नोटबंदी से उपजी अव्यवस्था और त्रासदी ने अर्थव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को शक के दायरे में ला दिया है, वहीं दूसरी और बढ़ती आर्थिक असमानता ने भी इस व्यवस्था के औचित्य को कटघरे में ला खड़ा किया है। ऐसे में गांधी व विनोबा के विचारों को पुन: खंगालने की जरूरत महसूस होने लगी है। -का.सं.
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आज 'केशलेस' याने नकदरहित से लेकर 'लेसकॅश' (कम नकदी) की बात जोर-शोर से चल रही है अतएव मुझे आचार्य विनोबा भावे द्वारा श्रम और प्रेम के आधार पर प्रतिपादित कांचनमुक्ति सिद्धांत और प्रयोग विचारणीय लगा।
विनोबा ने कहा था कि दुनिया में श्रम और प्रेम की प्रतिष्ठा बढ़ने से कांचनमुक्ति होगी। श्रम नहीं होगा तो अन्नोत्पादन पूरा नहीं होगा। कुछ लोग ज्यादा छीन लेने की कोशिश करेंगे और झगड़ा चलता ही रहेगा। इसी के लिए प्रेम भी चाहिए ताकि जो पैदा हुआ उसे बांटकर खाएं। जैसे परिवार में सब अलग-अलग कमाते हैं, फिर भी सब बांटकर खाते हैं, क्योंकि उनमें प्रेम है। वैसा ही प्रेम समाज में होने पर बांटकर खाने का सामाजिक अमल होगा। इन दोनों चीजों के बढ़ने से पैसे का जोर नहीं चलेगा और समाज कांचनमुक्त होगा।
विनोबा के आश्रम में वैसे ही अन्न और वस्त्र स्वावलंबन चल ही रहा था। सूत खुद कातकर, कपड़े की बुनाई करना तथा अपने परिश्रम से पैदा अन्न का सेवन करना ही आश्रम का व्रत था इसलिए बाजार में कपड़े या अनाज के भाव गिरें या बढ़ें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। इस स्वावलंबन प्रक्रिया के दो भाग किए गए थे- एक था स्वयं का स्वावलंबन और दूसरा समूहका यानी आश्रम का स्वावलंबन। इसे कांचन मोचन की उपासना कहा गया था। आश्रम में कुछ बहनें ऐसी थीं जिन्होंने कई सालों से पैसों का स्पर्श ही नहीं किया था।
वर्तमान परावलंबी समाज रचना के कारण पैसा विनिमय का साधन बना है। इस संदर्भ में विनोबा ने कहा है कि जैसे किसान परावलंबी है इसलिए पैसे को प्रतिष्ठा मान बैठा है, वैसे ही हमारी सरकार भी परावलंबी यानी परदेशावलंबी बनी है, वह भी पैसे को ही प्रतिष्ठा मान बैठी है। सरकार के सामने यह समस्या रहती है कि परदेस से फलां-फलां सामान हमें चाहिए और उसे खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तो जिस मोहपाश में किसान फंसा हुआ है, उसी मोहपाश में सरकार भी फंसी है, व्यापारी तो उसमें फंसे हुए हैं ही। मध्यमवर्गीय, समाज जो कुछ उत्पादन नहीं करते वे तो पैसेरूपी पानी की मछलियां हैं।
नतीजा यह हुआ है कि क्या व्यापारी, क्या मध्यम वर्ग और क्या किसान यानी जनता और सरकार चारों मिलकर पैसे का गुणगान कर रहे हैं। जनता से पैसा लेकर सरकार गांव वालों को वही पैसा सूद पर दे, यह तो कितनी बुरी बात है। ऐसी बुरी धारणाएं मिटाए बिना क्रांति नहीं हो सकती। समाज में जरूरत से ज्यादा पैसा पैदा कर दिया गया है। आज पैसे का परिश्रम और पैदावार से कोई संबंध नहीं रहा है। सिर्फ कागज बढ़ाए हैं यानी कृत्रिम पैसा बढाया गया है। ऐसा पैसा लफंगा है। ऐसा पैसा पैदा होने से सब लोग लोभी या रिश्वतखोर बन गए हैं। जो व्यक्ति बार-बार बदलता रहता है, उसे हम झूठा और लफंगा कहते हैं।
आज रुपए के एक सेर चावल, तो कल आधा सेर। कौन जाने वह किस रोज क्या बोलेगा? इस झूठे पैसे को हम सिर्फ निबाह ही नहीं रहे हैं बल्कि उसे अपना कारोबारी बना चुके हैं। लक्ष्मी तो श्रम से निर्मित होती है। लक्ष्मी और पैसा एक ही चीज नहीं है। लक्ष्मी तो मां हैं, विष्णु-पत्नी हैं और पैसा राक्षस है। किसने बनाया पैसा? वह तो नासिक के छापखाने में बनता है। उत्पादन तो बढ़ता नहीं और पैसा बढ़ता जाता है। होली में सारे नोट जला दिए जाएं तो हिन्दुस्तान सुखी
हो जाएगा।
एक दिन यशोदा ने कृष्ण से कहा कि मक्खन को मथुरा में जाकर बेचना चाहिए। कृष्ण का जवाब था कि नहीं उसे गांव में ही खाना चाहिए। यशोदा बोलीं कि मथुरा में मक्खन बेचने से पैसा मिलेगा, तो कृष्ण बोले कि मथुरा में अगर पैसा है तो कंस भी है। मथुरा के पैसे का लोभ रखोगे तो कंस का राज्य भी मान्य करना पड़ेगा इसीलिए पैसे से मुक्त होकर गांव-गांव में 'ग्राम स्वराज्य' स्थापित करना चाहिए। प्रयास करना होगा कि देहाती जनता को अपनी मुख्य आवश्यकताओं के लिए बाजार पर अवलंबित न रहना पड़े।
