दीपावली पर किए जाने वाले 12 पारंपरिक कार्य

दीपावली त्योहार को लेकर समाज में कई तरह की धारणाएं, परंपराएं और रीति रिवाज़ प्रचलित है। उनमें से कुछ का तो हिन्दू धर्म में उल्लेख है, लेकिन अधिकतर का स्थानीय संस्कृति और पहले से चली आ रही परंपरा से संबंध है। दीपों का पर्व होने के कारण दीपावली एक बहुत ही सुंदर त्योहार या उत्सव है। यह ठंड की शुरुआत का उत्सव भी है।

पांच पर्वों का त्योहार है दिवाली : यह त्योहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। कार्तिक माह की त्रयोदशी से शुक्ल द्वितिया तक यह त्योहार मनाया जाता है जिसमें कार्तिक माह की अमावस्या को मुख्य दीपावली पर्व होता है। अर्थात धनतेरस से भाई दूज तक यह त्योहार चलता है। आज से लगभग 50 वर्ष पहले तक इस त्योहार को शहर और गांव में एक जैसा ही मनाया जाता था लेकिन अब आधुनिकता के चलते शहरों में इस त्योहार की रंगत और रौनक बदल गई है जबकि गांवों में भी अब इस त्योहार का परंपरागत रूप बदल रहा है। आओ जानते हैं वे कौन-से ऐसे 12 कार्य हैं जो पांच दिन चलने वाले दीपोत्सव में किए जाते हैं।
 
दीपावली मनाने के कारण?

लिपाई-पुताई और नए कपड़े : इस त्योहार के आने के कई दिन पहले से ही घरों की लिपाई-पुताई, सजावट प्रारंभ हो जाती है। वर्षा के बाद गंदगी होने के बाद घर और संपूर्ण शहर तथा गांव की इस बहाने सफाई भी हो जाती है।
 
दीपावली से पूर्व नए कपड़े भी बनवाए जाते हैं। मान्यता अनुसार लक्ष्मीजी इन दिनों में विशेषरूप से विचरण करती है अत: जहां ज्यादा साफ-सफाई और साफ सुधरे लोग नजर आते हैं वहीं वह रम जाती है। इसीलिए लक्ष्मीजी के आगमन में चमक-दमक की ज्यादा जरूरत होती है।

धन्वंतरि पूजा : दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।
 
बहिखाते बदलना : धनतेरस के दिन व्यापारी अपनी दुकानों को साफ-सुधरा कर अपने बहीखाते नए बनाते हैं। आज ही के दिन व्यापारी अपने बही-खाते बदलते हैं तथा लाभ-हानि का ब्योरा तैयार करते हैं।
 
खरीददारी : इस दिन बाजारों में चारों तरफ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति इस दिन अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्तुएं खरीदता है। कोई इसी दिन वाहन खरीदता है तो कोई सोना या चांदी। धनतेरस के दिन जमकर खरीददारी भी की जाती है।

यम, कृष्ण और काली पूजा : धनतेरस के बाद नरक चतुर्दशी का पर्व होता है। इसे रूप चौदस भी कहते हैं। इस दिन जल्दी उठकर अच्छे से स्नान किया जाता है और रात्रि में इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। इसे छोटी दीपावली भी कहा जाता है।
 
* इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पांच अन्न के दाने डालकर इसे घर की नाली की ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।
 
* ऐसी धार्मिक धारणा है कि सुबह जल्दी तेल से स्नान कर देवी काली की पूजा करते हैं और उन्हें कुमकुम लगाते हैं।
 
* भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था। इसीलिए इस दिन श्रीकृष्ण की पूजा का भी महत्व है।

लक्ष्मी पूजा : धनतेरस के बाद रूप चौदस और रूप चौदस के बाद दीपावली आती है। दीपावली के दिन विष्णुप्रिया लक्ष्मी माता के साथ गणेशजी की पूजा की जाती है।
 
