दुनिया में कौन देश कितना सेक्युलर है?

What is secularism : इस लेखमाला की पहली और दूसरी कड़ी में यह जान लेने के बाद कि ‘सेक्युलरिज़्म’ का इतिहास क्या है, भारत के संदर्भ में वह धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं हो सकता, भारत का संविधान कैसी बहस का निचोड़ है, अब देखते हैं कि ... दुनिया में कौन कितना सेक्युलर है... 
 
भारत में सबने भ्रम पाल रखा है कि सेक्युलर (पंथ निरपेक्ष) होना इतना आधुनिक और आसान है कि भारत के अलावा सभी लोकतांत्रिक देश सच्चे लोकतंत्र ही नहीं, परम सेक्युलर भी हैं। सच्चाई यह है कि हर देश ने सेक्युलर शब्द की अपनी एक अलग परिभाषा रच रखी है। दुनिया का शायद ही कोई देश उतना सेक्युलर है, जितना वह दावा करता है। भारत पंथ (रिलिजन) निरपेक्ष तो हो सकता है, पर धर्म निरपेक्ष कतई नहीं। धर्म का अर्थ मात्र ईश्वर-भक्ति नहीं, अपितु वे नैतिक कर्तव्य एवं दायित्व भी हैं, जिन से घर-गृहस्थी और समाज चलता है। सेक्युलर होने न होने को बाक़ी दुनिया केवल ईश्वर-भक्ति और पूजा-पाठ की स्वतंत्रताओं या बाधाओं के चश्मे से देखती है।  
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फ्रांस : पिछली कड़ियों में हमने देखा कि फ्रांस के राजा नेपोलियन प्रथम की राष्ट्रीय संसद ने 2 नवंबर, 1789 को फ्रांस के कैथलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाई चर्चों की सभी संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण का, यानी उन्हें ज़ब्त कर लेने का अध्यादेश पारित किया। सभी चर्चों के धर्माधिकारियों को सरकारी कर्मचारियों की तरह देशभक्ति की और नए संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ी।
 
फ्रांस में कैथलिक चर्च और राज्यसत्ता के बीच संबंधविच्छेद के 18वी एवं 19वीं सदी में हो चुके प्रयासों के बाद 1905 से दोनों पूर्णतः पृथक सत्ताएं हैं। उस समय के ‘लाईसिते’ (सेक्युलैरिटी) क़ानून के अनुसार, ‘फ्रांस गणराज्य किसी आस्था को न तो मान्यता देता है, न पैसा देता है और न कोई अनुदान देता है।’ सभी कथीड्रल (धर्मपीठ चर्च) केंद्र सरकार के अधीन हैं। अन्य छोटे-बड़े गिर्जे स्थानीय निकायों को सौंप दिए गए हैं। इन गिर्जाघरों के उपयोग के लिए केंद्र सरकार या स्थानीय निकायों से अनुमति लेनी पड़ती है।  
 
फ्रांस का मत है कि राज्यसत्ता (सरकार) अपनी समग्र जनता और देश के हित में कानून-व्यवस्था की रक्षक है, अतः उसका स्थान हर आस्था और रिलिजन से ऊपर है। इस बीच, फ्रांस के उपनिवेश रहे अफ्रीकी देशों से आए लोगों की बढ़ती हुई संख्या और वहां हुए एक से एक भयावह आतंकवादी हमलों के कारण, वहां की सरकारों को कुछ ऐसे कठोर क़ानून बनाने पड़े हैं, जो इन क़ानूनों से प्रभावित होने वाले ग़ैर ईसाई अल्पसंख्यकों को भेदभावी लगते हैं।  
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मस्जिदों के बाहर सड़कों पर या खुले में नमाज़ पढ़ना और बुर्का पहनकर सार्वजनिक जगहों पर जाना क़ानून मना है। 2022 से सरकारी स्कूलों में हिजाब, बुर्के या किसी भी प्रकार के मज़हबी पहनावों और प्रतीकों पर रोक लगा दी गई है। इस रोक को सरकारी इमारतों और संसद भवन तक बढ़ा दिया गया है। आस्था के नाम पर सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के प्रयासों को सख़्ती से रोका जाता है। ऐसे किसी भी मज़हबी स्थान को कभी भी बंद कर दिया जा सकता है, जिस पर घृणा और हिंसा फैलाने का शक है। 
 
