनाव टालने का फैसला किस आधार पर किया था? कोरोना महामारी के जिस संकट को आधार बनाकर चुनाव टाले गए थे, वह आधार तो अब भी कायम है और अभी काफी समय तक कायम रहेगा।
 
कहने की आवश्यकता नहीं कि राज्यपालों की तरह चुनाव आयोग भी अपने संवैधानिक विवेक के आधार पर नहीं, बल्कि सरकार के निर्देशों के मुताबिक फैसले ले रहा है। हाल के वर्षों में उसकी छवि एक संवैधानिक संस्थान के बजाय सरकार और सत्तारुढ दल के रसोई घर की तरह बन गई है, जिसमें वही सब कुछ पकता है जो सरकार चाहती है। मुख्य चुनाव आयुक्त की कार्यप्रणाली कहीं से भी इस बात का अहसास नहीं कराती कि वे खुद को और चुनाव आयोग को इस छवि से मुक्त कराने की इच्छा रखते हैं। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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