नरेन्द्र मोदी : वादाखिलाफी और नाकामी के चार साल

अनिल जैन
शनिवार, 26 मई 2018 (20:23 IST)
हमारे देश में राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों को शायद ही कोई गंभीरता से लेता हो। न तो जनता और न ही राजनीतिक दलों से जुड़े लोग, मीडिया का तो सवाल ही नहीं उठता। यह बात कमोबेश सभी राजनीतिक दलों का नेतृत्व वर्ग भी अच्छी तरह जानता है। लेकिन फिर भी हर दल इसे चुनावी कर्मकांड का एक अनिवार्य हिस्सा मानकर हर चुनाव में अपना घोषणा पत्र जारी करता है जिसमें लोक-लुभावन और निहायत ही अव्यावहारिक वादों की भरमार होती है। इन वादों की चर्चा मतदान होने तक तो खूब होती है, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद आमतौर पर कोई इनका जिक्र तक नहीं करता, सत्तारूढ़ पार्टी तो कतई नहीं।
 
 
लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में जारी अपने घोषणा पत्र को अपना संकल्प पत्र बताते हुए वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह अपने इस संकल्प पत्र पर अमल के जरिए देश की तकदीर और तस्वीर बदल देगी। अब जबकि केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार अपने 5 साला कार्यकाल के 4 साल पूरे कर 5वें अंतिम साल में दाखिल चुकी है तो लाजिमी है कि उसके घोषणा पत्र के बरअक्स उसके कामकाज की समीक्षा होनी चाहिए। भाजपा के घोषणापत्र का सूत्र वाक्य था- भाजपा की नीतियों और उसके क्रियान्वयन का पहला लक्ष्य होगा- 'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' और रास्ता होगा- 'सबका साथ-सबका विकास।' इसी सूत्र वाक्य पर आधारित तमाम वादों के जरिए देश की जनता में 'अच्छे दिन' आने की उम्मीद जगाई गई थी।
 
भाजपा के घोषणा पत्र में जो वादे किए गए थे उनमें हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार, किसानों को उनकी उपज का समर्थन मूल्य लागत से दोगुना, कर नीति में जनता को राहत देने वाले सुधार, विदेशों में जमा कालेधन की 100 दिनों के भीतर वापसी, भ्रष्टाचार के आरोपी सांसदों-विधायकों के मुकदमों का विशेष अदालतों के जरिए 1 साल में निबटारा, महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण, गंगा तथा अन्य नदियों की सफाई, देश के प्रमुख शहरों के बीच बुलेट ट्रेन का परिचालन, जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 का खात्मा, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी, आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति, सुरक्षा बलों को आतंकवादी और माओवादी हिंसा से निबटने के लिए पूरी तरह छूट, सेना की कार्यस्थितियों में सुधार, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता, गुलाबी क्रांति यानी गोकशी और गोमांस के निर्यात पर प्रतिबंध, देश में 100 शहरों को स्मार्टसिटी के रूप में तैयार करना आदि प्रमुख वादे थे, जो पिछले 4 साल के दौरान सिर्फ छलावा ही साबित हुए हैं।
 
इनमें से कई वादे तो ऐसे हैं जिनका जिक्र तक सरकार की ओर से पिछले 4 सालों के दौरान नहीं किया गया है। इसके अलावा खुद नरेन्द्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर अपनी चुनावी रैलियों में हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपए जैसे तरह-तरह के लोक-लुभावन वादे देश से किए थे। लेकिन चूंकि चुनावी रैलियों में किए गए उनके वादों को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही चुनावी जुमलेबाजी करार दे चुके हैं, लिहाजा उनकी चर्चा करना बेमतलब है।
 
कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के 10 साल में खासकर आखिरी के दो-ढाई सालों में छाए घोटालों और भ्रष्टाचार के घटाटोप और महंगाई की मार से त्रस्त हर वर्ग के लोगों के मन में भाजपा के उपरोक्त वादों ने एक उम्मीद जगाई थी। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे नरेन्द्र मोदी आजाद भारत के सबसे खर्चीले अपने चुनाव अभियान के दौरान अपनी वाक्-पटुता और मीडिया के अभूतपूर्व प्रायोजित समर्थन से लोगों के मन में यह बात बैठाने में कामयाब हो गए थे कि उन्होंने मुख्यमंत्री तौर पर अपने 12 वर्षीय कार्यकाल में गुजरात को नंदनवन में तब्दील कर दिया है। उनका दावा था कि गुजरात मॉडल के जरिए ही वे देश की भी तस्वीर और तकदीर बदल देंगे। लोगों ने उनके दावों और वादों पर यकीन करते हुए भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया। लगभग 3 दशक बाद केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी।
 
