'टाइम' पत्रिका द्वारा जनमत की घोर अवहेलना

अमेरिका और दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक 'टाइम' द्वारा किए गए पाठकों के एक सर्वेक्षण में 'पर्सन ऑफ द ईयर' (वर्ष का चर्चित व्यक्ति) के खिताब के लिए मोदी पाठकों की पहली पसंद बन गए हैं। 
 
इसमें कोई शंका नहीं कि यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि है तथा यह उपलब्धि और भी अधिक प्रभावशाली दिखती है, जब उन्होंने अपने कार्यकाल के अभी मात्र 6 महीने ही पूरे किए हों। किसी भी भारतीय को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलना प्रत्येक भारतवासी के लिए गर्व का क्षण होता है अतः हम इस चर्चा का दायरा थोड़ा विस्तृत करते हैं। 
 
पहले तो यह समझ लें कि 'टाइम' पत्रिका का यह खिताब कोई पुरस्कार नहीं है। इस खिताब को पत्रिका ने दो श्रेणियों में विभाजित किया है। एक नाम का चयन होता है संपादक मंडल की समीक्षा आधार पर और दूसरा नाम पाठकों की राय के आधार पर घोषित होता है। संपादक मंडल द्वारा होने वाले चयन के नियम कुछ विचित्र हैं। 
 
'टाइम पर्सन ऑफ ईयर' बनने के लिए उस व्यक्ति को उचित या अनुचित कार्यों की वजह से सुर्खियों में बने रहना जरूरी है। सुर्खियां गलत कारणों से हों या सही कारणों से- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों से विश्व की राजनीति में वांछित या अवांछित प्रभाव पड़ना चाहिए। 
 
यही वजह है कि यह खिताब हिटलर, माओ, लेनिन जैसे विवादास्पद व्यक्तियों को भी मिल चुका है। अभी तक यह खिताब सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों को भी दिया जा चुका है। साधारणतः अमेरिकी राष्ट्रपति को बनने के साथ ही उसी वर्ष में यह खिताब दे दिया जाता है। अतः समझ लिया जाना चाहिए कि संपादक मंडल द्वारा दिया गया खिताब, नोबेल पुरस्कार की तरह किसी क्षेत्र में उपलब्धि के लिए सम्मान नहीं है। 
 
फिर भी यह बात सबको स्वाभाविक तौर पर सबको विचित्र लगी कि 'टाइम' मैगजीन के संपादक मंडल ने मोदी को अपनी अंतिम सूची में शामिल नहीं किया। वजह जो भी रही हो, यह अमेरिकी नजरिया है जिस पर हमें प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं है। 
 
दूसरी श्रेणी वाला खिताब हमें महत्वपूर्ण लग सकता है जिसमें मोदी निर्विवाद विजेता घोषित हुए, क्योंकि यह चयन जनता के मतों के आधार पर होता है और जनता इस खिताब को पुरस्कार के भाव में लेती है। 
 
विश्व की जनता ने मोदी के पक्ष में अपना मत दिया और वह भी तब, जब विश्व के कई धुरंधर उनके सामने थे जिनमें ओबामा और पुतिन जैसे शक्तिशाली लोग शामिल थे। इस प्रकार एक तरह से देश के साथ विदेशों से भी मोदी को समर्थन प्राप्त हुआ। 
 
इसमें कोई दो मत नहीं कि मोदी अभी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। उस पर इस तरह के खिताब किसी भी संवेदनशील व्यक्ति पर अपनी क्रियाशीलता और कार्यक्षमता के लिए अधिक दबाव बनाते हैं तथा जनता के प्रति उसको अधिक जवाबदेह बनाते हैं।
 
मोदी ने लोकसभा चुनावों में कुछ वादे किए थे, जैसे सबका साथ सबका विकास। स्वच्छ, निर्भीक और छोटा प्रशासन। जनता को ये मुद्दे पसंद आए थे और इन्हीं मुद्दों को लेकर चुनाव में सकारात्मक वोट पड़े थे। किंतु चुनावों में मोदी की जीत के बाद कुछ दक्षिणपंथी लोगों को यह लगने लगा है कि बस अब भारत उनके हाथ में है वहीं कुछ वर्गों के नेताओं ने अपने समाज में यह बात फैलाई कि यह व्यक्ति केवल एक वर्ग का हित करने वाला है। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
 
आम जनता को भी समझ में आने लगा है कि घृणा की राजनीति क्षुद्र नेता केवल अपने फायदे के लिए करते हैं। भारत के हित या अहित से उन्हें कोई सरोकार नहीं। एक दिन का हीरो बनने के लिए यहां कोई भी कुछ भी बकता है।
 
एक छोटी जगह के छोटे से मंच से महत्वहीन नेता का अनर्गल प्रलाप मीडिया द्वारा राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाता है। जो किसी चौपाल या महफिल में बहस योग्य विषय नहीं होता वह संसद में प्रमुख मुद्दा बन जाता है।
 
यह तो विडंबना ही है कि जो विषय बहस के होते हैं वहां सांसद गायब होते हैं। ऐसी परिस्थिति में मोदी के सामने चुनौती है अपनी टोली को अनुशासन में रखने की और अपने प्रयत्नों को अपने वादों पर केंद्रित रखने की।
 
देखना अब ये होगा कि मोदी-प्रशासन इन मुद्दों पर कितना खरा उतरता है। यदि अगले वर्ष भी मोदी इस तरह के खिताबों के लिए नामांकित होते हैं तो समझिए कि वे सही राह पर हैं। भाषणों की श्रृंखला समाप्त हुई, अब समय है वादों को अमली जामा पहनाने का। बातें हो चुकी, काम भी शुरू हो चुका और शायद दिशा भी सही है, अब तो दौड़ना है। जरूरत है इस दौड़ में बाधा बन रहे लोगों को हाशिए पर धकेलने की। राष्ट्र की जनता साथ देने को तैयार है।
 
हमारा आकलन तो यह है कि मोदी--प्रशासन भी तैयार है? बात अब समय की है। आज जो बोया जाएगा वह अपने सही समय पर उगेगा भी और फल भी देगा। आवश्यकता है सही बीज बोने की। हमारा विश्वास है कि यदि प्रयत्न और दिशा सही बनी रहे तो सफलता अवश्यंभावी है।

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