पुण्य सलिला नर्मदा की बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन...?

प्रदेश के नर्मदापुरम् संभाग व नर्मदांचल क्षेत्र की मुख्य पहचान नर्मदा नदी आज गहन संकट में है। इस क्षेत्र में नर्मदा के संकटग्रस्त होने के 2 मुख्य कारण हैं- प्रदूषण और अवैध रेत उत्खनन। विशेषकर होशंगाबाद नगर की बात करें तो यहां एक ओर अवैध रेत उत्खनन से नर्मदा की कल-कल, निर्मल व अविरल धारा निरंतर बाधित हो रही है, तो वहीं दूसरी ओर निरंतर बढ़ते प्रदूषण से नर्मदा का जल पीने योग्य श्रेणी में निचले पायदान पर है।
 
नर्मदा की सहायक नदियां या तो सूख चुकी हैं या सूखने की कगार पर हैं। भू-जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। नर्मदा की इस बदहाली पर शासन-प्रशासन कतई गंभीर दिखाई नहीं देते हैं। नर्मदा ही इस दयनीय दशा के लिए आखिर कौन जिम्मेवार है? स्थानीय प्रशासन, राजनेता, आम नागरिक या ये सभी?
 
होशंगाबाद के अधिकतर घाट प्रदूषण की चपेट में हैं, चाहे वो वीर सावरकर घाट हो, विवेकानंद घाट हो, कोरी घाट, पर्यटन घाट या सुप्रसिद्ध सेठानी घाट सभी न्यूनाधिक प्रदूषण से ग्रस्त हैं। इनमें सर्वाधिक प्रदूषण कोरी घाट व पर्यटन घाट में हो रहा है। पर्यटन घाट को पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विकसित किया था किंतु नगरीय प्रशासन व स्थानीय जनप्रतिनिधियों की लापरवाही व उपेक्षा के चलते आज यह नगर के सर्वाधिक प्रदूषित घाट में शुमार है।
 
इसके प्रदूषित होने का मुख्य कारण इस घाट पर नर्मदा में मिलने वाला सीवेज का पानी है, जो कई प्रयासों व योजनाओं के बावजूद आज भी निर्बाध रूप से नर्मदा में मिल रहा है। स्थानीय नागरिकों व श्रद्धालुओं के लिए यह आहत करने वाली बात तो है ही, साथ ही पर्यटन पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है।
 
यदि जनप्रतिनिधियों की बात करें तो होशंगाबाद वर्षों से भाजपा का गढ़ रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री का गृह ग्राम नगर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष का यह गृहनगर है, वर्तमान सांसद भी सत्तारूढ़ दल के ही हैं और स्थानीय नगरपालिका में भी भाजपा काबिज है किंतु इन सभी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद नर्मदा की बिगड़ी सेहत में कोई विशेष सुधार होता दिखाई नहीं देता।
 
स्थानीय नपाध्यक्ष नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं जिसके चलते उन्होंने नंगे पैर रहने का प्रण भी ले रखा है किंतु अपने कार्यकाल के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते वे नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने की इस मुहिम में असफल व असहाय नजर आ रहे हैं।
 
उनकी योजनाओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे नगर के सौंदर्यीकरण को नगर की गंभीर समस्याओं से अधिक महत्त्व दे रहे हैं। नगर का सौंदर्यीकरण करना अपनी जगह सही है किंतु नगरीय समस्याओं का सफलतापूर्वक निराकरण करना नगर का सौंदर्यीकरण करने से कहीं अधिक आवश्यक है। यह तो वही बात हुई कि 'घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है, पहले यह तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे'?
 
आखिर क्या कारण है कि लाखों-करोड़ों की योजनाओं के बाद भी नर्मदा का प्रदूषण गंभीर स्तर पर है। स्थानीय नगरपालिका सीवेज का पानी नर्मदा में न मिले, इसके लिए पिछले कई वर्षों से प्रयासरत है। नगरपालिका द्वारा फिल्टर प्लांट स्थापित करने की भी योजना बनाई गई किंतु जमीनी स्तर पर इसका कोई सकारात्मक परिणाम सामने आता दिखाई नहीं दे रहा।
 
नगर के मुख्य सेठानी घाट को यदि अपवाद मानें तो आज भी नर्मदा के अन्य घाटों पर गंदगी का अंबार लगा रहता है। इसे रोकने के लिए नागरिक जागरूकता से लेकर जुर्माना व दंड जैसे कड़े प्रावधान किए जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से बनाए गए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) की तर्ज पर नदियों के संरक्षण के लिए एक विशेष कानून की महती आवश्यकता है जिसमें नदियों से अवैध उत्खनन एवं प्रदूषण पर कड़ी सजा का प्रावधान हो।
 
होशंगाबाद नर्मदा नदी के कारण एक पवित्र नगर व तीर्थ की श्रेणी में आता है। विशेष पर्वों पर यहां नर्मदा स्नान के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या हजारों में होती है किंतु एक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि इन पर्वों के बाद नर्मदा नदी का प्रदूषण अपने उच्चतम स्तर पर होता है। इसके पीछे कई और कारण भी हैं जिनमें आम नागरिकों की अंधश्रद्धा भी शामिल है।
नर्मदा नदी में कपड़े धोने से लेकर अपने घरों की पूजा सामग्री का अपशिष्ट डालना भी नर्मदा प्रदूषण का अहम कारण है जिसे लेकर शासन व स्थानीय प्रशासन की ओर से कोई गंभीर पहल नहीं की गई। नर्मदा तट पर स्थित बान्द्राभान में होने वाले विश्वविख्यात 'नदी महोत्सव' में नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर करोड़ों की धनराशि खर्च कर इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाले देश-विदेश के विद्वानों को आमंत्रित कर उनके शोधपत्रों का वाचन किया जाता है, कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं, जो कुछ योजनाओं के रूप सामने आते हैं लेकिन जब इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने की बात आती है तब परिणाम सिफर होता है।
 
कहीं-न-कहीं नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करने के पीछे इच्छाशक्ति की कमी अवश्य प्रतीत होती है। राजनेताओं के लिए यह एक चुनावी मुद्दा मात्र है, जब भी चुनावों का मौसम आता है तो वोटों की फसल काटने के लिए इसे 'खाद' के रूप में इस्तेमाल कर लिया जाता है।
 
जब प्रदेश का सत्तारूढ़ दल विपक्ष में था, तब वह नर्मदा में हो रहे अवैध रेत उत्खनन व प्रदूषण को मुद्दा बनाकर तब की भाजपा सरकार को घेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता था किंतु आज उसके सत्ता में आने के बाद न्यूनाधिक रूप में वही परिस्थितियां यथावत हैं।
 
यदि समय रहते शासन व जनमानस ने नर्मदा प्रदूषण को गंभीरता से नहीं लिया तो कहीं ऐसा न हो कि नर्मदा की हालत भी गंगा जैसी हो जाए जिसकी सफाई के लिए हमें पुन: एक नवीन मंत्रालय एवं 'नमामि गंगे' की तर्ज पर 'हर-हर नर्मदे' जैसी किसी वृहद् योजना का निर्माण करना पड़े।

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