फ्रांस के सरकारी अधिकारी कहने लगे हैं कि वहां रहने वाले मुस्लिम अल्पसंख्यक फ्रांस के प्रति इतने आक्रामक हो गए हैं कि वे ‘इस्लामी पृथकतावाद’ पर, यानी फ्रांस का विभाजन करने पर उतारू हो गए हैं। इस पृथकतावाद से लड़ने के लिए 2021 में एक नया क़ानून बना कर मज़हबी प्रतीकों, मस्जिदों और इस्लामी संगठनों को बंद कर देना पहले की अपेक्षा और अधिक आसान बना दिया गया है। जिस किसी मज़हबी संस्था या ट्रस्ट को तुर्की, क़तर या सऊदी अरब जैसे देशों से 10 हज़ार यूरो, यानी 9 लाख रूपए से अधिक का कोई दान मिलेगा, उसे इसे घोषित करना और अपना बहीखाता सही होने का प्रमाणपत्र लेना होगा।
 
किसी लड़की या महिला पर विवाह के लिए दबाव डालने या किसी पुरुष द्वारा एक से अधिक महिलाओं से विवाह करने पर, 13 लाख रुपए से अधिक दंड देना पड़ेगा। किसी सरकारी अधिकारी या जनप्रतिनिधि को डरा-धमका कर सेक्युलर मूल्यों के विरुद्ध मजबूर करने पर 66 लाख रुपए के बराबर जुर्माना और 5 साल जेल की सज़ा मिलेगी।
 
कई पत्नियों वाले पुरुषों को फ्रांस में रहने की अनुमति देने से मना किया जा सकता है। ऐसे विवाह रोके जा सकते हैं, जिनमें महिला की जांच करवाकर प्रमाणित करने का दबाव डाला जा रहा हो कि वह कुंआरी है या नहीं। ऐसी जांच करने या प्रमाणपत्र देने वाले डॉक्टर को 13 लाख रुपए से अधिक दंड भरना और जेल भी जाना पड़ सकता है। बच्चों को घर में पढ़ाने या मदरसे में भेजने से पहले सरकारी अनुमति लेनी होगी। 
 
फ्रांस के गृह मंत्रालय ने अगस्त, 2022 में कहा कि वहां की 2,623 मस्जिदों में से 99 की गतिविधियां उग्रवादी होने का संदेह है। 24 मस्जिदों को तुरंत बंद कर दिया गया। मज़हबी सोच से प्रेरित हिंसात्मक अपरधों के लिए 3 साल से लेकर आजीवन कारावास की सज़ा और 45,000 से 75,000 यूरो तक का ज़ुर्मना देना पड़ सकता है।

इसी सोच के कारण किसी विशेष व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के प्रति भेदभाव, घृणा या हिंसा भड़काने पर 1,500 यूरो ज़ुर्मना देना पड़ेगा। 1 यूरो इस समय लगभग 90 रुपये के बराबर है। जो लोग भारत में बुर्के-हिजाब पर रोक-टोक को फ़ासिज़्म बताते हैं, वे इन क़ानूनों के कारण क्या फ्रांस को भी फ़ासिस्ट कहेंगे, जो दूसरे विश्वयुदध के समय हिटलर के फ़ासिज्म को झेल चुका है और उससे लड़ भी चुका है! 
 
अमेरिका : ईसाइयों के प्रभुत्व वाले अमेरिका का संविधान राज्यसत्ता (राजनीति) को रिलिजन से दूर रखने की मांग करता है। संविधान के अनुच्छेद 5 के प्रथम संशोधन में कहा गया है कि कांग्रेस (संसद के दोनों सदनों) की ओर से ऐसा कोई क़ानून नहीं बनेगा, जो किसी रिलिजन को मान्यता देता हो या उसके पालन पर रोक लगाता हो। स्कूलों में न तो कोई धर्मशिक्षा दी जाती है और न कहीं किसी प्रकार की वित्तीय सहायता। किंतु ईसाइयों के क्रिसमस पर्व के समय सरकारी छुट्टी होती है, जबकि अन्य मज़हबों से जुड़े त्योहारों पर छुट्टी नहीं होती। 
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1955 से अमेरिकी डॉलर की नोटों पर ‘इन गॉड वी ट्रस्ट’ (ईश्वर में हमारी आस्था है) लिखा रहता है। पद और गोपनीयता की शपथ लेते समय राष्ट्रपति और मंत्री आदि संविधान की अपेक्षा बाइबल पर हाथ रख कर उसे साक्षी बनाना अधिक पसंद करते हैं। एक सच्चे सेक्यूलर लोकतांत्रिक देश में संविधान सर्वोपरि होना चाहिए न कि कोई धर्मग्रंथ। डॉलर की नोटों पर ईश्वर के प्रति आस्था का उद्घोष भी किसी निरपेक्षता का प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
 
