जमीनी हकीकत बन सके शिक्षा का अधिकार

-सिद्धार्थ झा
 
आज अगर किसी से भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की बात की जाए तो सब यही कहेंगे कि शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है, एक बाजार बन गया है। लेकिन क्या सच में ऐसा है? अगर इस बात में सच्चाई होती तो क्या भारतीय शिक्षा व्यवस्था की इतनी दुर्दशा होती? इतनी खामियां और नाकामियां होतीं? शायद नहीं, क्योंकि बाजार या व्यवसाय की एक नैतिकता है जिसका आधार प्रतिस्पर्धा और ग्राहक संतुष्टि है, लेकिन ये दोनों ही मूलभूत तत्व भारतीय शिक्षा व्यवस्था से नदारद है। 
शिक्षा का अधिकार कानून आए एक अरसा बीत गया है। जितनी उम्मीदें लोगों और सरकार की इससे थीं उतनी फलीभूत नहीं हुईं। पहले से ही कंडम शिक्षा व्यवस्था का इसने और कबाड़ा किया है। आज बात इसी से जुड़ा एक पहलू है जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है। ध्यान गया है तो सिर्फ भुक्तभोगियों का जिनकी कोई सुनवाई नहीं है। 
 
उदाहरण के लिए बात दिल्ली की करूंगा। चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है और अगर इसका दुष्प्रभाव यहां पर ऐसा है तो देश के अन्य भागों का आकलन आप स्वयं कर सकते हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 6 से 14 वर्ष तक के बच्चे को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है। कानून के मुताबिक निजी स्कूलों को भी अपने यहां की 25 फीसदी सीटों को आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) व वंचित तबके के बच्चों के लिए आरक्षित रखना अनिवार्य है। आरक्षित सीटों पर दाखिले के बदले सरकार फीस की आंशिक अथवा पूर्ण प्रतिपूर्ति करती है। 
 
एक आम नागरिक के तौर पर देखें तो सरकार की कहीं भी बुरी मंशा नहीं दिखती। लेकिन सिस्टम की नीतिगत खामियों से जब पाला पड़ता है, तब इसकी जमीनी हकीकत बयां होती है। काव्या (परिवर्तित नाम) दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ती थी। उसके पिता तिपहिया चालक हैं। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) वर्ग के लिए आरक्षित सीट पर काव्या उस स्कूल में दाखिला लेने में सफल रही।
 
कुछ वर्षों तक सबकुछ ठीक चला लेकिन इस वर्ष मार्च आते-आते उसके अभिभावकों के माथे पर चिंता की लकीरें गहराने लगीं। कारण, स्कूल के महज 5वीं कक्षा तक का होना था और काव्या इस वर्ष स्कूल की अंतिम कक्षा में थी। 
 
माता-पिता काव्या का दाखिला किसी और अच्छे निजी स्कूल में कराने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे थे लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लग रही थी। यदि किस्मत से कहीं दाखिले की उम्मीद जग भी रही थी तो ईडब्ल्यूएस कोटे के बाहर। मजबूर होकर उन्होंने काव्या का दाखिला समीप के सरकारी स्कूल में करा दिया। 
 
सोचिए, कल तक टाई-बेल्ट व खूबसूरत यूनिफॉर्म में किसी वातानुकूलित कक्षा में बैठने वाली काव्या आज सरकारी स्कूल में जाने को विवश थी। वो 5 साल या 6 साल उसके जिंदगी के सुंदर अतीत का हिस्सा बन चुके थे और अब वह बेमन से नए सहपाठियों के साथ पढ़ने को मजबूर थी। 
 
आखिर क्यों आरटीई ने उसको मझधार में छोड़ दिया? इसकी बहुत बड़ी और अहम वजह है जिस पर ध्यान अब तक दिल्ली सरकार या केंद्र का नहीं गया। अन्य राज्यों में भी ये हालात होंगे लेकिन आंकड़े फिलहाल दिल्ली के ही हैं। 
 
वर्ष 2014-15 के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में प्राइमरी यानी नर्सरी से 5वीं तक के सरकारी स्कूल 1,757 हैं जबकि प्राइवेट स्कूल 1,019 हैं। प्राइमरी से कक्षा 8 तक सरकारी स्कूल सिर्फ 5 हैं जबकि निजी 878 हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर पता चलता है कि प्राथमिक से उच्च माध्यमिक विद्यालय सरकारी 473 जबकि निजी 647 हैं। 
 