आज देहात के लोग अनाज के अलावा सबकुछ खरीदते हैं इसलिए आम जनता की वित्त संचय की वासना नहीं छूटती। विनोबा ने ब्याजखोरी के बारे में कहा है कि ब्याज को आज व्यापार में मान्य किया गया है। आज की मान्यता के अनुसार इतना ही कह सकते हैं कि अतिरिक्त ब्याज नहीं लेना चाहिए। इस मान्यता पर पुनर्विचार होना चाहिए। इस्लाम ने ब्याज का पूर्ण निषेध किया है। अगर ब्याज का निषेध हो जाए, तो संग्रह की मात्रा काफी घट जाएगी।
कांचनमुक्ति जीवन मूल्यों के परिवर्तन का प्रयोग है। हमको परिश्रम से निर्माण करना है और परस्पर सहकार से जीवन का नियमन करना है। इस तरह निर्माण और नियमन दोनों इस प्रयोग का हिस्सा हैं। चलन का परिवर्तन पैसे में नहीं करना है। इसी से जीवन में नियमन आएगा, लेकिन निर्माण पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। यह सिर्फ शब्दों की हेराफेरी नहीं है। यह तो अर्थविज्ञान या अर्थनीति का बुनियादी सिद्धांत है।
विनोबा कहते हैं कि यदि हम फौरन उपयोग नहीं कर पा रहे हैं और दूसरा कोई वह कर रहा है तो हम अपना पैसा उसके हाथ में सौंपते हैं। कुछ मुद्दत के बाद जब वह पैसा हमें वापस देगा तो पूरे 16 आने वापस देने की जिम्मेवारी उस पर न हो। अगर वह 15 आने वापस कर दे तो ऋणमुक्ति मान लेनी चाहिए यानी आम जनता के हित के काम में लगे पैसे में कमोबेशी या कटौती मान्य करना धर्म होगा। अगर यह विचार मंजूर हुआ तो संग्रह की मात्रा भी कम होगी और संग्रह करने की लालसा और मुनाफे के साथ ही 'अन्अर्न्ड मनी' यानी अपने परिश्रम से न कमाए हुए पैसे की लालसा समाप्त होगी। ऐसे में 'कालेधन' का सवाल भी नहीं रहेगा।
महाराष्ट्र के कोंकण जिले के गांधी के नाम से प्रसिद्ध अप्पासाहब पटवर्धन, जो महात्मा गांधी के सचिव भी रहे थे, के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा योजना आयोग के अध्यक्ष धनंजय राव गाडगिळ ने भी सराहना की थी और कहा था कि 'वह सिद्धांत इतना दूरगामी है कि वह हमें आज पसंद नहीं आएगा, लेकिन इसका मूल्य हम 500 साल बाद समझ सकेंगे।'
नकद पैसे की खोज के पहले वस्तु नियमन (बार्टर) की पद्धति उपयोग में लाई जाती थी फिर 'चलन' में पैसा और नोटों का आविष्कार हुआ जिनका संग्रह किया जा सकता है। ईश्वर निर्मित संपत्ति नश्वर और मानवनिर्मित पैसा 'अमर'! यह उल्टा न्याय प्रस्थापित हुआ। इसी के कारण 'ब्याज' और 'डिवीडेंड' को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अमीर अधिक अमीर होने लगे और गरीब अधिक गरीब बने। आर्थिक विषमता बढ़ती गई।
अप्पा साहब का सुझाव था कि सरकार घोषणा करे कि मुद्रित नोट छपे हुए साल के लिए ही चलन में रहेगा, उसके बाद 100 रुपए का नोट 95 रु. में वापस होगा। बैंक में जमा पैसा बिना लाभ-हानि के स्वीकार किया जाएगा। इस साल रखे गए 100 रुपए के बदले अगले साल 95 रु. ही वापस मिलेंगे। वैसे भी हम चौकीदार को हर महीने वेतन देते ही हैं ना? उत्पादन परिश्रम करने वालों को तगाई बिना ब्याज की मिलेगी ताकि अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब न हो और सरकार भी मुनाफा न कमा सके।
यह सिद्धांत अव्यावहारिक या हास्यास्पद लग सकता है लेकिन यही हमारे संविधान के उद्देशिका की आर्थिक समता के तत्व के अनुकूल है। इसी के कारण सामाजिक विषमता समाप्त करने में मदद मिलेगी। वैसे भी किसी भी प्रकार का उत्पादन या परिश्रम न करते हुए ब्याज और डिविडेंड पर आधारित अर्थशास्त्र सिर्फ स्वार्थशास्त्र या अनर्थशास्त्र ही नहीं है बल्कि वह तो शोषण पर आधारित विपत्तिशास्त्र है। आज तो एक की विपत्ति दूसरों को संपत्ति कमाने का सुअवसर देती है।
गांधीजी ने जब 'नमक सत्याग्रह' शुरू किया था तब उन्हें 'मूर्ख' और 'पागल' ही कहा गया था। लोग मानते थे कि मुट्ठीभर नमक उठाने से अंग्रेज साम्राज्य कैसे खत्म हो सकेगा? लेकिन वह सत्याग्रह अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने का प्रथम तथा सशक्त कदम साबित हुआ। जो इस तरह के प्रयोग नहीं करते, वे परिवर्तन करने में भी कामयाब नहीं होते। विचारपूर्वक कदम उठाना ही आज के युग की अनिवार्यता है। (सप्रेस)
(न्या. चन्द्रशेखर धर्माधिकारी गांधीवादी विचारक एवं प्रखर वक्ता हैं। वे मुंबई उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश हैं।)