भारत : भारत का संविधान भी अपने हर नागरिक को किसी भी पंथ या संप्रदाय से जुड़ने या न जुड़ने, उसका अनुपालन करने या न करने का अधिकार देता है। संविधान यह नहीं कहता कि भारत का अपना कोई औपचारिक देवता, धर्म, पंथ या संप्रदाय है। 2011 की जनगणना के अनुसार उस समय भारत की 79.8 प्रतिशत जनता हिंदू थी। लेकिन कुल जनसंख्या में हिंदुओं का अनुपात हर जनगणना के साथ अब तक घटता गया है। हो सकता है कि इस बीच यह अनुपात 78 प्रतिशत से भी कम हो गया हो। 
भारत धर्म नहीं, पंथनिरपेक्ष है। पर यह पंथनिरपेक्षता ऐसी भी नहीं है कि सरकार आस्था या पंथिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। बलिदानों पर प्रतिबंध लगाना, मंदिरों में दलितों के प्रवेश को भी संभव बनाना, हिंदू कोड बिल लागू करना, पर शरियत को नहीं छूना, तीन तलाक को अवैध घोषित करना, पर हज यात्राओं के लिए अनुदान देते रहना, ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। एक सबसे भेदभावी हस्तक्षेप तो यह है कि भारत की राज्य सरकारें हिंदू मंदिरों को मिलने वाले चढ़ावों और दानों का एक बड़ा हिस्सा उनसे छीनकर कुछ स्वयं डकार जाती हैं और कुछ हिस्सा मस्जिदों और गिर्जाघरों को बांट देती हैं। 
 
1997 के ‘हिंदू धार्मिक संस्थान एवं परोपकारी धर्मस्वनिधि कानून’ (हिंदू रिलीजियस इंस्टीट्यूशन्स ऐन्ड चैरिटेबल एन्डोवमेन्ट्स ऐक्ट 1997) के बहाने से मंदिरों की सारी आय पर राज्य सरकारों का अधिकार हो गया है। मंदिरों को अपने कामों और रखरखावों के लिए क्या मिलेगा, यह राज्य सरकारों की कृपा पर निर्भर है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में हुंडियों के रूप में मिला धन हर मंदिर के बैंक में जमा होता है। 
 
मंदिरों की आय का 14 प्रतिशत राज्य सरकार प्रशासनिक फ़ीस, 4 प्रतिशत लेखा-परीक्षा (ऑडिट) फ़ीस और 4 से 10 प्रतिशत मंदिरों की देखरेख के आयुक्त (कमिश्नर) के सुझावों के अनुसार वसूलने की अधिकारी है। पर अंत में मंदिर के पास क्या बचता है या सरकार से क्या वापस मिलता है, यह सब राम भरोसे है। मद्रास उच्च न्यायालय ने 2021 में एक फैसला सुनाया है, पर कोई गरंटी नहीं है कि मंदिरों के धन की सरकारी लूट और उनकी आय से मस्जिदों और गिर्जाघरों को चमकाया जाना बंद होगा।
 
2022 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई कि हिंदुओं को भी अपने धार्मिक स्थलों का, बिना किसी सरकारी दखल के, उसी तरह प्रबंधन का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिये, जिस तरह ईसाइयों और मुसलमानों को मिला हुआ है? याचिका में कहा गया था कि देश के क़रीब 9 लाख मंदिरों में से 4 लाख राज्य सरकारों के नियंत्रण में हैं, जबकि मस्जिदों व गिर्जाघरों पर कोई नियंत्रण नहीं है। सुनवाई कर रही पीठ का कहना था कि ‘यह क़ानून तो 1863 से काम कर रहा है। यह व्यवस्था 150 वर्षों से समाज के व्यापक हित में काम कर रही है। कुछ मंदिरों ने तो अपनी ज़मीन भी दे दी।’ इसे क्या पंथनिपपेक्षता कहेंगे कि हिंदू मंदिरों की आय से ग़ैर हिंदू पूजास्थल फलफूल रहे हैं और भारत के वामपंथी ही नहीं, बाक़ी दुनिया भी यही कहती है कि भारत में अल्पसंख्यों पर बहुत अत्यचार होता है?
 
