केन्द्र सरकार पर इस बात को लेकर तीखा हमला हो रहा है कि उसने गेहूं से आयात शुल्क पूरी तरह खत्म क्यों कर दिया। वैसे इससे पहले सितंबर महीने में ही सरकार ने गेहूं के आयात पर लगने वाले शुल्क को 25 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया था, तब भी इसका विरोध हुआ था। अब 8 दिसंबर से उस 10 प्रतिशत को भी खत्म कर दिया गया है। इस समय जबकि केन्द्र सरकार पर नोट वापसी को लेकर चारों तरफ से विपक्ष हमला कर रहा है एवं उसे धनपतियों के समर्थक सरकार कह रहा है, इस निर्णय को भी उससे जोड़ दिया गया है।
कहा जा रहा है कि यह निर्णय किसान विरोधी है। यदि विदेश से बिना शुल्क यानी सस्ते गेहूं आएंगे, तो हमारे देश में जो पैदावार होगी उसे कौन खरीदेगा। चूंकि उत्तर प्रदेश एवं पंजाब में आगामी कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं, और ये दोनों प्रदेश सबसे ज्यादा गेहूं उत्पादन करने वाले राज्य है, इसलिए वहां भाजपा विरोधी पार्टियां इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहीं हैं। दोनों राज्यों में बहुमत किसानों और कृषि पर निर्भर रहने वालों का है। उत्तर प्रदेश में 76 प्रतिशत तथा पंजाब में 63 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। इसलिए भाजपा विरोधी पार्टियों को लगता है कि इसे मुद्दा बनाकर वे बहुमत जनता का समर्थन पा लेंगे। प्रश्न है कि क्या वही सही है जो विपक्ष कह रहा है या सच्चाई इसके अलावा भी है?
ऐसा नहीं है कि सरकार को यह निर्णय करते वक्त इस बात का अहसास नहीं था कि इसका विरोध होगा तथा चुनाव में उसे जनता के बीच विपक्ष के आरोपों का जवाब देना होगा। बावजूद इसके यदि उसने यह निर्णय किया है तो इसके कुछ ठोस कारण होंगे। दरअसल, यह विषय ऐसा है जिसे संतुलित होकर समझने तथा राजनीतिक पार्टियों के वक्तव्यों से अलग होकर विचार करने की आवश्यकता है। एक तर्क यह है कि जब देश में 2015-16 में 9 करोड़ 35 लाख टन के गेहूं की पैदावार हुई, तो फिर गेहूं की किल्लत का सवाल कहां से पैदा हो गया, कि सरकार ने शुल्क मुक्त आयात का निर्णय लिया? ध्यान रखिए कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2014-15 में गेहूं की पैदावार 8 करोड़ 65 लाख 30 हजार टन थी। इसके अनुसार 2015-16 में गेहूं ज्यादा पैदा हुए। तो फिर ऐसा क्यों? यही नहीं यह भी माना जा रहा है कि किसानों ने अब तक 2 करोड़ 21 लाख 63 हजार हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई कर दी है। यह पिछले साल के 2 करोड़ 2 लाख हेक्टेयर से ज्यादा है। यानी अगर बुवाई ज्यादा है तो फिर पैदावार भी ज्यादा होगी। इसमें सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरी हो गई कि उसे आयात को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता महसूस हुर्ई ? तो यह है एक पक्ष और इसके आधार पर सरकार का निर्णय अतार्किक लग सकता है। एक हद तक किसान विरोधी भी। विपक्ष इसे ही अपने तरीके से उछाल रहा है।
अब जरा दूसरे पक्ष को भी देखिए। कई विश्वसनीय हलकों से 9 करोड़ 35 लाख टन पैदावार के आंकड़े पर प्रश्न उठाए गए। इन पक्षों का कहना है कि गेहूं की पैदावार 8 करोड़ से 8.5 करोड़ टन के बीच ही हुई। खासकर गेहूं कि व्यापार से जुड़े वर्ग ने यही आंकड़ा दिया। हम इन दोनों दावों के बीच की सच्चाई का पता नहीं कर सकते। लेकिन कुछ बातें तो सच है। मसलन, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 9 दिसंबर के आंकड़ों के अनुसार 1 करोड़ 65 लाख टन ही गेहूं का भंडार पड़ा है। पिछले वर्ष इस समय 2 करोड़ 68 लाख 80 हजार टन था। इस तरह जिसे अंग्रेजी में बफर स्टॉक कहते हैं उसमें 1 करोड़ टन से ज्यादा की कमी है। यह पिछले नौ साल की सबसे