जानिए, मोहन जोदड़ों से जुड़े 6 रहस्य...

सुशोभित सक्तावत

बुधवार, 31 अगस्त 2016 (14:44 IST)
सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता की प्राचीनता और उसकी अबूझ भाषा का रहस्य अभी भी बरकरार है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह दुनिया की सबसे सभ्य और विकसित सभ्यता थी। सिंधु नदी के किनारे के दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजो दड़ो के अलावा इस संपूर्ण घाटी में और भी कई नगरों के प्रमाण मिले हैं। अभी सरस्वती की सभ्यता के रहस्य पर से पर्दा उठना बाकी है। हालांकि अब तक खोजे गए प्रमाणों से ज्ञात ज्ञान पर एक नजर...

वैदिक सभ्यता जहां मंत्रजापी-पूजापाठी सभ्यता थी और यज्ञ-हवन-पूजन उनकी जीवन पद्धति का अनिवार्य हिस्सा थे, वहीं हड़प्पायुगीन सभ्यता पर ऐसे कोई धार्मिक अतिरंजित प्रभाव दिखाई नहीं देते।
 
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यह ज़रूर माना जाता है कि सिंधु घाटी में एक सर्वोच्च ईश्वर की परिकल्पना थी और एक सर्वोच्च मातृका देवी की भी। मोहनजोदड़ो के स्नानागार के बारे में माना जाता है कि उसका उपयोग शुद्धिकरण संबंधी किसी धार्मिक रीति के निर्वाह के लिए किया जाता होगा। मोहनजोदड़ो से मिली मुहरों पर पशुपति की आकृति भी अंकित है, जिसका संबंध नवरुद्र श‍िव से बताया गया है और इसके भी संकेत हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में मृतकों का दाह-संस्कार किया जाता था। लेकिन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से कोई भव्य उपासनागृह बरामद नहीं हुए हैं और अमूमन यह आम धारणा है कि हड़प्पाकालीन सभ्यता एक नागरी सभ्यता थी, जिसके जीवन पर धर्म का अध‍िक हस्तक्षेप नहीं था।
 
यह रोचक है कि पंड‍ित जवाहरलाल नेहरू ने 1940 के दशक के प्रारंभ में लिखी गई अपनी पुस्तक "द ड‍िस्कवरी ऑफ़ इंड‍िया" में सिंधु घाटी सभ्यता को एक 'सेकुलर' सभ्यता कहकर पुकारा है। और इस एक संदर्भ में उनसे सहमत होने को जी करता है, क्योंकि "सेकुलरिज्म" राज्यसत्ता द्वारा घोष‍ित "स्वांग" नहीं होता, वह प्रजा द्वारा अपनी जीवन-शैली में दिखाई जाने वाली एक विश्व-दृष्टि होती है।
 
अगले पन्ने पर एक अबूझ भाषा का रहस्य...
एक अबूझ भाषा का रहस्य : सभी पुरातन नागरी सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता ही ऐसी है, जिसकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। यही कारण है कि इसे तमाम सभ्यताओं में सबसे रहस्यपूर्ण माना जाता है। कोई एक सहस्राब्दी तक फलने-फूलने के बाद इसका सहसा लुप्त हो जाना भी पुराविदों को चकित करता रहा है।
 
यह भी ज्ञात नहीं हो सका है कि हड़प्पा सभ्यता की लिपि किस प्रकार की थी। क्या वह ''क्यूनीफ़ॉर्म'' स्क्रिप्ट है, जैसे कि बेबीलोन में पाई गई। या वह "हाइरोग्लिरफ़" स्क्रिलप्ट है, जैसी कि मिस्र में पाई गई है। वह "अल्फ़ाबेट" पर केंद्रित है या "सिलेबरी" पर।
 
विद्वान कहते हैं दोनों ही नहीं। शायद वह "लोगोग्राफिक-सिलेबिक" लिपि है, शायद नहीं। इतना तो तय है कि वह बहुत चित्रात्मक या "पिक्टोरियल" लिपि है, लेकिन उसकी गुत्थी सुलझने नहीं पाती।
एक बार यह पता चले कि लिपि कौन-सी है, तब जाकर इसका पता लगाएं कि भाषा कौन-सी है। वह संस्कृत का आदिरूप है या किसी द्रविड़ भाषा का?
 