केंद्र में सरकार बनाने के बाद भाजपा ने अपनी जीत का सिलसिला राज्यों में भी जारी रखा। सिर्फ बिहार, दिल्ली और पंजाब में मिली करारी हार तथा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में पैर जमाने में मिली असफलता के अलावा भाजपा ने उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, असम, त्रिपुरा आदि राज्यों में जोरदार जीत दर्ज कराई। अपने सबसे मजबूत गढ़ गुजरात को भी उसने जैसे-तैसे बचा लिया। इसके अलावा गोवा, मणिपुर, मेघालय आदि राज्यों में भी वह जोड़तोड़ के सहारे अपने गठबंधन की सरकारें बनाने में कामयाब रही। अलबत्ता कर्नाटक में वह अपनी ताकत बढ़ाने बावजूद सत्ता से कुछ कदम दूर गई। अगर चुनावी सफलताओं को पैमाना माना जाए तो कहा जा सकता है कि मोदी सरकार का 4 साल का कार्यकाल बेहतर नतीजों वाला रहा है। लेकिन ऐसा मानना बेहद सतही आकलन होगा।
 
हकीकत यह है कि इन 4 वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने जो भी काम किए, वे या तो अपने घोषणा पत्र से परे हैं या फिर ठीक उसके उलट। उसने कई ऐसे कामों को भी जोर-शोर से आगे बढाया है, जो यूपीए सरकार ने शुरू किए थे और विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने उनका तीव्र विरोध किया था। मनरेगा के बजट में बढ़ोतरी, आधार कार्ड की हर जगह अनिवार्यता, जीएसटी के रूप में नई कर व्यवस्था पर अमल, विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी आदि ऐसे ही कामों में शुमार हैं।
 
भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र की चर्चा के क्रम में सबसे पहले बात करें अर्थव्यवस्था की। रुपए की गिरती कीमत पिछले लोकसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा था। नरेन्द्र मोदी हर चुनावी सभा में रुपए की गिरती कीमत की तुलना सरकार की साख और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उम्र से करते हुए मजाक उड़ाया करते थे। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद से अब तक रुपया संभला नहीं है और इस समय तो वह डॉलर के मुकाबले अपने सबसे निम्न स्तर पर है। पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस और खाद्यान्न समेत रोजमर्रा के उपयोग की सभी आवश्यक चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं।
 
विमुद्रीकरण यानी बड़े नोटों का चलन बंद कर नए नोट जारी करने को सरकार अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपनी सबसे बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रचारित कर रही है लेकिन वास्तविकता यह है कि विमुद्रीकरण से न तो कालाधन बाहर आ पाया है, न ही जाली मुद्रा चलन से बाहर हुई है और न ही आतंकवादी-नक्सलवादी हिंसा की घटनाओं में कमी आई है, जैसा कि विमुद्रीकरण का औचित्य प्रतिपादित करते हुए सरकार की ओर से दावा किया गया था।
 
विमुद्रीकरण के बाद न सिर्फ औद्योगिक उत्पादन के बल्कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन के आंकड़े भी निराश करने वाले हैं। निर्यात के क्षेत्र में गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। प्रधानमंत्री दुनियाभर में घूम-घूमकर विदेशी निवेशकों को लुभावने वादों के साथ भारत आने का न्योता दे चुके हैं लेकिन विदेशी निवेश की स्थिति कहीं से भी उत्साह पैदा करने वाली नहीं है। उलटे शेयर बाजार में लगी विदेशी पूंजी का भी बड़े पैमाने पर तेजी से पलायन हो रहा है। बड़े कॉर्पोरेट घरानों की बेईमानी और बदनीयती के चलते सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंक दिवालिया होने की कगार पर हैं। कृषि क्षेत्र की स्थिति पहले से बदतर हुई है। किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए कोई ठोस नीति बनाने में सरकार अभी तक नाकाम रही है। किसानों के आत्महत्या करने का सिलसिला न सिर्फ जारी है बल्कि उसमें पहले से तेजी आई है।
 
विदेश नीति के मोर्चे पर भी सरकार के खाते में प्रधानमंत्री की चमक-दमकभरी विदेश यात्राओं के अलावा कुछ खास दिखाने को नहीं है। नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान आदि हमारे सभी पड़ोसी देश हमसे छिटक चीन के करीब चले गए हैं। चीनी सेना जब-तब हमारी सीमा में घुस आती है और हमारी जमीन अपना दावा जताने लगती है लेकिन हमारी तरफ से सिर्फ बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं होता। जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर भी सरकार बुरी तरह दिशाहीनता की शिकार रही है।
 
बिना निमंत्रण के प्रधानमंत्री की औचक पाकिस्तान यात्रा और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के भी लगातार नकारात्मक नतीजे ही सामने आ रहे हैं। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान की ओर से संघर्षविराम के उल्लंघन की घटनाओं में पिछले 4 सालों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2010 से 2014 के दौरान 48 महीनों में संघर्षविराम के उल्लंघन के चलते जहां भारतीय सुरक्षा बलों के 103 जवानों और 50 नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, वहीं मोदी सरकार के पिछले 48 महीनों के दौरान सीमा पर 262 भारतीय सैनिकों 262 और 134 नागरिकों की जान गई हैं। नक्सली हिंसा में मरने वाले सुरक्षा बलों के जवानों और आम नागरिकों की संख्या में भी मोदी सरकार के पिछले 48 महीनों में बढ़ोतरी हुई है।
 