ब्रिटेन : ब्रिटेन के राजा या रानी का संरक्षण प्राप्त ‘चर्च ऑफ़ इंग्लैंड’ ब्रिटेन के इंग्लैंड प्रदेश का मान्यता प्राप्त पंथ है। स्कॉटलैंड में वहां के स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च को राष्ट्रीय चर्च होने की संवैधानिक मान्यता मिली हुई है। हमेशा दो आर्कबिशप और 24 बिशप ब्रिटिश संसद के ऊपरी सदन ‘हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स’ के अनिवार्य सदस्य होते हैं।

राजा या रानी का राज्याभिषेक ईश्वर के नाम पर शपथ दिलाते हुए, पूरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ, कैन्टरबरी चर्च का आर्कबिशप करता है। यानी, ब्रिटेन धर्म या पंथनिरपेक्ष बिल्कुल नहीं है। तब भी विधर्मियों को अपनी आस्था के पालन की पूरी स्वतंत्रता है। इस्लामी कट्टरपंथ एवं आतंकवाद से हालांकि ब्रिटेन भी परेशान है, पर इस बात का अच्छा उदाहरण भी है कि सांप्रदायिक स्वतंत्रता एवं सौहार्द के लिए सेक्यूलर होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। पंथसापेक्ष हो कर भी सर्वधर्म समभावी रहा जा सकता है।
 
जर्मनी : जर्मनी का सेक्युलरिज्म सबसे गूढ़, गोलमटोल और ईसापंथी है। संविधान की प्रस्तावना ‘ईश्वर एवं मनुष्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व के बोध…’ से, यानी अलौकिक को साक्षी बनाकर शुरू होती है। जर्मन संविधान एकेश्वरवादी है, जिसमें ईसाई संप्रदायों तथा अन्य पंथों और राज्यसत्ता के बीच साझेदारी पर बल दिया गया है। एक तरफ ईसाई संप्रदायों वाले चर्चों के साथ सरकारी समझौते हैं, दूसरी तरफ अन्य पंथिक समुदायों के प्रति तटस्थतापूर्ण साझेदारी निभाने का आश्वासन भी है।
 
तथाकथित सेक्युलर जर्मनी का सरकारी आयकर विभाग, नैकरी-पेशा लोगों के वेतनों और अन्य लोगों की कारोबारी आय पर लगने वाले आयकर के 6 से 8 प्रतिशत के बराबर अलग से चर्च-टैक्स काटकर संबद्ध संप्रदाय वाले चर्च के बैंक खाते में जमा कर देता है। कैथलिक संप्रदाय वाले चर्चों को 2022 में इस प्रकार 6 अरब 85 करोड़ यूरो की और एवैंजेलिकल संप्रदाय वाले चर्चों को 6 अरब 24 करोड़ यूरो की आय हुई। एक पुराने समझौते के अधीन, जर्मनी की राज्य सरकारें भी दोनों संप्रदायों के गिर्जाघरों के रखरखाव के नाम पर पैसा देती हैं। 2022 में कैथलिक संप्रदाय को 35 करोड़ 50 लाख यूरो और एवैंजेलिकल संप्रदाय को 24 करोड़ 80 लाख यूरो अलग से मिले।
 
इन दोनों जर्मन संप्रदायों के चर्चों के पास अरबों-खरबों यूरो के बराबर चल-अचल संपत्तियां भी हैं। जर्मन राज्य सरकारें उनके बिशपों एवं पादरियों के वेतनों आदि के लिए भी हर वर्ष 50 करोड़ यूरो अलग से देती हैं। जर्मन स्कूलों में बच्चों को नियमित धर्मशिक्षा दी जाती है। इसकी परीक्षा होती है और अंक भी मिलते हैं। ईसाई संप्रदायों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों का 90 प्रतिशत तक ख़र्च केंद्र व राज्य सरकारें तथा नगरपालिकाएं मिलकर उठाती हैं। ऐसे स्कूलों के शिक्षक हड़ताल नहीं कर सकते। विदेशों में ईसाइयत का प्रचार करने वाली दो संस्थाओं को भी सरकार से अनुदान मिलता है।
 
नीदरलैंड : जर्मनी का पड़ोसी नीदरलैंड भी ईसाई देश है, पर ईसाई चर्चों को वहां सार्वजनिक संस्था का कानूनी दर्जा नहीं मिला है। वहां वे किसी भी साधारण संगठन के समान ही हैं। आयकर विभाग उनके लिए चर्च-टैक्स वसूल नहीं करता। उन्हें अपने भक्तों से मिली फ़ीस, चंदे या दान से ही काम चलाना पड़ता है। वहां 30 प्रतिशत से अधिक लोग धर्म-कर्म में विश्वास ही नहीं करते। इस्लामपंथियों और मस्जिदों- मदरसों के बढ़ने से अब वहां सांप्रदायिक तनाव देखने में आते हैं।
 