एन. झा और एन.एस. राजाराम जैसे विद्वानों ने सिंधु घाटी की लिपि परवैदिक प्रभावों का दावा किया है। उन्होंने कहा है कि इस लिपि की शैली वैदिक सूत्रों और ऋचाओं के अनुरूप है। दो-एक मुद्राओं पर "यास्क" का नाम पढ़ने की भी बात कही है। ग़ौरतलब है कि "यास्क" वैदिक शब्दावली "निघंटु" के टीकाकार थे और उनकी टीका को "निरुक्त" कहा जाता है। लेकिन पुष्टि इसकी की नहीं जा सकी है।
 
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राओं पर सामान्यत: पांच से अधिक अक्षर नहीं पाए जाते हैं। एक अभ‍िलेख पर अक्षरों की अधिकतम संख्या 26 तक पहुंची है, जिसे धोलावीरा से प्राप्त एकपट्टिका पर पाया गया था, लेकिन उस सांसें थाम देने वाली बरामदगी के बावजूद उसे पढ़ा नहीं जा सका। याद रहे, "इजिप्शिरयन सिविलाइज़ेशन" की लिपिको वर्ष 1799 में तभी पढ़ा जा सका था, जब "रोसेता स्टोन" बरामद हुआ था, जिस पर एक लंबा-चौड़ा अभिलेख उत्कीर्ण था। 
 
"ब्राह्मी" लिपि को भी कालांतर में इसी तरह पढ़ा जा सका। लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता से ऐसा कोई बड़ा अभि‍लेख प्राप्त नहीं हुआ है। अलबत्ता यह मानने वाले कम नहीं हैं कि सिंधु लिपि या सरस्वती लिपि से ही ब्राह्मी लिपि का आविर्भाव हुआ है।
 
सुमेर और बेबीलोन से हड़प्पावासियों के व्यापारिक रिश्ते थे। पुराविद इस खोज में भी हैं कि अगर कोई "बायलिंग्वल" सील प्राप्त हो जाए, जिस पर एक तरफ़ सुमेर या मेसापोटामिया की लिपि हो और दूसरी तरफ़ सिंधु घाटी की, तब उसका लिप्यांतर पढ़ा जा सकेगा। अभी तक ऐसी कोई द्विऔभाषी सील भी नहीं मिली है। यह भी पता नहीं चल सका है कि उस लिपि में कितने वर्ण या स्वर थे। 12 से लेकर 958 तक इनकी गणना की जाती है।
 
"एकसिंगा" (यूनिकॉर्न) और "पशुपति" और "मातृका देवी" की रहस्यपूर्ण आकृतियों वाली हड़प्पाकालीन मुहरों को जब तक पढ़ा नहीं जा सकेगा, सिंधु घाटी सभ्यता और मोहनजोदड़ो का रहस्य बना ही रहेगा। वैदिक-सनातन परंपरा का, आर्यों का भारतभूमि से क्या नाता है, इसकी अंतिम पुष्टि भी इसी से हो सकेगी, जब यह जाना जा सकेगा कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग क्या सोच रहे थे, किन प्रतीकों को पूज रहे थे और किन भाषाई रूपकों को वे रच रहे थे।
 
अगले पन्ने पर, दुनिया की पहली "प्लान्ड सिटी" मोहनजोदड़ो को कैसे खोजा...
 

