दो खबरें पाकिस्तान के आर-पार

पिछले सप्ताह दो खबरें भारत की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहीं, जो किसी न किसी रूप में भारत की कूटनीति को प्रभावित करेंगी। पहली तो यह कि अमेरिका के निम्न सदन ने 696 बिलियन डॉलर के रक्षा बजट को 81 के मुकाबले 344 मतों से पास कर दिया। उल्लेखनीय बात यह रही कि इसी बिल के साथ पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि पर और कड़े प्रतिबंध लगाने वाला प्रस्ताव भी ध्वनिमत से पारित कर दिया गया।
 
इस बिल के तहत अमेरिका के विदेश सचिव रेक्स टिलरसन को अधिकार दिए गए हैं कि वे पाकिस्तान को दी जाने वाली सहयोग राशि के लिए निर्णय ले सकते हैं किंतु साथ ही उन्हें राशि देने से पहले प्रमाणित करना पड़ेगा कि पाकिस्तान, अमेरिका के आतंकवाद विरोधी प्रयासों के लिए सहयोग कर रहा है विशेषकर हक्कानी नेटवर्क, लश्कर-ए-तोइबा, जैश-ए- मोहम्मद, अल कायदा आदि संगठनों के विरुद्ध।
 
अमेरिका के वरिष्ठ सांसद जॉन मेककैन ने अपनी हाल ही की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तानी प्रशासन और सेना को चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि वे हक्कानी नेटवर्क और आतंकवादी संगठनों को समर्थन और सहयोग देना बंद नहीं करते हैं तो पाकिस्तान के प्रति अमेरिका के व्यवहार में भारी बदलाव आएगा। 
 
और तो और, यह चेतावनी केवल अमेरिका ही नहीं दे रहा। हाल ही में नाटो के महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग भी पाकिस्तान को यह कहते हुए सख्त चेतवानी दे चुके हैं कि 'यह बिलकुल अस्वीकार्य है कि एक देश ऐसे आतंकवादी समूहों का पोषण करता है, जो किसी अन्य देश में आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार है।'
 
पाकिस्तान की समस्या यह है कि यदि अफगानिस्तान में किसी भी तरह से शांति और स्थिरता बहाल होती है तो अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत नहीं रहेगी। पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क को जिंदा रखकर अमेरिका एवं अन्य देशों से पैसा वसूलना चाहता है, जो अब अमेरिका को मंजूर नहीं। पाकिस्तान में यह सब जानते हैं कि सेना और सरकार में बैठे नेताओं की काली कमाई का मुख्य स्रोत पाकिस्तान को विदेशों से मिलने वाली सहायता राशि है। बची हुई सहायता राशि का बड़ा भाग आतंकी संगठनों के पोषण पर खर्च किया जाता है। 
 
हमारे पाठकों को निश्चय ही यह पढ़कर विस्मयपूर्ण आनंद होगा कि हाल ही में एक अमेरिकी कांट्रेक्टर ने अपनी पुस्तक में पाकिस्तान के अपने अनुभव के बारे में लिखा है कि 'पाकिस्तान की सेना और प्रशासन, अमेरिका को एक कभी न सूखने वाली एटीएम मशीन समझता है, किंतु अब हमारी धारणा है कि जैसे-जैसे ये विदेशी स्रोत सूखेंगे, कम होती सहयोग राशि पर लूटमार मचेगी। परिणाम में अराजकता मचेगी उस पाकिस्तानी सेना में, जो अभी तक धन की वजह से अनुशासित है। धन की कमी से सेना पहले आतंकवादी संगठनों का हुक्का-पानी बंद करने पर मजबूर होगी और इस तरह भारत की चुनौतियां सीमा पर कम होंगी, वहीं दूसरी ओर भारत के पैर अफगानिस्तान में और अधिक मजबूत होंगे।'
 
दूसरी खबर यह है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर भ्रष्टाचार के आरोप में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो चुकी है। नवाज शरीफ को पिछले आम चुनाव में जबरदस्त बहुमत मिलने के बावजूद वे एक कमजोर प्रधानमंत्री सिद्ध हुए। सेना पर वे नकेल नहीं लगा सके, उलटे सेना ने उन पर कड़ा शिकंजा कस रखा है। कामचलाऊ प्रधानमंत्री के तौर पर वे तो अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। वे चाहते हुए भी भारत के साथ संबंधों को सुधार नहीं पाए और सेना के आदेशों का पालन करने पर मजबूर हुए। 
 
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कुलभूषण जाधव के केस में आज तक उन्होंने एक शब्द भी जाधव या भारत के विरुद्ध नहीं कहा। चूंकि वे जानते हैं कि इस घटना में सेना की शरारत है अत: वे इस मामले से अपने आपको दूर रखे हुए हैं। पाकिस्तान का मीडिया लगातार कोशिश करता रहा कि शरीफ इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों और संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाएं ताकि भारत को बदनाम किया जा सके किंतु शरीफ ने सबकी अनसुनी कर दी।
 
कालकोठरी में किसी को आईना दिखा भी दिया जाए तो कोई लाभ नहीं। पाकिस्तान के अभिजात्य वर्ग ने उस कोठरी में ही जीना सीख लिया है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर पिट रही भद का भी उस पर कोई असर नहीं, क्योंकि अब खोने के लिए उनके पास कुछ बचा नहीं है।
 
विश्व के विभिन्न देशों ने कभी प्रलोभन तो कभी दंड देकर पाकिस्तान को कई प्रकार से समझाने की कोशिश की किंतु जिसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो चुकी हो, उसके सामने बीन बजाने से न तो अब तक कोई लाभ हुआ है और न ही होगा?
 
पाकिस्तान अपना मुस्तकबिल तय कर चुका है और शायद अपनी मंजिल पर उजड़े मंजर को देखे बिना उसे सीख नहीं मिलने वाली लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। अधिकांश विशेषज्ञों की नजरों में पाकिस्तान एक असफल और आतंकी राष्ट्र बन चुका है बस आधिकारिक घोषणा शेष है।
 
इस लेख का संपूर्ण विश्लेषण पाकिस्तान की रीति-नीति व उसके दुष्परिणामों पर केंद्रित दिखाई देता है किंतु परोक्ष रूप में यही सब भारत के लिए अधिक सुरक्षित और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित करने का दूरगामी परिणाम देगा। यही इस लेखक की धारणा है। 

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