मुसलमानों से कहा जाता है कि उन्हें नीदरलैंड के उन्मुक्त समाज में यदि रहना है तो सहिष्णु बनना पड़ेगा। आलोचना या टीका-टिप्णी को ईशनिंदा कहना बंद करना होगा। महिलाओं के बुर्का पहनने, स्कूलों में लड़कों-लड़कियों के लिए खेल के अलग-अलग घंटों की मांग करने, इमामों द्वारा महिलाओं से हाथ नहीं मिलाने और अपराधों के तेज़ी से बढ़ने को लेकर नीदरलैंड के मीडिया में तीखी बहसें चलती हैं। गेर्ट विल्डर्स जैसे एक घोर इस्लाम विरोधी की पार्टी को नवंबर 2023 के संसदीय चुनाव में सबसे अधिक सीटें मिलना दिखाता है कि नीदरलैंड की मूल जनता का रुख बदल रहा है। 
 
स्विट्ज़रलैंड : चार भाषाओं और ‘कंटोन’ कहलाने वाले 26 प्रदेशों का संघराज्य स्विट्ज़रलैंड, संघीय स्तर पर तो सेक्युलर है, पर उसका संविधान भी जर्मनी की तरह ‘सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम’ से शुरू होता है। देश का राष्ट्रगान भी ईसाइयत से प्रेरित है। 26 में से 24 प्रदेश अपने स्तर पर कैथलिक चर्च या स्विस सुधारवादी चर्च का समर्थन करते हैं। कई प्रदेश ऐसे भी हैं, जो जर्मन राज्यों की तरह, लोगों के आयकर के साथ ही चर्च टैक्स अलग से काटकर उसे सम्बद्ध चर्च के बैंक खाते में डाल देते हैं।
 
इटली : यह कैसे हो सकता है कि विश्व भर के रोमन कैथलिकों की राजधानी वैटिकन जिस रोम में है, वहां की राज्यसत्ता धर्म-कर्म से बिल्कुल दूर रहे! इटली की 80.8 प्रतिशत जनता ईसाई है। 13.4 प्रतिशत लोग किसी भी पंथ या संप्रदाय से जुड़े नहीं हैं। देश के 12 सार्वजनिक छुट्टी के दिनों में से 8 ईसाई त्योहार के दिन हैं। संविधान आस्था की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, पर वहां ईसाइयत को पहले से ही आधिकारिक वरीयता प्राप्त है। स्कूली कक्षाओं की दीवारों पर सलीब पर लटके ईसा मसीह का क्रॉस होना अनिवार्य है, लेकिन देश के लगभग 30 लाख मुसलमानों के लिए अपनी मस्जिद बना सकना टेढ़ी खीर है। इटली में इस्लाम को वह आधिकारिक मान्यता अभी तक नहीं मिल सकी है, जो ग़ैर ईसाई मतावलंबियों के लिए वहां अवश्यक है। 
 
इटली की सरकार भी अपने धर्मभीरु नागरिकों से चर्च टैक्स वसूल करती है। लेकिन यह उनके नियमित आयकर से ही ले लिया जाता है, जर्मनी की तरह आयकर के अलावा अलग से नहीं। लोगों को अपने आयकर फॉर्म पर एक खाने में क्रास लगा कर बताना होता है कि उनके आयकर से लिया जाने वाला आठ प्रतिशत चर्च-कर कैथलिक चर्च को मिलना चाहिए या प्रोटेस्टैंट चर्च को। करदाता यह पैसा किसी समाज कल्याण या सांस्कृतिक संस्था को देने के लिए भी कह सकता है। तब भी, लोग सबसे अधिक पैसा कैथलिक चर्च को ही देते हैं। उसे हर साल कम से कम एक अरब यूरो तो मिल ही जाते हैं। 
 
नॉर्वे, स्वीडन, फ़िनलैंड : नॉर्वे के संविधान में राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच अंतर करने का प्रावधान है, किंतु संविधान यह भी कहता है कि नॉर्वे का राजा ‘चर्च ऑफ़ नॉर्वे’ का सदस्य होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, राजा, ईसाइयत के ही एक संप्रदाय ‘एवैंजेलिक-लूथेरन चर्च’ का अनुयायी होता है और वही इस चर्च का सरंक्षक भी है।

वहां के 56 लाख निवासियों में से 68.7 प्रतिशत इसी संप्रदाय के सदस्य हैं। 13 प्रतिशत नागरिक रोमन कैथलिक चर्च जैसे कुछ दूसरे संप्रदायों के सदस्य हैं। नॉर्वे का संविधान आस्था की अभिव्यक्ति का अधिकार तो देता है, पर साथ ही यह भी कहता है कि ‘ईसाइयत और मनवीयता ही हमारी राष्ट्रीय धरोहर है।’ देश की सरकार ही राष्ट्रीय चर्च से जुड़े लोगों के वेतन, पेंशन इत्यादि का ख़्रर्च उठाती है। दूसरे शब्दों में, एक राजशाही लोकतंत्र होते हुए भी नॉर्वे सेक्युलर नहीं है।
 
