हिंदी पत्रकारिता के दो सूर्यों का अवसान

टाइम्स ऑफ इंडिया समूह एक दौर में ना सिर्फ हिंदी प्रकाशनों का सबसे बड़ा प्रकाशक रहा, बल्कि हिंदी पत्रकारिता और लेखन की शीर्ष प्रतिभाओं का केंद्र भी रहा। अगर नाम गिनाने लगें तो टाइम्स समूह से जुड़े हिंदी पत्रकारिता और लेखन की दुनिया की हस्तियों की चर्चा से ही पूरा पेज भर जाएगा। उनमें से एक-एक करके तमाम प्रतिभाएं ऐसी यात्राओं पर निकलती जा रही हैं, जिनमें लौटने की रत्तीभर भी गुंजाइश नहीं होती।
 
यूं तो भारतीय आध्यात्मिक और ज्ञान परंपरा में वार्धक्य के बाद अनंत यात्राएं ईश्वरत्व की ओर बढ़ते कदम का प्रतीक होती हैं, लेकिन लौकिक परंपराओं में यह बिछुड़ना दर्द के उदास रंगों से सराबोर करना होता है। मकर संक्रांति के पर्व के उल्लास के बीच जब सूर्य संक्रमणकाल से गुजर रहा था, टाइम्स समूह से जुड़े हिंदी पत्रकारिता के दो सूर्य नंदकिशोर त्रिखा और जितेंद्र गुप्त एक साथ इहलौकिक संसार से विलीन हो गए।
 
पत्रकारिता की पढ़ाई करते वक्त एक विषय से पल्ला पड़ा, प्रेस विधि। जिसे प्रेस कानून भी कहते हैं। हिंदी माध्यम का विद्यार्थी था, इसलिए भारतीय जनसंचार संस्थान के भव्य और विशाल पत्रकारीय पुस्तकालय में इस विषय पर हिंदी माध्यम की किताब खोजने लगा तो एक किताब मिली। पत्रकारिता पढ़ने जरूर आ गया था, लेकिन नंदकिशोर त्रिखा से पाठक के तौर पर ही गहरा अपनापा तो दूर सही परिचय तक नहीं था।
 
बहरहाल प्रेस विधि की किताब पर लेखक के तौर पर नंद किशोर त्रिखा पढ़ा तो जैसे कहीं जेहन में गहरे हर्फ में अंकित हो गया। अव्वल तो अपना परिचय पत्रकारीय लेखन के जरिए त्रिखा जी से होना था, बाद में किताबी लेखन से होता। लेकिन मेरे साथ उलटा हुआ। बाद में नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, जनसत्ता में उनका लेखन दिखने लगा। उनके लेखन में गंभीर अध्यवसाय का पुट और नवीन दृष्टिकोण हर बार नजर आया। चूंकि पत्रकारिता की यूनियन से भी जुड़े थे, इसलिए पत्रकारिता के संकट, पत्रकारीय जिंदगी की दुश्वारियां और पत्रकारिता-पत्रकारों की कानूनी स्थिति-हैसियत पर साधिकार टिप्पणियां करते थे।
 
उनसे पहली बार साक्षात साबका शायद 1995 में दैनिक हिंदुस्तान के तत्कालीन सहायक संपादक कृष्ण किशोर पांडेय के कक्ष में हुआ, जहां त्रिखा जी खुद अपना लेख देने आए थे। चूंकि जिक्र कृष्ण किशोर पांडेय जी का हुआ है तो थोड़ी बात उनके भी बारे में...पांडेय जी हिंदुस्तान से अवकाश ग्रहण के बाद दिल्ली में ही रहते हैं। लेकिन एक दौर में पत्रकारिता में फ्रीलांसरों के वे बड़े सहयोगी थे। दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज पर तब रोजाना तीन लेख छपते थे। उसमें तीसरा लेख वे हमेशा नवेले फ्रीलांसरों के लिए सुरक्षित रखते। उनके कक्ष में मुझे रूस के जाने-माने हिंदी विद्वान पीए वरान्निकोव से भी मिलने का सौभाग्य मिल चुका है।
 