1911 की सर्दियों में "भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण" के "वेस्टर्नसर्किल" के अधीक्षक श्री डी.आर. भंडारकर सिंध प्रांत में उत्खनन कर रहे थे। ईजिप्त के "पिरामिडों" और सुमेर के "जिग्गुरातों" जैसा कोई रोमांचक स्मारक उन्हें वहां नज़र नहीं आया। जो मिला, उसे उन्होंने "मुर्दों के टीले" (मोहनजोदड़ो) की संज्ञा दी।
अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा, "यहां किसी पुरातन सभ्यता के कोई अवशेष नहीं हैं। एक छोटा-सा क़स्बा ज़रूर बरामद हुआ है, लेकिन वह अध‍िक से अध‍िक दो सौ साल पुराना रहा होगा। उसकी आला दर्जे की ईंटें देखकर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह हाल की कोई बसाहट है। अलबत्ता टेरीकोटा के श‍िल्प वहां से नहीं मिले।" ऐसा लिखकर उन्होंने अपनी रिपोर्ट सबमिट कर दी।
 
पुरातत्व के इतिहास में इस रिपोर्ट को किसी पुरातत्ववेत्ता की सबसे बड़ी भूल माना जाता है। भंडारकर के बाद पुरातत्व सर्वेक्षण का काम संभालने वाले सर जॉन मार्शल और राखालदास बनर्जी ने किंचित उपहासपूर्ण मुस्कराहट के साथ उनकी रिपोर्ट को उठाकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया होगा। 
1920 के दशक तक निष्ठापूर्वक उन्होंने मुर्दों के उस टीले का उत्खनन जारी रखा। उन्हें जो मिला, उसे देखकर वे अपनी आंखों पर यक़ीन नहीं कर पाए।
 
अब अंर्स्ट मैक्के और सरमोर्टिमर व्हीलर मैदान में आए। उनके बाद बी.बी. लाल, जे.पी. जोशी, एस.आर.राव भी पहुंचे। सभी विद्वानों ने एकमत से स्वीकारा कि "मोहनजोदड़ो" की खुदाई ने हमारे नज़रिये को हमेशा के लिए बदल दिया है और अब दुनिया का इतिहास वैसा ही नहीं रहेगा, जैसा कि अब तक लिखा जाता रहा था।
 
उनकी आंखों के सामने दुनिया की पहली "प्लान्ड सिटी" थी, कोई 4500 साल पुरानी। ईजिप्ट के "पिरामिडों" और सुमेर के "जिग्गुरातों" से कहीं परिष्कृत, नागरिक और कांस्ययुगीन होने के बावजूद आधुनिक। 
 
वास्तव में श्री डीआरभंडारकर जब "मुर्दों के टीले" की ईंटों का मुआयना करने के बाद उसे महज़ 200 साल पुराना कोई क़स्बा क़रार दे रहे थे, तो वे जाने-अनजाने हड़प्पावासियों के उत्कृष्ट नगर-कौशल की सराहना ही कर रहे थे।
 
एक नदी, जो खो गई थी, अगले पन्ने पर...

एक नदी, जो खो गई : "सिंधु घाटी सभ्यता" की गुत्थी उसकी छूटी हुई कड़ियों में निहित है। मसलन, एक ऐसी भाषा, जिसे पढ़ा नहीं जा सका। एक ऐसी नस्ल, जिसे पहचाना नहीं जा सका। और एक ऐसी नदी, जो अब खो चुकी है।
 
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सरस्वती नदी:- "ऋग्वेद" में जिसकी स्तुति एक चौड़े पाट वाली सदानीरा महानदी के रूप में की गई है, और बाद के ग्रंथों में उसे एक ऐसी विलुप्त होती नदी बताया गया है, जो प्रयाग में जाकर गंगा और यमुना से जा मिलती है, एक अदृश्य धारा की तरह। द्वारकानगरी, रामसेतु, सुमेरु पर्वत और दृष्द्वती नदी की तरह सरस्वती भी भारत का एक ऐसा मिथ है, जो धीरे-धीरे दंतकथाओं से ऐतिहासिक प्रमाणों के दायरे मेंसरकता आ रहा है।
 
