आडवाणी, लोकसभा और आरएसएस का प्लान-बी

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रविवार को भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण आडवाणी ने लंबे अंतराल के बाद अक्सर विवादों की जड़ बन चुके अपने ब्लॉग के जरिए एक बार फिर अपने विचार रखे। आडवाणी ने लिखा कि उनके जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कितनी गहरी छाप है और किस तरह संघ ने ही उनके जीवन को मायने दिए, दिशा दी। डेढ़ महीने बाद ब्लॉगिंग की दुनिया में लौटे आडवाणी ने बिना किसी लाग-लपेट के कह दिया है कि संघ के मार्गदर्शन पर ही उनका राजनीतिक जीवन शुरू हुआ था और वह राजनीतिक सफर अभी भी बदस्तूर जारी है।

आडवाणी ने रविवार को यानी 9 फरवरी को ही यह ब्लॉग क्यों लिखा? खुद आडवाणी के शब्दों में पिछले रविवार को उन्होंने मशहूर वयोवृद्ध लेखक खुशवंतसिंह को उनके जन्मदिन पर एक किताब भेंट की जिसमें संघ से अपने रिश्तों का वर्णन किया गया है। इस संदर्भ के बहाने आडवाणी ने कुछ बातों को साफ करने की कोशिश की है। पहला, कि उनके लोकसभा चुनाव न लड़ने की बात बेबुनियाद है या मुट्‌ठी-भर लोगों का खयाली पुलाव। दूसरा, अगर कोई समझता है कि आडवाणी इतनी आसानी से चुनावी राजनीति या संसद की जिम्मेदारी से मुक्ति ले लेंगे तो यह होने वाला नहीं है।

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने के बाद भी आडवाणी ने एक सवाल के जवाब में यही एलान किया था, वह लोकसभा का चुनाव जरूर लडेंगे। अब तक संसद से रिटायर होने की कोई योजना नहीं है।

दरअसल, आडवाणी से हर मंच पर यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या वह सक्रिय राजनीति से संन्यास ले रहे हैं? वैसे तो यह सवाल तभी जन्म ले चुका था जब सरसंघचालक की जिम्मेदारी लेने पर मोहन भागवत ने कहा था कि राजनीति में एक विशेष उम्र के बाद वरिष्ठ लोगों को अपने से कम उम्र के नेताओं के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए।

संघ व भाजपा में पीढ़ी के बदलाव के इस फॉर्मूले के तहत प्रदेशों में में काफी बदलाव किए भी जा रहे हैं। हाल ही में हैदराबाद में संघ व उससे जुड़े संगठनों की विशेष बैठक में इस जनरेशन चेंज को बिना वक्त गंवाए लागू करने पर बल दिया गया। इस जल्दबाजी के पीछे कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व में पीढ़ीगत बदलाव लाया जाना और युवाओं को अपनी ओर तेजी से खींच रही आप आदमी पार्टी की चुनौती प्रमुख कारण है।

बुजुर्ग नेता चुनावी राजनीति से दूर रहे..आगे पढ़ें..


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ऐसे में यह महसूस किया गया कि 75 की दहलीज पार कर चुके नेताओं को चुनावी राजनीति से दूर हो जाना चाहिए। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी समेत देश भर में भाजपा के करीब पांच-छह नेता इस फॉर्मूले के तहत चुनाव से बाहर हो जाएंगे। उस बैठक में मौजूद भाजपा के नेताओं को इस फॉर्मूले पर अमल करने की हिदायत भी दे दी गई।

इसी बीच एक और दिलचस्प घटनाक्रम हुआ। दिल्ली में एक भाजपा नेता के आवास पर पार्टी की अगली पंक्ति के कुछ नेताओं की बैठक हुई। इस बैठक में आजकल पार्टी का नीति-निर्धारण कर रहे एक अग्रणी नेता ने आडवाणी और जोशी के चुनाव न लड़ने की बात रखी। इससे बैठक में मौजूद कुछ अन्य नेता सकते में आ गए। सवाल उठाया गया कि आखिर इस बात को आडवाणी से कहेगा कौन? किसी के राजी न होने पर राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज को फोन मिलाया गया मगर वह भी इस टेढ़ी जिम्मेदारी से साफ मुकर गए। मगर आडवाणी को इस चर्चा का पता चल ही गया और उन्होंने बहुत जल्द एक बाबत छपी खबरों का खुद ही खंडन कर दिया।

अब दिल्ली के राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि क्या संघ जो चाहता है वह वास्तव में लागू करवा पाएगा? क्या संघ आडवाणी के न चाहते के बावजूद उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने से रोकने की हठ करेगा?

अगर भाजपा के गोवा अधिवेशन और उसके बाद के घटनाक्रम पर गौर करें तो ऐसा मालूम होता है कि संघ अपनी मर्जी लागू करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। नरेंद्र मोदी को पहले पार्टी के चुनाव की कमान सौंपना और फिर प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने में संघ ने आडवाणी की एक नहीं सुनी थी। उनके विरोध की परवाह भी नहीं की। लेकिन इसके पीछे तर्क यह था कि अगर समय रहते मोदी को प्रोजेक्ट करने का कदम नहीं उठाते तो आज भाजपा के पक्ष में वह बढ़त नहीं मिलती जो इस वक्त देशभर में नजर आ रही है। इसके साथ ही संघ को चिंता थी कि मोदी के नाम के एलान में देरी से कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया उन्हें मुश्किल में डाल सकती है। मगर आडवाणी को चुनाव लड़ाने में ऐसा कोई जोखिम नहीं है।

कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह जरूर मानते हैं कि आडवाणी चुनावी राजनीति से दूर होकर चुनाव-बाद की स्थिति में किसी संभावना को खत्म नहीं करना चाहते। हालांकि इस बात की संभावना बहुत कम ही है कि चुनावों में पार्टी के एकमात्र चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट होने के बाद मोदी किसी और को पीएम बनने का मौका दें। अगर मोदी के नेतृत्व में सरकार नहीं बनी तो संभावना यही है कि भाजपा को तीसरी दफा भी विपक्ष में ही बैठना पड़ेगा।

इसके बावजूद आडवाणी न तो खुद को रिटायर घोषित करना चाहते हैं और न ही किसी के दबाव में अपने फैसला लेना। अगर उन्हें संघ के फॉर्मूले को मानना भी है तो वह बिना संघर्ष के मैदान नहीं छोड़ेंगे। मोदी को नेता बनाए जाने के वक्त भी आडवाणी ने चुपचाप फैसला मानने के बजाय अपनी बात कहने का ही रास्ता अपनाया था।

हालांकि आडवाणी और उनके गिने-चुने समर्थकों को इस बात से कुछ दिलासा जरूर मिल सकता है कि हमेशा की तरह इस मसले पर भी संघ में दो अलग-अलग विचार हैं। संघ के कुछ दिग्गज यह मानते हैं कि भले ही मोदी का जलवा दिन-ब-दिन रंग ला रहा है और उनकी अगुवाई में भाजपा लोकप्रियता में निश्चित रूप से कांग्रेस से बहुत आगे निकल चुकी है, लेकिन अभी भी यह साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता कि पार्टी को कुल कितनी सीटें आएंगी। ऐसे में इन नेताओं का मानना है कि आडवाणी को पूरी तरह राजनीति से दूर कर देना सही रणनीति नहीं है। उन्हें लगता है कि आडवाणी को लोकसभा लड़ने दिया जाए ताकि सक्रिय राजनीति में उनकी भूमिका बरकरार रहे। इसे संघ का प्लान-बी भी कहा जा सकता है।

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