पर्रिकर की मुश्किलें 'गो-बैक' शायद ही हों!

गोवा में जनादेश स्पष्ट तौर अपने खिलाफ होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी अपने राजनीतिक प्रबंध कौशल, जिसे आम बोलचाल की भाषा में 'तिकड़म' अथवा 'जुगाड़' कहा जाता है, के बूते सरकार बनाने में तो कामयाब हो गई है लेकिन उस सरकार और खासकर उसके मुखिया मनोहर पर्रिकर के लिए आगे का रास्ता बेहद दुर्गम है। मुख्यमंत्री पर्रिकर के समक्ष प्रशासनिक चुनौतियां तो होंगी ही लेकिन उनके लिए राजनीतिक तौर पर सबसे अहम चुनौती अपनी पार्टी और अपने गठबंधन को एकजुट रखने की होगी।
 
ऐसा नहीं है कि मनोहर पर्रिकर कोई पहली गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। वे पहले भी गोवा में गठबंधन सरकारों का नेतृत्व कर चुके हैं लेकिन पहले की और अब की स्थिति में बड़ा फर्क है। पहले उन्होंने बहुमत प्राप्त गठबंधनों की सरकारें चलाई हैं लेकिन इस बार उन्हें अपने अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए उन दलों के साथ गठबंधन बनाना पड़ा है, जो भाजपा को हराने के लिए चुनाव मैदान में उतरे थे और जो भाजपा को बहुमत हासिल करने से रोकने में कामयाब भी रहे। भाजपा ऐसे विभिन्न छोटे-छोटे दलों को सत्ता की चाशनी के जरिए अपने साथ लाने में तो कामयाब हो गई लेकिन इसके लिए उसे अपनी पार्टी के विधायकों के हितों की कुर्बानी देनी पड़ी है। 
 
गौरतलब है कि राज्य की 10 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में 7 मंत्री सहयोगी दलों से हैं। भाजपा ने यह चुनाव मनोहर पर्रिकर के चेहरे को आगे रखकर लड़ा था, फिर भी गोवा की जनता ने उसे नकार दिया। जाहिर है कि भाजपा के साथ ही पर्रिकर भी ठुकरा दिए गए इसलिए पर्रिकर के सामने एक चुनौती अपनी खोई हुई साख को फिर से हासिल करने की भी होगी, इसके साथ ही उन्हें राज्य में अपनी पार्टी के खोए जनाधार को फिर से पाने के लिए भी मशक्कत करनी होगी।
 
गोवा के समाज में स्थानीय बनाम बाहरी संस्कृति का विवाद पुराना है। सामाजिक तौर पर गोवा एक ईसाई बहुल सूबा है। गोवा की कुल आबादी में 27 फीसदी कैथोलिक ईसाई हैं, जो राज्य के मूल निवासी हैं। उनका अपनी स्थानीय संस्कृति और परंपराओं से गहरा लगाव है। इसी वजह से वे हमेशा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निशाने पर रहते आए हैं। हालांकि पर्रिकर ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिछले कार्यकाल में अपनी सूझ-बूझ से इस तनाव को बहुत हद तक कम कर दिया था और ईसाई समुदाय में अपनी अच्छी पैठ भी बना ली थी लेकिन उनके दिल्ली जाकर केंद्र में मंत्री बनने के बाद हालात फिर बदल गए। 
 
इस बार चुनाव से पहले एक जलसे में पर्रिकर और तत्कालीन मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर की मौजूदगी में आर्कबिशप नेरी फेलारो ने बेहद तल्ख लहजे में कहा था कि पिछले कुछ समय से कमजोर प्रशासन और निरंकुश भ्रष्टाचार की वजह से गोवा के सामाजिक ताने-बाने और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। आर्कबिशप की यह टिप्पणी गोवा में चर्च और भाजपा के तनावभरे रिश्तों की ओर इशारा करने वाली थी। 
 