अब लगातार यह माना जाने लगा है कि जैसे गंगा और यमुना का दोआब आज भारत की पहचान है, वैसे ही प्रागैतिहासिक काल में भारत का पर्याय सिंधु और सरस्वती का दोआब था। गंगा-यमुना हिमालय से निकलती हैं और पूर्व दिशा की और दौड़ती हैं। सिंधु और सरस्वती हिमालय से निकलकर उससे ठीक विपरीत पश्चिम दिशा में दौड़ती थीं, गंगा-यमुना से कहीं व्यापक और उर्वरभूगोल को सींचते हुए। और यह कि जब गंगा-यमुना के दोआब में सभ्यताएं संभवत: अपने शैशवकाल में ही थीं, तब सिंधु-सरस्वती की सभ्यताओं ने नागरिक उत्कर्ष के शिखरों को छू लिया था।
 
पहले इसे केवल सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाता था, अब उसे "सिंधु-सरस्वती" या "सैंधव-सारस्वत" सभ्यता कहने का आग्रह पुष्ट होता जा रहा है। यह आग्रह कि वह एक नदी नहीं, एक दोआब की सभ्यता थी; कि सिंध और पंजाब प्रांत में उसकी जितनी बसाहटें थीं, उतनी ही बसाहटें, शायद उससे भी अध‍िक, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में भी थीं। 
 
हड़प्पा संस्कृति की जब पहले-पहल खोज की गई थी तो उसके दो महानगरों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो ने पुराविदों को चकित और मंत्रमुग्ध कर दिया था। वे इस सभ्यता की पहचान बन गए थे। लेकिन इधर हुए अध्ययनों में हड़प्पा संस्कृति का "एपिसेंटर" खिसककर थोड़ा पश्चिम की ओर आ रहा है।
 
मसलन, पहले मोहनजोदड़ो के "ड्रेनेज सिस्टम" के चर्चे होते थे, इधर धोलावीरा के "वाटररिसोर्स सिस्टम" की बात हो रही है। पहले मोहनजोदड़ो सबसे बड़ा हड़प्पाकालीन नगर था, अब हरियाणा के राखीगढ़ी में पाए गए पुरावशेषों के आधार पर उसे हड़प्पाकालीन सबसे बड़ा नगर माना जा रहा है। राजस्थान के कालीबंगा में पुराविदों की रुचि बढ़ती जा रही है। और गुजरात के लोथल को तो दुनिया का सबसे पुराना बंदरगाह मान लिया गया है।
 
सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र धीरे-धीरे वर्तमान भारत की ओर खिसक रहा है। हरियाणा में घग्गर-हकरा नदी, राजस्थान में थार का मरुथल और गुजरात में कच्छ का रण पाकिस्तान में रह गएपंजाब और सिंध प्रांत की तुलना में सिंधु घाटी सभ्यता का वृहत्तर केंद्रस्वीकारा जा रहा है। सरस्वती नदी के लुप्त हो चुके पथ को खोजने की कोशिशेंकी जा रही हैं।
 
कौन जाने, हमने अभी तक जो पाया है, वह केवल एक झांकी भर हो, और उसके पूरे ब्योरे अभी हमारे सामने खुलने बाक़ी हों। शायद थार के रेगिस्तानों में दफ़न कोई महानगर हमें मिले, जहां से मिस्र की रोसेत्ता शि‍ला जैसे किसी अभि‍लेख को हम बरामद कर सकें। जिस लिख‍ित सुराग़ को धोलावीरा में हम पाते-पाते रह गए थे, वह मिले और आखिरकार हम यह पता लगासकें कि वे लोग कौन थे? कहां से आए, कहां चले गए? उनकी भाषा-लिपि क्या थी? उनकी सरस्वती नदी का क्या हुआ? उनके देश का नाम क्या मेलुहा था, जैसा किसुमेरी सीलों पर बताया जाता है? उनके देवता और शासक कौन थे? उनके सपने और उनकी आकांक्षाएं क्या थीं? क्या वे ही हमारे पुरखे तो नहीं थे?
 