बहरहाल पांडेय जी के कमरे में त्रिखा जी से शुरू हुई परिचय यात्रा आखिर तक बनी रही। दक्षिण दिल्ली के पत्रकारों की सोसायटी प्रेस एन्क्लेव में रहते थे। बेशक अस्सी के पार के वे थे और रक्त कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से जूझ रहे थे। लेकिन वे आखिर तक सक्रिय रहे। चूंकि वे एनयूजे के अध्यक्ष, संस्थापक आदि-आदि भूमिकाओं में पत्रकारों के अधिकारियों की लड़ाइयों में व्यस्त रहे। लेकिन पढ़ने-लिखने का जज्बा कभी उन्होंने नहीं खोया।
 
एनयूजे की दिल्ली इकाई दिल्ली पत्रकार संघ में अपनी सक्रियता बढ़ी तो त्रिखा जी से परिचय कुछ ज्यादा ही घना हुआ। सोशल मीडिया ने अपने दैत्याकार विस्तार के साथ आज सामाजिक जरूरत और ताकत के तौर पर खुद को भले ही स्थापित कर लिया हो, लेकिन पुरानी पीढ़ी की नजर में सोशल मीडिया सामाजिकता, नैतिकता आदि का आज बड़ा दुश्मन है।
 
बुजुर्गों की बात में एक हद तक सचाई हो सकती है, लेकिन अपनी आग्रही सोच और तकनीकी बाधाओं के चलते वरिष्ठ और बुजुर्ग लोग सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी से बचते हैं या किनारा काटते हैं। लेकिन त्रिखा जी, बाकी बुजुर्गों से अलहदा सोच के थे। फेसबुक पर हाल के दिनों तक वे सक्रिय रहे और राजनीतिक-पत्रकारीय और सामाजिक बहसों में छोटी से छोटी आयु वाले की वाल पर टिप्पणी करने से नहीं हिचकते थे। खुद मेरे वाल पर कई बहसों में त्रिखा जी ने टिप्पणी करने में हिचक नहीं दिखाई।
 
सच कहूं तो फेसबुक पर मेरे लेखन के बाद वे मुझे जानने लगे थे और मिलने पर टिप्पणियां करने से नहीं चूकते थे। शाबाशी भी देते वे नहीं हिचकते थे। इसी साल अगस्त में जब एनयूजे की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तो उस कार्यक्रम में उन्होंने ना सिर्फ युवोचित सक्रियता से हिस्सा लिया था, बल्कि उसमें पत्रकारों के वेजबोर्ड के मुद्दे और उन्हें हासिल करने को लेकर ना सिर्फ जोशीला वक्तव्य दिया था, बल्कि राह भी सुझाई थी। निजी तौर पर उस दिन उन्होंने मुझे फेसबुक लेखन के लिए उत्साहित भी किया था। नवभारत टाइम्स, लखनऊ का संपादक रही हस्ती से शाबाशी मिलना, जिसकी किताबें पढ़कर अपने राम ने पत्रकारिता सीखी हो, उसके लिए इससे बड़ी सौगात और क्या हो सकती है। 
 
त्रिखा जी के ही पड़ोस में दिनमान में सहायक संपादक रहे जितेंद्र गुप्त रहते थे। उनकी आयु नब्बे साल से ज्यादा थी। दोनों ने महाप्रयाण के लिए एक ही दिन और साथ चुना। बरसों तक दोनों एक ही समूह के प्रकाशनों में काम करते रहे, और अनंत यात्रा भी साथ ही शुरू की। हाल के वर्षों में वे सक्रिय नहीं थे। लेकिन वे दिमागी रूप से सक्रिय थे। दिल्ली आने से पहले मैं अपने कच्चे-पक्के दिमाग के साथ दिनमान पढ़ना शुरू कर चुका था। लेकिन उसके संपादकीय क्रेडिट पेज पर नहीं जाता था।
 
