कुपोषण का विकास आखिर कब तक?

लंबे समय से भारत ऐसा देश रहा है, जहां एक ओर संपन्नता और समृद्धि के दीप जगमगा रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर घोर गरीबी और बदहाली का महासागर हिलोरे मार रहा है। बीते ढाई दशकों से यानी नवउदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से आर्थिक गैर बराबरी का यह फासला और बढ़ा है। एक छोटा तबका आला दर्जे के ऐशो-आराम वाली जीवनशैली के मजे ले रहा है और दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में हमारे देश के धनकुबेर शामिल हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को भरपेट भोजन तक मयस्सर नहीं है। हमारे लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं।
 
इस स्थिति पर कोई चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था- 'एक ओर देश में हर साल उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर करोड़ों भारतीयों को भूखे पेट सोना पड़ता है।’ देश की सर्वोच्च अदालत की इस कठोर टिप्पणी के बाद भी आज तक हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। भंडारण की बदइंतजामी के चलते अनाज के सड़ने और लोगों के भूख से मरने-बिलबिलाने का सिलसिला लगातार जारी है।
 
विकास दर के लिहाज से देखें तो पिछले करीब डेढ़ दशक के दौरान दो-तीन सालों को छोड़कर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकारी दावों के मुताबिक भारत की उपलब्धि शानदार रही है। लेकिन आम लोगों की हालत की कसौटी पर देखें तो यह कामयाबी प्रतिबिंबित नहीं होती। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हर साल आने वाली मानव विकास रिपोर्ट बता देती है कि आम लोगों के रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मानकों पर हम दुनिया के सबसे पिछडे और बदहाल मुल्कों के बीच खड़े हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसे सरकारी अध्ययन भी आंकड़ों के जरिए दिखाई जाने वाली अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर और विकास के दावों तथा हकीकत के बीच की गहरी खाई की ओर ही इशारा करते हैं।
 
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने एक बार फिर भारत के जन-स्वास्थ्य की निराशाजनक तस्वीर पेश की है। यह सर्वेक्षण तेरह राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में किया गया। जिन राज्यों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें बिहार, आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, मेघालय, सिक्किम, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड, गोवा, हरियाणा और केंद्र शासित अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी शामिल हैं। चूंकि इस सर्वेक्षण में देश के आधे से भी कम राज्य शामिल रहे हैं, लिहाजा इसे देश में कुपोषण की मुकम्मिल तस्वीर नहीं माना जा सकता, जो कि और भी भयावह हो सकती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के ताजा दौर के शेष भारत के आंकड़े इस साल के अंत तक जारी होने की संभावना है। पर अभी जारी हुई रिपोर्ट ने बड़े पैमाने पर बच्चों के कुपोषण का शिकार होने की कड़वी हकीकत कुबूल की है। 
 
रिपोर्ट के मुताबिक 40 फीसद से ज्यादा बच्चे अल्प-विकसित हैं। अल्प-विकास का मतलब सिर्फ शारीरिक नहीं है, बल्कि इसका मतलब मानसिक क्षमता या सीखने की क्षमता का विकास न हो पाने और भविष्य में उत्पादकता की कसौटी पर खरे न उतरने से भी है। आज दुनिया भर के अल्प-विकसित बच्चों की संख्या का 33 फीसद भारत में हैं। वहीं यूनिसेफ के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के 48 फीसद बच्चे अल्प-विकसित हैं। 
 