मान्यता अनुसार चौघड़‍िया का महायोग और शुभ कारक लग्न देखकर रात्रि में लक्ष्मी पूजा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। दीपावली के दिन विशेषतौर पर लक्ष्मी पूजा का ही प्रचलन है। लक्ष्मी कारक योग में पूजा करने से कर्ज से मुक्ति मिलती है तो दूसरी ओर अच्छी और शुद्ध भावना से लक्ष्मी की पूजा से धन और समृद्धि बढ़ती है।
 
 

गोवर्धन पूजा : दीवावली के दूसरे दिन अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है जिसे गोवर्धन पूजा का दिन भी कहते हैं। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। इस दिन को द्यूतक्रीड़ा दिवस भी कहते हैं।
 
इस दिन परस्पर भेंट का दिन होता है। एक-दूसरे के गले लगकर दीपावली की शुभकामनाएं दी जाती हैं। गृहिणियां मेहमानों का स्वागत करती हैं। लोग छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का भेद भूलकर आपस में मिल-जुलकर यह त्योहार मनाते हैं। 
 
इसी दिन को गोवर्धन पूजा होती है जिसे ग्राणिण क्षेत्रों में पड़वा कहते हैं। इस दिन परिवार, कुल खानदान के सभी लोग एक जगह इकट्ठे होकर गोवर्धन और श्रीकृष्ण की पूजा करने के बाद साथ में ही भोजन करते हैं। 
 
लोग गायों के गोबर से अपनी दहलीज पर गोवर्धन बनाकर पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर अचानक आई वर्षा से गोकुल के लोगों को बारिश के देवता इन्द्र से बचाया था। आजकल शहरों में यह पूजा नहीं की जाती लेकिन मेल मिलाप किया जाता है।

भाई दूज : शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। रक्षा बंधन पर भाई अपनी बहन को अपने घर बुलाकर राखी का त्योहर मनाता है, जबकि भाई दूज के दिन विवाहित बहन अपने भाई को अपने घर बुलाकर भोजन आदि कराकर उसे मिठाई आदि देती है। 
 
यह दीपोत्सव का पांचवा और अंतिम दिन होता है। इसे यम द्वितिया भी कहते हैं। ये भाई-बहनों का त्योहार होता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता। चाहे भाई कितना ही व्यस्त हो इस दिन आशीर्वाद लेने के लिए वह अपनी बहन के घर जाकर टीका जरूर लगवाता है।

मजेदार पकवान : आजकल त्योहारों से गायब हो रहे हैं पारंपरिक व्यंजन। अब लोग बनी बनाई मिठाई और पकवान ले जाते हैं और बांट देते हैं जो कि अनुचित है। इसी दिन पारंपरिक पकवान और मिठाइयां बनाई जाती हैं। हर प्रांत में अलग-अलग पकवान बनते हैं।
 
उत्तर भारत में ज्यादातर गुझिये, शक्करपारे, लड्डू, आलू की पूड़ी, चटपटा पोहा चिवड़ा, कुरकुरी नमकीन चकली, मावे की करंजी, नमकीन चना दाल, कद्दू के पेड़े, अनारसे, भाखरबड़ी, गुंजे, काजू कलिंगा,काजू कतली और काजू अनार, बाम्बे और कश्मीरी पेड़ा, बेसन की बर्फी, मूंग की दाल के छोटे समोसे, मालपुआ, मूंग की दाल का हलवा, केसरिया श्रीखंड, बालूशाही, गुलाब जामुन, जलेबी, पूरनपोली, खीर, पूड़ी, भजिये, कलाकंद, मैसूर पाक आदि सैंकड़ों मिठाईयां बनाई जाती है।

दीपक जलाना : दीपों का पर्व होने के कारण दीपावली एक बहुत ही सुंदर त्योहार या उत्सव है। यह ठंड की शुरुआत का उत्सव भी है। यह त्योहार कार्तिक माह की अमावस्या को मनाया जाता है।