बाद में सक्रिय पत्रकारिता में आने के बाद उनके भी नाम से परिचित हुआ। बाद में अच्युतानंद मिश्र जी भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो उन्होंने मीडिया मीमांसा नाम से एक पत्रिका निकाली। मीडिया पर केंद्रित यह पत्रिका अब भी निकल रही है, लेकिन अब वह वैचारिक की बजाय शोध पत्रिका के तौर पर जानी जाती है। 
 
उसी पत्रकारिता के शुरुआती अंक के लिए अच्युतानंद जी ने तीन मूर्धन्य पत्रकारों से इंटरव्यू करने के लिए मुझे कहा था। संयोग से तीनों ही प्रेस एनक्लेव में रहते थे। उनमें से एक सज्जन ने इतनी बार अगले दिन फोन करने को कहा कि अपना तुनकमिजाज मन उनसे इंटरव्यू करने से हिचक गया। लेकिन दो सज्जनों ने कृपापूर्वक साक्षात्कार दिया था। पहले सज्जन थे देवदत्त जी तो दूसरे थे जितेंद्र गुप्त.. देवदत्त जी का अपने से कुछ राफ्ता भी था।
 
गुजरात संदेश के दिल्ली ब्यूरो के वे प्रभारी के तौर पर जब रिपोर्टिंग टीम की अगुआई कर रहे थे, तब मैं भी दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में था। कई बीट पर साथ-साथ रिपोर्टिंग भी की। देवदत्त जी गांधीवादी पत्रकार थे, गांधी का जीवन दर्शन पूरी तरह उनमें रचा-बसा था। जितेंद्र गुप्त से साक्षात्कार को लेकर थोड़ी-बहुत हिचक भी थी। इस हिचक के पीछे दिनमान का बड़ा नाम और उसकी पत्रकारिता थी या फिर उस दौर की पत्रकारिता का रोमानी अंदाज...लेकिन उनसे साक्षात्कार बहुत शानदार रहा।
 
उन्होंने अपने इंटरव्यू में टाइम्स समूह के मालिकान की बदलती पीढ़ी और उसकी सोच को लेकर कई बातें उजागर कीं, जो संवेदनशील पत्रकारों को चौंकाने, हतप्रभ करने के लिए काफी है। जिस टाइम्स समूह की मालकिन का सपना देश में न्यूयॉर्क से प्रकाशित टाइम मैगजीन जैसी पत्रिका निकालना हो, जिस सपने को पूरा करने के लिए दिनमान ना सिर्फ निकला, बल्कि भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर सूरज की तरह चमकता रहा, उस टाइम्स समूह को लेकर नए खुलासे हिंदी के सहृदय पाठकों को चौंकाएंगे ही।
 
यह दुर्योग ही है कि पिछले साल ठीक इन्हीं दिनों देवदत्त जी गुजर गए और अब जितेंद्र गुप्त भी महाप्रयाण पर निकल पड़े हैं। बहरहाल जितेंद्र गुप्त और नंद किशोर त्रिखा में एक समानता और भी है, वह कि दोनों ही एनयूजे और पत्रकारीय अधिकारों की संगठित लड़ाई के पैरोकार रहे। 
 
प्रकृति का सूर्य तो रोजाना एक निश्चित अंतराल के बाद अपनी आभा के साथ संसार को प्रकाशवान बनाने और स्याह अंधेरे के बीच ठप पड़ी जिंदगी में नव संचार भरने आ जाता है। लेकिन पत्रकारिता के ये दोनों सूर्य बेशक अवतरित नहीं होंगे, लेकिन उनके विचार पत्रकारिता की राह के नव यात्रियों की दृष्टि को आलोकित जरूर करते रहेंगे। (लेखक आकाशवाणी समाचार के मीडिया कंसल्टेंट हैं।)

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