अगले पन्ने पर, जानिए, "मोहनजोदड़ो" : मिथक और सच्चाई...

"मोहनजोदड़ो" : मिथक और सच्चाई : "हिस्ट्री" और "आर्कियोलॉजी" की दुनिया की सबसे बड़ी गुत्थी क्या है? यही कि "सिंधु घाटी सभ्यता" में रहने वाले लोग एग्ज़ैक्टली कौन थे और उनका विनाश कैसे हो गया? 
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लेकिन आशुतोषगोवारीकर के लिए यह कोई गुत्थी नहीं है। अपनी फिल्म "मोहनजोदड़ो" में वे निहायत सपाट तरीक़े से यह मान लेते हैं कि "सिंधु घाटी सभ्यता" का सर्वनाश नहीं हुआ था, बस उसके लोग वहां से पलायन करके गंगा के दोआब में आ बसे थे। और यह कि वे लोग स्वयं आर्य थे!! बहरहाल, सवाल तो तब भी क़ायम रहेंगे।
 
मसलन यह कि वैदिक सभ्यता के मुख्य "कैरेक्टेरिस्टिथक्स" क्या थे? जवाब है :ऋग्वेद की ऋचाएं; जिनमें गायों, घोड़ों, रथों, यज्ञ-हवन का सजीव चित्रण, ग्रामीण सभ्यता, जनजीवन में धर्म का प्राधान्य, सामाजिक व्यतिक्रम कीवर्णाश्रम प्रणाली, पंजाब से गंगा के दोआब तक पलायन का एक पैटर्न और लुप्तहो चुकी सरस्वती नदी से जुड़े संदर्भ।
 
इसकी तुलना में "सिंधु घाटी सभ्यता" के मुख्य "कैरेक्टेरिस्टि्क्स" क्या थे? जवाब है:- पक्के मकान, नगरनियोजन, उम्दा ड्रेनेज सिस्टम, सार्वजनिक स्नानागार, सुमेर और बेबीलोन सेव्यापारिक संबंध, एक सींग वाला मिथकीय पशु "यूनिकॉर्न", एक पढ़ी नहीं जासकी लिपि और किसी भी तरह की "सोशल हायरेर्की" का अभाव, यहां तक कि धर्म का हस्तक्षेप भी नगण्य। पहली वाली सभ्यता को हम "मंत्रपाठी" (Hymn Singers) कह सकते हैं, दूसरी वाली को "नगरवासी" (Urban Dwellers)।
 
1. तो क्या ये दोनों सभ्यताएं एक ही थीं? बिलकुल नहीं।
2. तो क्या वे लोग समकालीन थे और अलग-अलग भूगोल में रह रहे थे? हो सकता है।
3. क्या उनकी "टाइमलाइन" "ओवरलैपिंग" थी और सिंधु घाटी का पराभव गंगा घाटी का उद्भव था? बहुत संभव है।
4.क्या इन दोनों ही सभ्यताओं का प्रभाव आज के भारत पर नज़र आता है? हां, लेकिन ज़ाहिर है, वैदिक सभ्यता का अधि‍क।
5.क्या आर्य विदेशी थे, जिन्होंने सिंधु घाटी पर धावा बोला था? शायद नहीं।
6. आर्यों की पहचान भाषाई आधार पर की जानी चाहिए या सांस्कृतिक आधार पर? निश्चियत ही, सांस्कृतिक आधार पर।

अंत में जानिए मोहनजो देड़ो का रहस्यमयी प्राणी... 