इस अमावस्या को सबसे घनी अमावस्या माना जाता है, इसीलिए इसे दीपकों से रोशन किए जाने की परंपरा प्राचीनकाल से ही रही है। अमावस्या की अंधेरी रात जगमग असंख्य दीपों से जगमगाने लगती है।
 
आज कल लोग नकली दीये या लाइट वाले दीये लगाते हैं जोकि परंपरा के विरुद्ध और अनुचित है। कुछ लोग तो दीयों की जगह मोमबत्ती लगाने लगे हैं वह भी अनुनिच है। तेल के दीये का महत्व जानना जरूरी है। असंख्य दीपों की रंग-बिरंगी रोशनियां मन को मोह लेती हैं। दुकानों, बाजारों और घरों की सजावट दर्शनीय रहती है।

पटाखे और फुलझड़ियां : पटाखे छोड़ने और फुलझड़ियां जलाने की परंपरा कब से शुरू हुई यह तो हम नहीं बता सकते, लेकिन दीपावली के दिन पटाखे छोड़ने के प्रचलन अब अपने चरम पर है। संपूर्ण देख में करोड़ों रुपए के पटाखे जला दिए जाते हैं। 
 
पटाखों को बहुत ही सावधानी से छोड़ना चाहिए। यह देखा गया है कि घातक किस्म के पटाखों से बच्चों की मौत तक हो गई है और कुछ लोग जीवनभर के लिए अपंग तक हो गए हैं तो किसी की आंखें चली गई है। पटाखों के साथ खिलवाड़ न करें। उचित दूरी से पटाखे चलाएं।

जुआ खेलना : ज्योति पर्व दीपावली पर जुआ खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है क्योंकि इस त्योहार पर लोग जुआ शगुन के रूप में खेलते हैं। मान्यता अनुसार अन्नकूट महोत्सव के दिन जुआ खेला जाना चाहिए लेकिन कई लोग जानकारी नहीं होने के कारण दीपावली के दिन ही खेल लेते हैं। अन्नकूट पर्व को द्यूतक्रीड़ा दिवस भी कहते हैं। महाभारत काल में भी पांडव और कौरवों के बीच में इसी दिन जुए का खेल हुआ था और पांडव इसमें कौरवों के छल कपट के आगे हार गए थे।
 
मात्र रस्म के तौर पर इस दिन जुआ खेला जाता है। जुआ यदि मनोरंजन के लिए खेला जाए तो य कोई बुराई नहीं लेकिन घर व समाज के लिए यह बड़ी बुरी बात है। इस बुराई से बचना चाहिए। ऐसा देखा जाता है कि लोगों ने दीपावली पर शौक या शगुन के रूप में जुआ खेलने की शुरुआत की और उसमें हारने पर हारी हुई रकम हासिल करने के लिए आगे भी जुआ खेला और उन्हें इसकी लत लग गई।
 
जानकारों की माने तो देश की आधी आबादी करीब 45 प्रतिशत लोग दीपावली पर जुआ खेलते हैं। इनमें 35 प्रतिशत लोग ही शगुन के तौर पर जुआ खेलते हैं।
 
महाभारत में राजा नल और दमयंती की कहानी आती है। दोनों में बहुत प्रेम था। नल चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार वे अपने रिश्तेदारों के साथ चौसर खेलने बैठे। सोने की मोहरों पर दांव लगने लगे। राजा नल के रिश्तेदार कपटी थे, सो उन्होंने सारे खजाने के साथ उनका राजपाट, महल, सेना आदि सब जीत लिए। राजा नल की हालत ऐसी हो गई कि उनके पास पूरा तन ढंकने के लिए भी कपड़े नहीं थे। जुए के कारण पूरी धरती पर पहचाना जाने वाला राजा एक ही दिन में रंक हो गया। बाद में अपना राज्य दोबारा पाने के लिए नल को बहुत संघर्ष करना पड़ा। जुआ खेलने के कारण ही दुर्योधन के सब कुछ गवां दिया था।