5 साल पहले आर्कबिशप ने कैथोलिक समुदाय से तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ वोट देने की अपील की थी जिसके परिणामस्वरूप पर्रिकर की अगुवाई में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी लेकिन इस बार चर्च ने लोगों से अपने विवेक से फैसला करने की अपील की। यह अपील भाजपा से उसके मोहभंग का संकेत थी जिसकी स्पष्ट झलक चुनाव नतीजों में भी देखने को मिली। 
 
अब पर्रिकर को फिर से चर्च और भाजपा के रिश्तों को पटरी पर लाने का कौशल दिखाना होगा। चर्च और भाजपा के बीच टकराव के वैसे तो कई मसले हैं लेकिन सबसे तीखा विवाद भाषा को लेकर है। गोवा में मुख्य रूप से 3 भाषाएं- कोंकणी, मराठी और अंग्रेजी बोली जाती हैं। गोवा के ज्यादातर प्राथमिक विद्यालय चर्च द्वारा संचालित हैं जिनमें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है। 
 
संघ की पुरानी मांग है कि ऐसे सभी विद्यालयों को सरकारी अनुदान देना बंद किया जाए। इस मांग को न तो पर्रिकर ने और न ही पारसेकर ने तवज्जो दी थी जिसकी वजह से महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) ने संघ के एक बागी धड़े के साथ मिलकर भाजपा के कथित ईसाई तुष्टिकरण के खिलाफ कोंकणी अस्मिता को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा था। अब एमजीपी फिर भाजपा के साथ सरकार का हिस्सा है, लेकिन उसने अपनी पुरानी मांग छोड़ी नहीं है।
 
गोवा की राजनीति में भाषा और स्थानीय संस्कृति के अलावा खनन भी एक अहम मुद्दा है। गोवा भारत में कच्चे लोहे का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। खनन गोवा को आर्थिक रूप से मजबूत बनाता है, सूबे के लोगों को रोजगार देता है। हालांकि अवैध खनन के भी कई मामले सामने आए हैं और खनन के चलते पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचा है। इसे लेकर खूब प्रदर्शन भी हुए, जिस पर सरकार ने सितंबर 2012 में सभी खनन बंद कर दिए थे। 
 
सरकार ने अवैध खनन के मामलों की जांच के लिए जो आयोग गठित किया था, उसने अपनी चौंकाने वाली रिपोर्ट में अवैध खनन के कारण सरकारी खजाने को 34,935 करोड़ रुपए का नुकसान होने की बात कही थी। पर्रिकर सरकार को अब पर्यावरण संरक्षण और खनन कारोबार के बीच संतुलित रास्ता निकालने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
 
पर्यटन का केंद्र होने की वजह से होने की वजह से गोवा में लगभग डेढ़ दर्जन कैसिनो चल रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी चुनाव में कैसिनो अहम मुद्दा बने थे। 2012 के चुनाव में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में सभी कैसिनो बंद करने की बात कही थी लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने ऐसा नहीं किया और मुद्दे को टालती रही। उस पर कैसिनो मालिकों से साठगांठ के आरोप भी लगे। संघ भी चाहता है कि कैसिनो बंद हो। लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी सरकार के लिए कैसिनो बंद करना आसान नहीं है, क्योंकि स्थानीय युवाओं की एक बड़ी संख्या को इन कैसिनो से ही रोजगार मिला हुआ है। 
 
कुल मिलाकर पर्रिकर के लिए स्थितियां बेहद दुरूह हैं। गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां पहले भी भाजपा के साथ रही हैं और फिर उससे छिटकी हैं। फिलहाल वे एक बार फिर भाजपा के साथ हैं, लेकिन इसके बावजूद पर्रिकर सरकार के पास बहुत ही सूक्ष्म बहुमत है। भाजपा के अपने जो 13 विधायक हैं, वे भी सारे के सारे मूल रूप से भाजपा के नहीं हैं, बल्कि उनमें से करीब आधे विधायक ऐसे हैं, जो पहले कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों की शोभा बढ़ाते रहे हैं। इनमें से जो विधायक मंत्री नहीं बन पाए हैं, वे कितने दिनों तक बगैर मंत्री पद के रह सकेंगे? कहा नहीं जा सकता। 

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