भाजपा के घोषणा पत्र में वादा किया गया था कि सत्ता में आने पर वह हर साल 2 करोड़ लोगों के रोजगार का सृजन करेगी, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस मोर्चे पर मोदी सरकार बुरी तरह नाकाम रही है। रोजगार के नए अवसर पैदा करने की दर पिछले 9 सालों के न्यूनतम स्तर पर है यानी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार से वह बहुत पीछे है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 8 सालों में सबसे कम वर्ष 2015 और 2016 में क्रमश: 1.55 लाख और 2.31 लाख नई नौकरियां तैयार हुईं। मनमोहन सिह सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2009 में 10 लाख नई नौकरियां तैयार हुई थीं।
 
वर्ष 2011 में 3.8 फीसद की बेरोजगारी दर 2017 में बढ़कर 5 फीसदी हो चुकी है। जहां एक तरफ केंद्र सरकार नई नौकरियां तैयार नहीं कर पा रही हैं वहीं देश में बहुत बड़े वर्ग को रोजगार देने वाले आईटी सेक्टर में हजारों युवाओं की छंटनी हो रही है। आईटी सेक्टर पर नजर रखने वाली संस्थाओं के अनुसार भारत के आईटी सेक्टर मे सुधार की निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिख रही है।
 
जहां तक बुनियादी सुविधाओं और नागरिक सेवाओं का सवाल है, उनमें हालात यूपीए सरकार की तुलना बदतर ही हुए हैं। भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि वह सत्ता में आने पर स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र की योजनाओं पर बजट प्रावधान में वृद्धि करेगी लेकिन व्यवहार में उसने अपने वादे के विपरीत दोनों क्षेत्रों में पहले से जारी बजट प्रावधान में कटौती की है।
 
भाजपा के घोषणा पत्र में वादा किया गया था कि वह बगैर निजी हाथों में सौंपे रेल सुविधाओं को आधुनिक बनाएगी लेकिन 4 साल में सरकार ने न सिर्फ निजी क्षेत्र के लिए रेलवे के दरवाजे खोले बल्कि घाटे की दुहाई देकर विभिन्न श्रेणी के यात्री किराए की दरों में तरह-तरह से बढ़ोतरी कर आम आदमी का रेल सफर बेहद महंगा कर दिया है। रेल दुर्घटनाओं का सिलसिला भी पहले की तरह जारी है। ऐसे में अहमदाबाद-मुंबई मार्ग के लिए बेहद खर्चीली बुलेट ट्रेन परियोजना पर काम शुरू होना देशवासियों को मुंह चिढ़ाने जैसा ही है।
 
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में यूपीए सरकार के समय हुए घोटालों का हवाला देते हुए वादा किया था कि वह सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन देगी। लेकिन लड़ाकू रॉफेल विमानों के सौदे पर उठे गंभीर सवालों को लेकर सरकार की ओर से आज तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया है। प्रधानमंत्री मोदी के करीबी करोबारी नीरव मोदी, मेहुल गांधी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे से जुड़े प्रकरण तथा हाल ही में बनारस में गिरे फ्लाईओवर को लेकर अज्ञात ठेकेदार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की हास्यास्पद कार्रवाई बताती है कि सरकार भ्रष्टाचार की रोकथाम को लेकर कितनी 'गंभीर' है! भाजपा की विभिन्न राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार के किस्से तो आए दिन उजागर होते रहते हैं। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला और छत्तीसगढ़ का खाद्यान्न घोटाला तो रोंगटे खड़े कर देने वाला है।
 
देश के विभिन्न इलाकों में सांप्रदायिक और जातीय तनाव तथा हिंसा की एकतरफा घटनाएं न सिर्फ देश के सामाजिक सद्भाव को नष्ट कर रही हैं बल्कि दुनियाभर में भारत की छवि को भी दागदार बना रही हैं। अफसोस की बात यह है कि सरकार का अपने वाचाल दलीय कॉडर पर कोई नियंत्रण नहीं है। कई जगह तो सरकारी संरक्षण में अल्पसंख्यकों, दलितों और समाज के अन्य कमजोर तबकों पर हिंसक हमलों की वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है। इस तरह की घटनाएं देश में गृहयुद्ध जैसा वातावरण बनने का आभास दे रही हैं।
 
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई थी लेकिन पिछले 4 सालों के दौरान देखने में यह आया है कि जो कोई व्यक्ति सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी की रीति-नीति से असहमति जताता है उसे फौरन देशद्रोही या विदेशी एजेंट करार देकर देश छोड़कर चले जाने की सलाह दे दी जाती है। बड़े मीडिया घराने एक-एक करके बड़े उद्योग घरानों के नियंत्रण में जा रहे हैं जिसके चलते मीडिया निष्पक्षता और जनसरोकारों से लगातार दूर होते हुए सरकार की जय-जयकार करने में मग्न है।
 
कुल मिलाकर मोदी सरकार का 4 साल का कार्यकाल अपने घोषणा पत्र से विमुख होकर काम करने का यानी वादाखिलाफी का रहा है जिसके चलते हर मोर्चे पर उसके खाते में नाकामी दर्ज हुई है तो आम आदमी के हिस्से में तो दु:ख, निराशा और दुश्वारियां ही आई हैं।

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