टोने-टोटके या उपाय करना : कुछ लोग धन प्राप्ति के लिए या लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने के लिए अजीब अजीब टोटके करते हैं, उनमें से कुछ सात्विक उपाय होते हैं और कुछ टोटके होते हैं। इनमें से अधिकतर का धर्म से कोई संबंध नहीं यह स्थानीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है।
 
माना जाता है‍ कि दीपावली के पांच दिनों में खास करके धनतेरस, रूप चौदस और दीपावली के दिन कई तांत्रिक अनेक प्रकार की तंत्र साधनाएं करते हैं। वे कई प्रकार के तंत्र-मंत्र अपना कर शत्रुओं पर विजय पाने, गृह शांति बढ़ाने, लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने तथा जीवन में आ रही कई तरह की बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए विचित्र टोने-टोटके अपनाते हैं।
 
ऐसा माना जाता है माता लक्ष्मी के वाहन उल्लू को दीपावली की रात‍ पान खिलाने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर आपको संपूर्ण सुखों का आशीर्वाद देती है। 
 
कई लोग दीपावली पर लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए निम्न मंत्र का जाप करते हैं :- 
 
ऊं पहिनी पक्षनेत्री पक्षमना लक्ष्मी दाहिनी वाच्छा भूत-प्रेत सर्वशत्रु हारिणी दर्जन मोहिनी रिद्धि सिद्धि कुरु-कुरु-स्वाहा।
 
इस मंत्र को 108 बार पढ़कर गुगल गोरोचन छाल-छबीला कपूर काचरी, चंदन चूरा आदि सामग्री मिलाकर लक्ष्मी को प्रसन्न करने का टोटका आजमाते हैं।
 
तंत्र के नाम पर दीपावली की रात अब लोग श्मशान आदि का रुख कम ही करते हैं, लेकिन बाग बगीचे, मंदिर, आश्रम, धर्मशालाएं अधवा एकांत स्थान पर लोग हवन, यज्ञ, जाप या पूजा करते हैं। तांत्रिक लोग इस दिन विशेष श्मशान साधना करते हैं।

रंगोली और मांडना : रंगोली और मांडना हमारी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की समृद्धि के प्रतीक हैं, इसलिए 'चौंसठ कलाओं' में मांडना को भी स्थान प्राप्त है, जिसे 'अल्पना' कहा गया है। यह चित्रकला का एक अंग है।

भारत में मांडना विशेषतौर पर होली, दीपावली, नवदुर्गा उत्सव, महाशिवरात्रि और संजा पर्व पर बनाया जाता है। मांडनों को श्री और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। यह माना जाता है कि जिसके घर में इसका सुंदर अंकन होता रहता है, वहां लक्ष्मी निवास करती है।
 
मांडनों के प्रकार : स्थान आधारित, पर्व आधारित, तिथि आधारित और वर्षपर्यंत आधारित अंकित किए जाने वाले आदि।
 
मांडना का रंग : ग्रामीण क्षेत्रों में मांडना उकेरने में गेरू या हरिमिच, खड़िया या चूने का प्रयोग किया जाता है। गेरू या हरिमिच का प्रयोग बैकग्राउंड के रूप में जबकि विभिन्न आकृतियों और रेखाओं का खड़िया या चूने से। 
 
क्या बनाते हैं मांडना में : मांडना में चौक, चौपड़, संजा, श्रवण कुमार, नागों का जोड़ा, डमरू, जलेबी, फेणी, चंग, मेहंदी, केल, बहू पसारो, बेल, दसेरो, सातिया (स्वस्तिक), पगल्या, शकरपारा, सूरज, केरी, पान, कुंड, बीजणी (पंखे), पंच कारेल, चंवर छत्र, दीपक, हटड़ी, रथ, बैलगाड़ी, मोर, फूल व अन्य पशु-पक्षी आदि। (समाप्त)

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