अब आरटीई कहता है कि निजी स्कूलों में ईडब्ल्यूएस वर्ग कोटे की सुविधा प्रवेश स्तर पर ही मिलेगी। इस प्रकार 1,019 प्राइवेट स्कूलों में माना 100 छात्रों के हिसाब 1 लाख बच्चों ने दाखिला लिया जिसमें से 25 हजार गरीब छात्र हैं जिनकी न्यूनतम फीस सरकार देती है। 
 
अभी दिल्ली सरकार का प्रत्येक बच्चे पर औसत खर्च लगभग 1,700 रु. है। इसके अलावा स्टेशनरी और वर्दी का खर्च अलग से है। अब ये 25 हजार बच्चे जब प्राथमिक स्कूल का पड़ाव पर करने के बाद माध्यमिक या उच्च माध्यमिक निजी स्कूलों का रुख करते है तो उनके सामने 878 माध्यमिक और 647 उच्च माध्यमिक प्राइवेट स्कूलों का ही विकल्प है, जहां पहले से विद्यार्थी हैं और 75 हजार वो विद्यार्थी भी हैं, जो पूरी फीस भर पाने में सक्षम हैं।
 
ऐसे में इन 25 हजार विद्यार्थियों के साथ अनजाने में हुए छल की बात सामने आती है। पहली बात तो यह कि इनको ये स्कूल कम आय वर्ग में दाखिला नहीं देंगे, दूसरी बात इन स्कूलों में पूरी फीस जैसे-तैसे देकर भी दाखिला लेना कड़ी चुनौती का काम होगा। ऐसे में एक ही सुरक्षित विकल्प बचता है 1ली से 8वीं तक के 5 स्कूल या पहली से उच्च माध्यमिक स्तर के 473 स्कूल यानी इनकी संख्या भी नाकाफी है। दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में ये आंकड़े और भी खराब हैं। 
 
दरअसल, आरटीई में ऐसे कई प्रावधान हैं, जो इन छात्रों के सुरक्षित भविष्य की राह में रोड़ा अटकाए हुए हैं। अनधिकृत कॉलोनियों में प्राथमिक स्कूल के लिए महज 200 स्क्वेयर यार्ड जमीन चाहिए जबकि उससे ऊपर माध्यमिक स्कूलों के लिए 840 स्क्वेयर यार्ड जमीन की जरूरत होगी यानी मात्र 3 कक्षाएं बढ़ाने के लिए 500 स्क्वेयर यार्ड जमीन अतिरिक्त चाहिए जिसकी व्यवस्था करना बजट स्कूलों के लिए अत्यंत मुश्किल काम है। 
 
दिल्ली में जमीन के भाव आसमान से ऊपर हैं जिसके लिए करोड़ों रुपए स्कूल संचालकों को खर्च करने पड़ सकते हैं। दूसरी बात, स्कूल नॉन प्रॉफिटेबल ऑर्गनाइजेशन की श्रेणी में आता है। अगर ऐसा है तो जमीन और भवन के लिए पैसा कहां से आएगा? इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के अनुपात में जो इतना बड़ा अंतर देखने को मिलता है उसकी वजह क्या है? ये जानना भी जरूरी है। 
 
प्राथमिक स्कूलों को मंजूरी नगर निगम से मिलती है जबकि माध्यमिक स्कूलों को दिल्ली सरकार से संबंधित विभाग से मंजूरी लेनी होती है। यानी दो अलग-अलग विभाग भी इसकी राह में एक बड़ी मुश्किल हैं। 
 
अब सवाल ये उठता है कि इसका हल क्या है? प्राथमिक स्कूलों को ही माध्यमिक में परिवर्तित किया जाए लेकिन इसके लिए 600 वर्गमीटर अतिरिक्त जमीन कहां से लाई जाए? एक रास्ता तो ये हो सकता है कि इन स्कूलों में सुबह व दोपहर की 2 पालियों की व्यवस्था हो। दूसरा समाधान, स्कूल की अलग-अलग मंजिलों को भी एरिया में काउंट किया जाए अर्थात 4 मंजिली इमारत को 800 वर्गमीटर माना जाए, जो स्कूलों के लिए भी फायदेमंद होगा। 
 
इसके अलावा और समाधानों के विकल्प भी हो सकते हैं लेकिन आरटीई के कड़े मापदंड में कई संशोधन की जरूरत है जिससे कि बच्चों के भविष्य से इस तरह का मजाक न हो सके। शिक्षा का मूलभूत अधिकार सिर्फ कागजी ही नहीं, जमीनी हकीकत भी बन सके। (स्वतंत्र पत्रकार और कंसल्टेंट लोकसभा टीवी)

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