स्वीडन को दुनिया का एक सबसे अधिक सेक्युलर देश माना जाता है। राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच की विभाजनरेखा वहां सन 2000 में खींची गई थी। तब से वह उत्तरी यूरोप का अकेला ऐसा नॉर्डिक देश बन गया है, जिसका कोई राष्ट्रीय चर्च (पंथ) नहीं है, हालांकि राजा या रानी को ईसाई होना चाहिए। लगभग 53 प्रतिशत जनता, नॉर्वे की तरह ही ‘एवैंजेलिक-लूथरन चर्च’ की सदस्य है, पर 10 में से केवल 3 नागरिक अब भी अपने चर्च के प्रति आस्थावान हैं। 10 में से केवल 1 व्यक्ति धर्माधिकारियों की बातों पर विश्वास करता है। केवल 25 प्रतिशत विवाह चर्च में होते हैं। 1970 में यह अनुपात 80 प्रतिशत हुआ करता था। अधिकतर लोग ईसाई होते हुए भी चर्च में केवल तब जाते हैं, जब वहां कोई आकर्षक कार्यक्रम होता है। 1951 तक वहां भी चर्च-टैक्स देना अनिवार्य था, अब ऐसा नहीं है। कह सकते हैं की लगभग एक करोड़ की जनसंख्या वाले स्वीडन के मूल वासियों के लिए रिलिजन महत्वहीन होता जा रहा है।  
 
फ़िनलैंड अपने आप को सेक्युलर देश बताता ज़रूर है, पर वहां के इवैंजेलिकल लूथरन चर्च और ऑर्थोडॉक्स चर्च को अपने सदस्यों से चर्च-टैक्स वसूल करने का अधिकार है। यह टैक्स सरकारी आयकर के साथ ही सदस्यों की आय में से अलग से काट लिया जाता है। दोनों प्रकार के चर्चों को कंपनियों और व्यापारिक संस्थानों से भी पैसा मिलता है। वहां के स्कूलों में धर्म शिक्षा दी जाती है, तब भी लगभग 30 प्रतिशत जनता अपने आप को अधार्मिक बताती है। 40 प्रतिशत लोग ईश्वर को नहीं मानते। 34 प्रतिशत ईश्वर को मानते हैं और 26 प्रतिशत नहीं जानते कि ईश्वर है या नहीं। 
 
रूस : 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जो रूसी संघराज्य बचा है, उसमें राज्य और आस्था के बीच विभाजन काफ़ी दूर तक पहुंच गया है। तब भी, रूस के जनजीवन पर वहां के ऑर्थोडॉक्स चर्च की गहरी छाप के कारण, किसी पश्चिमी यूरोपीय देश की तुलना में, रूसी राज्यसत्ता और रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के बीच निकटता कहीं अधिक है।

यही बात रूस के पड़ोसी तीन बाल्टिक सागरीय छोटे-छोटे देशों एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया में भी देखने में आती है, जो तीन दशक पहले तक भूतपूर्व सोवियत संघ के संघटक गणराज्य हुआ करते थे। पश्चिमी देशों के बाद यह देखना भी दिलचस्प होगा कि भारत के आस-पास के कुछ प्रमुख एशियाई देशों में धर्म या पंथनिरपेक्षता का क्या हाल है।
नेपाल : दो सदियों तक दुनिया का एकमात्र हिंदू राजतंत्र रहा नेपाल, 2015 वाले संविधान के अनुसार इस अर्थ में एक पंथनिरपेक्ष सेक्युलर लोकतंत्र है कि सब को अपनी संस्कृति और रिलिजन के अनुपालन की स्वतंत्रता है। पर, किसी दूसरे का धर्मपरिवर्तन करने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है। इसी प्रकार, जिन संस्थाओं-संगठनों के नामों में कोई पंथिक-मज़हबी शब्द होगा, उन्हें स्वीकृति देने वाला पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) नहीं हो सकता।

ईसाई, इस्लामी और यहूदी संगठन इसका विरोध करते हैं, क्योंकि पंजीकरण के बिना वे अपने पूजा स्थलों या स्कूलों के लिए ज़मीन भी नहीं ख़रीद सकते। आधिकारिक तौर नेपाल में कोई विदेशी धर्मप्रचारक नहीं हैं, पर सभी लोग जानते हैं कि दर्जनों ईसाई मिशनरी वहां स्कूल, अस्पताल और समाज कल्याण सेवाएं चलाते हैं। सरकारी स्कूलों में धर्मशिक्षा नहीं दी जाती, लेकिन ऐसे अधिकतर स्कूलों में सरस्वती देवी की मूर्तियां लगी हैं। 
 
