विपश्यना, आयुर्वेद और मेरा अनुभव

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आयुर्वेद के अष्टांगहृदय ग्रंथ के दूसरे अध्याय में स्वास्थ्यानुकूल दिनचर्या का वर्णन किया गया है। वहाँ मनुष्य के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठकर जो पहला कार्य करने को कहा गया है, वह है अपनी शरीर चिंता करने का काम। शरीर चिंता का अर्थ है- शरीर के स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य के संबंध में विचार करना।

सूर्योदय के पहले लगभग पौने दो घंटे का समय, जो ज्ञान के लिए विशेष उपयुक्त है, ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है। ब्रह्ममुहूर्त में उठना तो ठीक है, पर उठकर शरीर-संबंधी कौन-सा चिंतन करना है? इस विषय पर मूल ग्रंथों में विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता। जो उल्लेख चौथी या पाँचवीं शताब्दी के अष्टांगसंग्रह नामक ग्रंथ में है, उससे शरीर चिंता यानी कल का खाया हुआ अन्न ठीक से पच गया है या नहीं, आज मेरे शरीर का आहार-विहार क्या होगा- यही सोचना कहा है। पर पूरे ब्रह्ममुहूर्त में यही सोचते रहना अपर्याप्त लगता है।

विपश्यना साधना के संपर्क में आने के बाद मूल उपदेश का व्यावहारिक स्वरूप स्पष्ट रूप से समझ में आता है, ऐसा मेरा मंतव्य है। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ब्राह्मी अवस्था के प्रति प्रयत्न करना है और शरीर संबंधी विचार करना है तो ये दोनों बातें विपश्यना से साध्य होती हैं। शरीर में मन का भ्रमण होते हुए अगर थोड़ा भी अजीर्ण है तो उदर से मन को गुजारते समय उदर में स्थूल-स्थूल संवेदनाएँ प्रतीत होती हैं। कई बार नौली जैसी क्रिया भी स्वयं उत्पन्न होती है। वे अजीर्ण कम करने में भी सहायक होती हैं।

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शरीर में अन्यत्र पीड़ा या दुःख है तो वहाँ भी स्थूल-स्थूल संवेदनाएँ मिलती हैं, जो अपनी स्थिति का परिचय देती हैं जिससे मनुष्य अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हो जाता है। संवेदनाओं के प्रति अनित्य भाव जगाने से शरीर की आसक्ति मिटती है। इस अर्थ में चिंता दूर करने में सहायता मिलती है। मनोदोष दूर करने के उपाय इस वचन में बताए गए हैं-
'मानसोज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिमाधिभिः।' (अ.हृ. सूत्र-1)

विपश्यना संबंधी साहित्य में स्मृति का अर्थ जागरूकता बतलाया गया है। उपरोक्त वचन में स्मृति का अर्थ भी टीकाकारों द्वारा स्मरण से लिया जाता है। पर स्मरण और जागरूकता ये दोनों अर्थ वहाँ समीचीन दिखाई देते हैं, क्योंकि जो घटना वर्तमान में जागरूकता से अनुभव की जाती है वहीं भविष्य में स्मरण द्वारा ठीक तरह से समझी जाती है।

चरक शरीरस्थान अध्याय 1 और 6 में आत्यंतिक दुःख निवारण के उपाय बताए गए हैं। उनका जो सैद्धांतिक आधार है वह विपश्यना ध्यान के समय जो मनोभूमिका अपनानी है, उसके साथ सर्वथा मिल जाता है।

विपश्यना ध्यान का गहराई से अभ्यास करने वाले को कभी शरीर की शुद्धि करने वाले, परंतु विकार-सदृश्य लक्षण उत्पन्न होते हैं, जैसे कि मुख से वमन या गुदा मार्ग से विभिन्न रंगों का मल निष्कासन या अतिसार, नाक या अन्य छिद्रों से विभिन्न स्राव निकलना, श्वास-प्रश्वास का तीव्र हो जाना आदि। इसका स्पष्टीकरण आयुर्वेद के इस वचन से होता है। मूल पाठ है -

'वायोः निग्रहणेण मध्यमात्‌ = शाखा, मार्गातय दोषाः कोष्ठं यान्ति।'
अर्थात वायु का निग्रहण करने से हृदय, मस्तिष्क, संधि आदि मर्मरूपी महत्व के मार्ग से तथा रक्त, मांस इत्यादि धातु घटकों से विकारी दो वहाँ से अलग होकर कोष्ठ मार्ग में यानी नजदीक के रिक्त स्थानों में आ जाते हैं। प्रायः विधिशून्य आहार-विहार या उपचार से तथा और कई कारणों से दोष विभिन्न अवयवों के अंतर्वर्ती भागों में जमा हो जाते हैं। वहाँ उपचार करना भी दुष्कर होता है।

विपश्यना ध्यान में शरीर की हलन-चलन निग्रहपूर्वक कम करना अपेक्षित है। इसे वायोः च निग्रहात्‌ कहना बिलकुल ठीक ही है। इस ध्यान की स्थिति द्वारा दोषों का रिक्त स्थानों में आना स्वाभाविक हो जाता है। इसके पश्चात विकार स्वयं शरीर के बाहर निकल जाते हैं या देहशुद्धि के माध्यम से आसानी से बाहर निकाले जा सकते हैं।

आधुनिक मानसोपचार करके देखा। उससे कुछ फायदा दिखाई देने लगा था, पर साइड-इफेक्ट्स के कारण उन्हें बंद करना पड़ा था। मैं समझता हूँ कि जैसे उपरोक्त कथित आयुर्वेद का सिद्धांत है, मेरे मनोदोष, जिनका आधार शारीरिक था, वे कोष्ठगत होकर उल्टी द्वारा बाहर निकल पड़े - मानो कि मेरे मन में जो कड़वाहट थी, सचमुच कड़वे स्राव के रूप में बाहर निकल पड़ी। बाद में इस रोग के लिए किसी उपचार की जरूरत नहीं पड़ी। जिस पद्धति से मैं सुधरा, उसका वैद्यकशास्त्र के दृष्टिकोण से भी तो कोई अन्य अर्थ नहीं लगता।

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