कुपोषण की चपेट में बड़े होने वाले बच्चों में रोग-प्रतिरोधक क्षमता का अभाव रहता है और वे बीमारियों के जल्दी शिकार होते हैं। फिर उनमें से बहुत-से उन बीमारियों की भी भेंट चढ़ जाते हैं, जिनका आसानी से इलाज नहीं हो सकता। इसके अलावा गरीब परिवारों की महिलाओं को गर्भावस्था में पोषणयुक्त आहार नहीं मिल पाने से कैसे बच्चों का जन्म होगा और उनके लिए जीवन की संभावना और स्थितियां क्या होंगी, इसका भी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कहने को तो कुपोषण से निपटने के लिए एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम से लेकर मिड-डे मील जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएं लागू हैं, लेकिन अपर्याप्त आबंटन से लेकर बदइंतजामी और भ्रष्टाचार ने इन कार्यक्रमों को भी कारगर नहीं बनने दिया।
 
यह विडंबना ही है कि एक ओर हम मंगल मिशन जैसे अंतरिक्ष अभियानों पर गर्व कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया भर में कुपोषित बच्चों में भारत की 33 फीसद हिस्सेदारी राष्ट्रीय शर्म का सबब बनी हुई है। हालांकि बच्चों के बीच कुपोषण के की व्यापकता के ये तथ्य नए नहीं हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अलावा भी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के जरिए भारत में कुपोषण की व्यापकता सामने आ चुकी है। 
 
भारत में बड़े पैमाने पर बच्चे जिन वजहों से कुपोषण के शिकार होते हैं, अगर गंभीरता से कोशिश की जाए तो उन वजहों पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि दिखाई देने वाले कुछ मुद्दों को चुनकर विकास के दावे किए जाते हैं और कुपोषण से निपटना जरूरी नहीं समझा जाता। दरअसल, कुपोषण का मतलब केवल भोजन का अभाव नहीं बल्कि इस अभाव से पैदा होने वाली विकृतियां भी हैं। इसका मतलब मजबूरी में मिला ऐसा भोजन जो तात्कालिक रूप से भूख के राक्षस को तो पटक देता है लेकिन जिंदगी की गाडी सुचारु से चलाने के लिए शरीर को जिन तत्वों की जरूरत होती है, वे इससे गायब रहते हैं। इसलिए 42 फीसदी बच्चों के कुपोषित होने की हकीकत जानकर शर्म आना तो लाजिमी है ही, देश के भविष्य की सोचकर डर भी लगता है। कुपोषण का यह आंकड़ा देश में गरीबी रेखा से नीचे किसी तरह गुजर-बसर कर रही आबादी के आसपास का है जो बता रहा है कि गरीबों की झोपड़ी में कैसे देश का लाचार-बीमार भविष्य पनप रहा है।
 
ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2015 में (दुनिया के 104 विकासशील और पिछड़े मुल्कों में) भारत का स्थान 80वां है, जबकि नेपाल का 58वां, श्रीलंका का 69वां, और बांग्लादेश का 73वां। दुनिया के महज 24 देश ही हमसे पीछे हैं। चीन, श्रीलंका, नेपाल, वियतनाम जैसे एशियाई देशों के अलावा रवांडा और सूडान जैसे देश भी इस मामले में भारत से बेहतर स्थिति में नजर आते हैं, जबकि भारत की छवि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था की बनी हुई है।
 
सवाल है कि कई सालों से ऊंची विकास दर हासिल करते रहने के बावजूद ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं। दरअसल, ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना तो हो सकती है, लेकिन यह हाशिए पर जी रहे लोगों की बेहतरी की गारंटी नहीं हो सकती। यही वजह है कि राष्ट्रीय औसत से ज्यादा विकास दर और औद्योगिक रूप से ज्यादा विकसित माने जाने वाले गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी कुपोषण की व्यापकता देश के पिछड़े कहे जाने वाले राज्यों जैसी ही है, जिसका खुलासा दो साल पहले योजना आयोग की मानव विकास रिपोर्ट से हुआ था। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के एक तिहाई लोग और करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
 