नेपाल में रहने वाले तिब्बती बौद्धों को अपने धर्मिक अनुष्ठानों और त्योहरों को मनाने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पुलिस उन्हें बौद्ध नववर्ष मनाने या दलाई लामा की तस्वीरें दिखाने से रोकती है। इसके पीछे मुख्य कारण संभवतः चीन की चापलूसी करना है, क्येंकि नेपाल की सरकारें चीन को नाराज़ करने से बचती हैं। 2015 से पहले वाले संविधान में वहां हिंदू धर्म के विशिष्ट स्थान को रेखांकित करते हुए लिखा गया थाः ‘‘नेपाल में सेक्युलरिज़्म का अर्थ है अपने प्राचीन धर्म की, जिसे सनातन धर्म कहा जाता है, अर्थात हिंदुत्व की रक्षा करना।’ उस संविधान में गाय को राट्रीय पशु घोषित किया गया था और गोहत्या को अवैध बताया गया था, क्योंकि वह सनातन धर्मियों के लिए बहुत ही पवित्र है। नए संविधान में ये बातें नहीं हैं।
 
श्रीलंका : श्रीलंका का संविधान किसी राज्य या राष्ट्रीय धर्म का नाम तो नहीं लेता, पर उसके अध्याय दो के नौवें अनुच्छेद में लिखा है, ‘श्री लंका गणराज्य बौद्ध धर्म को सर्वोच्च स्थान देगा, अतः यह राज्य का कर्तव्य होगा कि वह बौद्ध शासन को रक्षित एवं पोषित करेगा।’ बौद्ध धर्म की इस वरीयता के कारण विशेषज्ञ श्री लंका को धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते। 
 
बांग्लादेश : यही दुविधा बांग्लादेश के संविधान के साथ भी है। 1972 के उसके मूल संविधान में सेक्युलर होने की जो बातें कही गई थीं, बाद के शासकों ने संशोधनों द्वारा उनमें काफ़ी हेरफेर किए। 2010 में वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने पांचवें संशोधन को अवैध घोषित करते हुए संविधान के मूल चरित्र को पुनर्स्थापित ज़रूर किया, लेकिन इस्लाम को राज्यधर्म बनाए रखा। संविधान का वर्तमान स्वरूप आस्था के प्रति निरपेक्षता को राज्यसत्ता के चार मूलभूत सिद्धातों में से एक बताते हुए इस्लाम को बांग्लादेश का राज्यधर्म घोषित करता है।
 
इंडोनेशिया : जनसंख्या की दृष्टि से इन्डोनेशिया सबसे बड़ा इस्लामी देश है। वहां लोकतंत्र है, छह अन्य धर्मों को भी मान्यता मिली हुई है, इसलिए उसका संविधान उसे एक सेक्युलर राज्य बताता है। पर संवैधानिक विशेषज्ञ इंडोनेशिया को पूरी तरह सेक्युलर  देश नहीं मानते। इसके वे दो मुख्य कारण बताते हैं: पहला यह कि संविधान एक और केवल एक ईश्वर के प्रति आस्था रखने पर आधारित है। दूसरा, धर्मपालन का आश्वासन तो है, पर केवल छह धर्मों या पंथों को ही मान्यता प्राप्त है। ये हैं इस्लाम, हिंदू, बौद्ध, कन्फूशियस, रोमन कैथलिक ईसाई और प्रोटेस्टैंट ईसाई।
 
इन धर्मों, पंथों या संप्रदायों से भिन्न लोगों को अपने आप को इन्हीं में से किसी के साथ जोड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए, इन्डोनेशिया के हर नागरिक को अपने साथ जो सरकारी पहचानपत्र हमेशा रखना पड़ता है, उसमें उसका धर्म भी लिखा होता है। यदि कोई जैन, सिख, यहूदी या पारसी हुआ, तो उसे अपने आप को उपरोक्त छह विकल्पों में से ही किसी एक को चुनना पड़ता है। ऐसे में जैन और सिख अपने आपको संभवतः हिंदू बताएंगे, पारसी और यहूदी संभवतः दोनों ईसाई संप्रदायों में से किसी एक को चुनेंगे।
 
इसका एक परिणाम यह हुआ है कि इंडोनेशिया में रहने वाले पारसियों की अपनी कोई पहचान ही नहीं बची है। वे लुप्त हो गए हैं। शिकायत यह भी है कि इंडोनेशिया में धार्मिक अदालतें हैं। धर्मों के लिए एक अलग मंत्रालय है, जो अन्य धर्मों-संप्रदायों पर भी नज़र रखता है। वहां के राजनेताओं की नीति राज्य को इस्लाम से दूर रखना नहीं, बल्कि इस्लाम को सरकारी तंत्र में ऐसी जगहें देने की होती है, जहां से वह अन्य धर्मों के अनुयायियों की नकेल कस सके।
 