बड़ी कमी है। जाहिर है, यह सामान्य स्थिति नहीं है। इतना कम भंडार तो होना ही नहीं चाहिए था। वैसे सरकार को इसका जवाब तो देना चाहिए कि इतना कम भंडार क्यों है? लेकिन जो है वो हमारे सामने है और उसके आलोक में ही विचार करना होगा। तत्काल अपने देश के अंदर के गेहूं से इसकी भरपाई की कोई संभावना नहीं है। जब गेहूं पर आयात शुल्क था तब भी आयात हो रहा था। आटा मीलों ने सरकार से आयात शुल्क हटाने की मांग की थी, क्योंकि उनके यहां पर्याप्त गेहूं आ नहीं रहा था। यह सच है कि पिछले कुछ दिनों में बाजार में गेहूं एव आटा दोनों के दामों में बढ़ोत्तरी हुई है और यह जारी है। ऐसे में कोई भी सरकार करे तो क्या करे? उसके सामने आगे कुंआ एवं पीछे खाई वाली स्थिति होती है।
कहने की आवश्यकता नहीं, कि सरकार ने गेहूं की बाजार में पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित कर इसके मूल्य को नियंत्रित करने को प्राथमिकता दी है। आखिर जो वर्ग खरीदकर खाता है, उसका ध्यान रखना भी सरकार का दायित्व है। जब दाम बढ़ेंगे तो लोग चिल्लाएंगे कि देखो किस तरह गेहूं और आटे के दाम बढ़ गए और सरकार ने कुछ नहीं किया। दालों के दामों पर मचे हंगामे हमारे सामने है। राजधानी दिल्ली में ही 24 रुपए किलो गेहूं मिल रहे हैं। तो उन करोड़ों उपभोक्ताओं के हित को भी ध्यान में रखना बिना आयात संभव नहीं था। गेहूं के आयात का अर्थ है कि इसकी उपलब्धता में कमी नहीं होगी तथा सरकार इसके मूल्य को नियंत्रित रख सकती है। गेहूं के आयात का मूल्य 210 से 215 डॉलर प्रति टन है। इस तरह जब ये बाजार में आ जाएंगे तो माना जा रहा है कि सरकार ने गेहूं का जो न्यूनतम मूल्य 1625 रुपए क्विंटन घोषित किया हुआ है उससे भी जगह-जगह 50 रुपए से 200 रुपए प्रति क्विंटल तक की कमी आ सकती है।
यह बहुत बड़ी कमी होगी और उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी। दूसरे, यह शुल्क रहित व्यवस्था स्थायी रुप से नहीं है। अभी इसे 29 फरबरी 2017 तक के लिए किया गया है। मार्च तक नई फसल आ जाने का अनुमान है। करीब 35 लाख टन गेहूं के आयात का सौदा अभी तक हुआ है। इससे ज्यादा की तत्काल संभावना नहीं दिखती है, क्योंकि कालासागर से कुछ समय बाद आवागमन संभव नहीं होगा। हो सकता है इतने आयात के बाद सरकार फिर से शुल्क लगा दे। अगर हमारे यहां पैदावार बेहतर होती है और बाजार में न्यायसंगत मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में गेहूं उपलब्ध रहता है तो फिर सरकार क्यों शुल्क रहित आयात करवाएगी? उसे पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं है कि ऐसा करके राजनीतिक जोखिम मोल ले! आखिर इसी सरकार ने पहले गेहूं पर आयात शुल्क बढ़ाया था जो कि 31 मार्च 2016 तक के लिए था, फिर इसे 30 जून तक किया गया और यह सितंबर तक जारी रहा।
सरकार ने गेहूं का जो न्यूनतम मूल्य घोषित किया हुआ है वह तो जारी रहने ही वाला है। केन्द्र एवं राज्य सरकारें किसानों की पैदावार खरीदकर अपना भंडारण करेंगी। निजी व्यापारी भी इससे कम पर न खरीद पाएं इसकी व्यवस्था अवश्य राज्य सरकारों को करना चाहिए। किंतु यह माना जा रहा है कि इस बार ठंडी कम होगी एवं गर्मी के कारण गेहूं जितना पैदा होना चाहिए संभवतः नहीं होगा। इस समय हम आप निश्चयात्मक तौर पर कुछ नहीं कह सकते, पर यदि ऐसी बातें विशेषज्ञों की ओर से कही जा रही हैं, तो इसका संज्ञान लेना ही होगा। मौसम विभाग ने कम ठंड की भविष्यवाणी तो कर दी है। जाहिर है, सरकार का निर्णय इन सारे कारणों और तथ्यों को एक साथ मिलाकर देखने से तार्किक एवं आवश्यक लगता है। हां, सरकार का फोकस पैदावार एवं किसान हों, ताकि बार-बार ऐसा करने को विवश न होना पड़े। उम्मीद है सरकार ऐसा ही करेगी।