मनुष्य दुःखी रहता है, अपने मन में संग्रहीत विकारों के कारण जैसे- घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, भय, क्रोध, लोभ इत्यादि- इत्यादि। अब अगर इसी जीवन में कोई ऐसी विद्या मिल जाए जिससे कि इन विकारों को मन से बाहर निकाल दें, तो सहज ही सुखी हो जाएँगे। जी हाँ, इसी जीवन में इस विद्या के अभ्यास से यह संभव है। हजारों व्यक्ति इस विद्या द्वारा अपना जीवन सुखी बना चुके हैं।
विपश्यना की ध्यान विधि एक ऐसा सरल एवं कारगर उपाय है, जिससे मन को वास्तविक शांति प्राप्त होती है और एक सुखी, उपयोगी जीवन बिताना संभव हो जाता है। विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। आत्म-निरीक्षण द्वारा मन को निर्मल करते-करते ऐसा होने ही लगता है।
हम अपने अनुभव से जानते हैं कि हमारा मानस कभी विचलित हो जाता है, कभी हताश, कभी असंतुलित। इस कारणवश जब हम व्यथित हो उठते हैं, तब अपनी व्यथा अपने तक सीमित नहीं रखते, दूसरों को बाँटने लगते हैं। निश्चय ही इसे सार्थक जीवन नहीं कह सकते। हम तब चाहते हैं कि हम स्वयं भी सुख-शांति का जीवन जिएँ और दूसरों को भी ऐसा जीवन जीने दें, पर ऐसा कर नहीं पाते। अतः प्रश्न यही रह जाता है कि हम कैसे संतुलित जीवन बिताएँ?
विपश्यना भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान विधि है। इसे आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने पुनः खोज निकाला था। हमारे समय में कल्याणमित्र सत्यनारायण गोयनका के प्रयत्नों से भारत के ही नहीं, बल्कि 80 से भी अधिक अन्य देशों के लोगों को भी फिर से विपश्यना का लाभ मिलने लगा है।
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विपश्यना सीखने के लिए आवश्यक है कि किसी योग्यता प्राप्त आचार्य के सान्निध्य में दस-दिवसीय आवासीय शिविर में भाग लिया जाए। शिविर के दौरान साधकों को शिविर स्थल पर ही रहना होता है और बाहर की दुनिया से संपर्क तोड़ना होता है। उन्हें पढ़ाई-लिखाई से विरत रहना होता है और निजी धार्मिक अनुष्ठानों तथा क्रियाकलापों को स्थगित रखना होता है। उन्हें एक ऐसी दिनचर्या से गुजरना पड़ता है, जिसमें दिन में कई बार, कुल मिलाकर लगभग दस घंटे तक बैठे-बैठे ध्यान करना होता है। उन्हें मौन का भी पालन करना होता है, अर्थात अन्य साधकों से बातचीत नहीं कर सकते। परंतु अपने आचार्य के साथ साधना संबंधी प्रश्नों और व्यवस्थापकों के साथ भौतिक समस्याओं के बारे में आवश्यकतानुसार बातचीत कर सकते हैं।
विभिन्न देशों में विपश्यना शिविर नियमित रूप से स्थायी केंद्रों पर अथवा अन्य स्थानों पर लगाए जाते हैं। सामान्य दस दिवसीय शिविरों का आयोजन तो होता ही रहता है, परंतु साधना में आगे बढ़े हुए साधकों के लिए भी समय-समय पर विशिष्ट शिविर और 20 -30 तथा 45 दिन के दीर्घ शिविर लगाए जाते हैं। भारत में बच्चों के लिए अनापान के लघु शिविर नियमित रूप से लगाए जाते हैं, जो विपश्यना की भूमिका का काम देते हैं। ये शिविर एक से तीन दिन तक चलते हैं और 8 से 11 तथा 12 से 15 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों के लिए होते हैं।
विपश्यना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई साम्प्रदायिक तत्व नहीं है। किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। इस साधना विधि का आधार यह है कि सभी मनुष्यों की समस्याएँ एक जैसी हैं और इन समस्याओं को दूर करने में सक्षम यह एक ऐसा उपाय है, जिसे हर कोई काम में ले सकता है।
विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीय आड़े नहीं आती। हिन्दू जैन, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। चूँकि रोग सार्वजनीन है, अतः इसका इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए। उदाहरणतया जब हम क्रुद्ध होते हैं तब यह क्रोध- 'हिन्दू क्रोध' अथवा 'ईसाई क्रोध' अथवा 'चीनी क्रोध' नहीं होता। इसी प्रकार प्रेम तथा करुणा भी किसी समुदाय अथवा पंथ विशेष की बपौती नहीं है। मन की शुद्धता से प्रस्फुटिक होने वाले ये सार्वजनीन मानवीय गुण हैं। सभी पृष्ठभूमियों के विपश्यी साधक जल्दी ही यह अनुभव करने लगते हैं कि उनके व्यक्तित्व में निखार आ रहा है।
ऊपर-ऊपर से लगता है कि इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। पर क्या सचमुच ऐसा है। इसका साफ-साफ उत्तर है- नहीं। आज सारे विश्व में परिवर्तन की हवा का चलना साफ जाहिर है। सब जगह लोग इस बात के लिए आतुर हैं कि कोई ऐसा उपाय हाथ लगे जिससे शांति और सामंजस्य वापस आए, सद्गुणों की सार्थकता में फिर से विश्वास जमे और सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा आर्थिक सभी प्रकार के उत्पीड़नों से मुक्ति मिले और सुरक्षा का वातावरण पैदा हो, विपश्यना एक ऐसा उपाय हो सकता है।