मलेशिया : मलेशिया के संविधान का अनुच्छेद तीन, इस्लाम को वहां का राज्यधर्म बताता है। अन्य धर्मो, संप्रदायों के लोगों के बारे में कहा गया है कि वे भी इस संघराज्य के किसी भी हिस्से में शांति और सहमेल के साथ अपने धर्म का पालन कर सकते हैं। इस्लाम मलेशिया का राजधर्म होने के कारण उसे सेक्युलर नहीं कहा जा सकता।
 
जापान : जापान एक लोकतांत्रिक राजतंत्र है। संविधान धर्मपालन की स्वतंत्रता और गारंटी देता है। जापान के अपने दो मुख्य धर्म हैं, शिंतो और बौद्ध धर्म। शिंतो धर्म, भारत के सनातन धर्म की तरह उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी जापानी संस्कृति है। सनातन धर्म की तरह ही शिंतो धर्म में भी अनगिनत (80 लाख) देवी-देवता हैं। बौद्ध धर्म छठीं सदी में भारत से वहां पहुंचा था। उसका महायान संप्रदाय जापान में अधिक प्रचलित है। शिंतो और बौद्ध धर्म के बीच कोई टकराव या तनाव नहीं नहीं पाया जाता। बल्कि दोनों एक-दूसरे के अनुपूरक बन गए हैं। 
 
मत सर्वेक्षणों के अनुसार क़रीब 35 प्रतिशत जापानी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। तीन से चार प्रतिशत शिंतो को मानते हैं। दो-ढाई प्रतिशत ईसाई हैं। भारत, नेपाल और इंडोनेशिया के बाली द्वीप से गए कई हिंदू भी जापान में बस गए हैं। सबसे रोचक बात यह है कि जापानी जिन 7 देवी-देवताओं को सौभाग्य के देवता मानते हैं, उनमें से चार हिंदू देवी-देवता हैं: सरस्वती, कुबेर, शिव और लक्ष्मी। जापानियों ने इनके लिए जापानी नाम रख लिए हैं। शिंगोन नाम के बौद्ध संप्रदाय को मानने वाले, बौद्ध धर्म के माध्यम से वहां पहुंची हिंदू तंत्रविद्या के अनुयायी बताए जाते हैं। 
 
पश्चिमी देशों में पंथ-पलायन : विभिन्न देशों के संविधानों के अध्ययन और मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में धर्म, पंथ या संप्रदाय के प्रति लोगों की घटती रुचि से यही संकेत मिलता है कि इस्लामी देशों को छोड़कर, हर जगह लोग स्वयं ही धार्मिक आस्थाओं और संस्थाओं से मुंह मोड़ रहे हैं। संविधान और सरकारें पंथनिरपेक्ष बनें या न बनें, लोग खुद ही पंथनिरपेक्ष होते जा रहे हैं। फ्रांस के 5 प्रतिशत कैथलिक, डेनमार्क के 5 प्रतिशत इवैंजेलिक और चेक गणराज्य के मात्र 3 प्रतिशत सभी ईसाई चर्च में जाते हैं। ब्रिटिश एंग्लिकन चर्च के 10 प्रतिशत, यानी क़रीब 1600 गिर्जे इतने ख़ाली रहते हैं कि उनकी अब ज़रूरत ही नहीं रही। 
 
जर्मन बिशप कॉनफ्रेंस के सचिवालय का कहना है कि 2005 के बाद से अब तक, देश के 650 कैथलिक चर्चों में अब कोई पूजा-प्रार्थना नहीं होती; भक्तगण ही नहीं आते। 2019 से 2023 के बीच हर साल औसतन 28 गिर्जों पर ताले लग गए। देश में कभी 24,500 गिर्जे होते थे, आज जो 24,000 बचे हैं, उनमें से 22,800 ऐतिहासिक या पुरातात्विक महत्व के होने के कारण गिराए नहीं जा सके।

बेल्जियम के केवल 10 प्रतिशत ईसाई चर्च में जाते हैं। चर्चों में होटल, रेस्तरां, दुकानें या पुस्तकालय अदि चलाने का काम होने लगा है। जर्मनी और नीदरलैंड सहित कई देशों में चर्चों को या तो बेंच देना पड़ा है या वे मस्जिदें बन गए हैं। हवा की दिशा यही है कि समय और वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति के साथ लोग हर जगह स्वयं ही पंथनिरपेक्ष होते जाएंगे।

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