मोहनजोदड़ो के "यूनिकॉर्न" का रहस्य : सिंधु घाटी सभ्यता की अबूझ लिपि, अज्ञात नस्ल, लुप्त नदी और उनके विनाश से जुड़ी थ्योरियों के साथ ही उसका मिथकीय पशु यूनिकॉर्न या एकसिंगा भी उसकी सबसे रोमांचक गुत्थिनयों में शामिल है। सिंधु घाटी संस्कृति से जुड़ी तमाम गुत्थियों की तरह यूनिकॉर्न की पहेली भी सुलझने नहीं पाती।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रचलित पशुओं के बारे में खोजबीन करने पर जिस एक बात ने पुराविदों को पहले-पहले चकित किया था, वह यह थी कि उनकी मुद्राओं पर बैल, हाथी, बाघ, गैंडे आदि की आकृतियां तो मिली हैं, लेकिन घोड़ों के अस्तित्व से वे सर्वथा अनभ‍िज्ञ थे। फिर इससे यह किंवदंती भी बनी कि मध्येश‍िया से अश्वों और अश्वचालित रथों पर सवार होकर जब आर्य आए तो सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भौंचक रह गए। लेकिन सबसे ज्यादा जिस पशु की आकृति ने पुराविदों ने चकित किया, वह था एकसिंगा।
 
सिंधु घाटी के नगरों से प्राप्त कुल 1755 सीलों में से 1156 यानी 60 प्रतिशत मुहरों पर एकसिंगा की आकृति अंकित है! यह रहस्यमयी जीव निर्विवाद रूप से हड़प्पावासियों का सबसे पवित्र और सबसे महत्वपूर्ण पशु था। वृषभों जैसी काया वाला एक सींग का यह पशु जीवविज्ञान के लिए आज भी एक गुत्थी बना हुआ है। अलबत्ता सिंधु घाटी सभ्यता के विशेषज्ञ श‍िरीन रत्नागर ने इस एकसिंगे को किसी वास्तविक पशु के बजाय एक totem की संज्ञा दी है, यानी पवित्रता और प्रभावशीलता का प्रतीक : एक कुलचिह्न।
 
कम ही लोगों को जानकारी होगी कि खोर्खे लुई बोर्खेस ने मिथकीय पशुओं पर एक पूरी एनसाक्लोपीड‍ियक किताब लिखी है, "द बुक ऑफ़ इमेजिनरी बीइंग्स।" इसमें उन्होंने यूनिकॉर्न के स्वरूप पर दो अध्यायों में विमर्श किया है। एक दिलचस्प जानकारी वहां से हमें यह मिलती है कि चौथी सदी ईसा पूर्व यूनानी इतिहासज्ञ स्तेसियास ने लिखा था कि भारत में एक सींग वाला एक अद्भुत पशु पाया जाता है, जिसकी आंखें नीली, सिर बैंगनी और धड़ सफ़ेद होता है।
 
प्लिएनी द एल्डर ने इस मिथ को और आगे बढ़ाते हुए कहा है कि यूनिकॉर्न का शरीर घोड़े और सिर हिरन जैसा होता है। यह पशु इतना ताक़तवर, फुर्तीला और आक्रामक होता है कि वह एक हाथी को भी मार गिरा सकता है और इसको जीवित पकड़ना असंभव है, हालांकि यूनानी ग्रंथ "फिजियोलोगस" में कहा गया है कि अगर कोई कुमारी कन्या यूनिकॉर्न को पुकारे तो वह एक अबोध श‍िशु की तरह चुपचाप आकर उसकी गोद में लेट जाता है।
 
सिंधु घाटी सभ्यता और प्राचीन यूनान के साथ ही चीनी मिथकों में भी यूनिकॉर्न का विवरण मिलता है और उसे चार पवित्र पशुओं में से एक माना गया है। शेष तीन हैं ड्रैगन, फ़ीनिक्स, कछुआ। कंफ़्यूश‍ियस की कथाओं में भी यूनिकॉर्न का उल्लेख है। अभी यह पता लगाना शेष है कि यूनिकॉर्न एक वैश्वि क मिथ था, या फिर सिंधु घाटी सभ्यता से वह इन क्षेत्रों में पहुंचा था।

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