एक तरफ हम कौशल विकास और ज्ञान आधारित समाज बनाने की बातें करते हैं और दूसरी तरफ देश के हर दूसरे बच्चे का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। नित-नए आकर्षक नारों, विकास के बड़बोले दावों और अर्थव्यवस्था की चमचमाती तस्वीर के बरक्स, वास्तव में भारत का कैसा भविष्य बन रहा है! विभिन्न रिपोर्टों के आकलन में थोड़ा-बहुत फेरबदल हो सकता है, मगर ये सारी रिपोर्टें भारत में कुपोषण की व्यापकता ही बयान करती हैं। 
 
इस समय दुनिया के तमाम गरीब देश कुपोषण की समस्या का सामना कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने इस समस्या के अंत के लिए जो डेडलाइन (वर्ष 2015) तय की थी वह निकल चुकी है लेकिन समस्या अभी बनी हई है। विशेषज्ञों का मानना है कि अपने देश में इस लक्ष्य को हासिल करने में अभी लगभग चौथाई सदी यानी 25 साल से भी ज्यादा का समय लगेगा। तेजी से विकास कर रहे चीन को देखकर हम भले ही ईर्ष्या या कुंठा पाल लें, लेकिन हमें उस देश से सीखना चाहिए कि उसने अपने यहां कुपोषण खत्म करने का काम संयुक्त राष्ट्र की तय समय सीमा से पहले ही कैसे पूरा कर लिया।
 
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि लड़कों की बनिस्बत लड़कियां ज्यादा कुपोषित हैं। सत्तर फीसद किशोरियां अनीमिया यानी खून की कमी की शिकार हैं। आगे चल कर जब वे मां बनती हैं तो इसका असर भ्रूण और शिशु पर भी पड़ता है। इसलिए कुपोषण निवारण की नीति और कार्यक्रम को हर हाल में बालिका स्वास्थ्य और माताओं के स्वास्थ्य से जोड़ने की भी दरकार है। कुपोषण का एक पहलू गरीबी और वंचना से ताल्लुक रखता है तो दूसरा आहार संबंधी खराब आदतों और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली से।
 
हमारे यहां कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए 'आंगनबाड़ी’ जैसी योजना भी बनी लेकिन वह भी उपेक्षा के दलदल से नहीं निकल पा रही है। आंगनबाड़ी केंद्रों में कार्यकर्ताओं की कमी, अस्वच्छ वातावरण, शौचालय और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव तथा गंदगी में रखी गई भोजन सामग्री जैसे हालात ने उस योजना का सत्यानाश कर रखा है, जो कुपोषण की समस्या का काफी हद तक उन्मूलन कर सकती थी। 
 
दरअसल, कुपोषण एक तरह से धीमे जहर के समान है जो शरीर को जिंदा तो रखता है, लेकिन उसे भीतर से खोखला भी बनाता रहता है। इसकी अनदेखी से भविष्य ही प्रभावित नहीं होता है बल्कि वर्तमान को भी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों को भी कुपोषण रूपी इस दैत्य से उलना पड़ा था। मैक्सिको, ब्राजील और घाना जैसे देशों ने इस दैत्य का मुस्तैदी से सामना किया तो उन्हें बेहतर नतीजे भी मिले। सरकार के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों द्वारा समस्या को गंभीर और शर्मनाक बताने भर से उसका निदान नहीं हो सकता।
 
देश के भविष्य से जुडी इस गंभीर समस्या से निपटना हमारी सरकारों की अहम जिम्मेदारी है। विकास के हमारे मौजूदा मॉडल में आर्थिक प्रगति और विकास का लाभ छनकर समाज के निचले तबकों में अपने आप नहीं पहुंचता। इसीलिए खाद्य सुरक्षा कानून और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) जैसी योजनाओं और कार्यक्रमों की जरुरत पडती है। लेकिन अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से सनी इन योजनाओं के जरिए भी हम किसी तरह मानवीय अस्तित्व ही बचा पा रहे हैं, भावी पीढी नहीं। इसलिए भावी पीढी को बचाने के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय अभियान की दरकार है। 

वेबदुनिया पर पढ़ें