खुशियों के ऑफर का चमकीला पैकेज

- स्वाति शैवाल

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त्योहार और शादी, भारतीय बाजार के दो प्रमुख आकर्षण हैं। इस समय छोटे दिहाड़ी मजदूर से लेकर करोड़पति आदमी भी यथासंभव खर्च करने की मनःस्थिति में रहता है। सालभर इन दोनों चीजों के हिसाब से कतर-ब्योंत कर पैसा जोड़ा जाता है। जाहिर है जब बात खरीदने या पैसा खर्चने की होती है तो बाजार का जोश दुगुना हो जाता है। सालभर के प्रमुख अवसरों के लिए क्या खेरची क्या बड़े ब्रांड सभी पूरे वर्ष तैयारी करते हैं। इसमें कई सारी नई योजनाओं के अलावा पैकेजिंग और विज्ञापनों जैसे तत्व बाजार की नीतियों का खास मुद्दा होते हैं।

वह कॉलोनी के मुहाने पर बनी एक छोटी-सी किराने की दुकान है, जिस पर दीपावली के लिहाज से खास साज-सजावट की जा रही है। कुछ बड़े खाद्य सामग्री के ब्रांड नई एवं आकर्षक पैकिंग में सबसे आगे रखे गए हैं। दुकान के मालिक रामचंद्र परियानी के अनुसार त्योहार के समय ज्यादातर ब्रांड विशेष तौर पर बाहरी पैकेजिंग पर खासा पैसा खर्च करते हैं।

बिस्किट तथा चॉकलेट्स से लेकर नमकीन और शैंपू, साबुन तक के गिफ्ट पैक बाजार में आ जाते हैं। इनकी सुंदर पैकेजिंग पर विशेष ध्यान दिया जाता है। साथ ही इनके साथ विभिन्ना किस्म के फायदों और नए बिंदुओं को भी हाईलाइट किया जाता है। इनमें लोगों के फिटनेस के प्रति बढ़ रहे लगाव एवं नए जमाने की पसंद जैसे बिंदुओं को भी शामिल कर लिया जाता है। उत्पादकों को मालूम होता है कि ये दिन तगड़ी कमाई के होते हैं, अतः वे सालभर से इसके लिए योजनाएँ बनाते हैं।

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विज्ञापनों की बाढ़ :- त्योहारों के अवसर पर अखबारों से लेकर पेमप्लैट, टीवी, पत्रिकाओं, रेडियो तथा होर्डिग्स तक पर ढेर सारे छूट और ऑफर के विज्ञापनों की भरमार रहती है। अधिकांशतः ऐसे में उपभोक्ता सामान खरीदते समय और खरीदने के बाद तक असमंजस की स्थिति में रहता है कि आखिर वो किसकी सुने।

और होता यह है कि त्योहार के उत्साह में 95 प्रतिशत लोग वे तमाम चीजें भी खरीद लाते हैं जिनकी उन्हें उस वक्त जरूरत नहीं होती या कभी भी नहीं होती। यही बाजार का आकर्षण है और इसमें उसे हर वक्त सौ में से सौ नंबर मिलते हैं। शायद आपको जानकार आश्चर्य हो, लेकिन बड़े-बड़े प्रतिष्ठित ब्रांड्स में केवल मार्केट सर्वे और उपभोक्ता के मूड को लेकर सर्वे करवाए जाते हैं और इन पर करोड़ों रुपए प्रतिवर्ष खर्च होते हैं।

सेलिब्रिटीज का ग्लैमर :- बाजार के पास उपभोक्ता को ललचाने के कई तरीके हैं और सेलिब्रिटीज से सजे विज्ञापन उनमें सबसे ऊपर हैं। जब काजोल या शाहरुख खान आपसे किसी एक ब्रांड की खूबियाँ बाँटते हैं तो सहसा आपको उस ब्रांड पर यकीन होने लगता है। यहीं से आप इस आकर्षण की गिरफ्त में आधे से ज्यादा आ चुके हैं। बाकी का काम फिर शोरूम वाले करते हैं। जनता या मासेस को आकर्षित करने के लिए सेलिब्रिटीज से अच्छा और कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि जनता इनका दीवानों की तरह अनुसरण करती है। यह बात बाजार अच्छी तरह जानता है।

पैकबंद गुझिया और पूजा :- त्योहारों पर बनने वाले पारंपरिक पकवानों से लेकर पूजा की सामग्री भी अब बाजार में आकर्षक पैकेजिंग के साथ उपलब्ध है। इससे बड़ी संख्या में लघु उद्योग जुड़े हुए हैं। त्योहार के समय इन लोगों की भी सालभर की अच्छी कमाई का वक्त होता है।

आपको बाजार में लक्ष्मीजी के पाने, दीये में लगाई जाने वाली बाती, चमकीली पन्नियों की झालरें तथा कंदील, गोवर्धन पूजा का सामान, लक्ष्मी पूजा का सामान, बनी-बनाई गुझिया, चकली, मठरी आदि या फिर इनको बनाने का कच्चा सामान पैकेट में बिकता दिख जाएगा। कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा परिवार इस अस्थायी व्यवसाय में जुटा नजर आता है। खासतौर पर निचली बस्तियों या ग्रामीण क्षेत्रों से आए परिवार त्योहार से जुड़ी छिटपुट सामग्री बेचने के लिए फुटपाथ पर बड़ी संख्या में बैठे दिखाई दे जाएँगे।

छूट व ऑफर्स का गणित:- यह कहा जाए कि प्रमुख त्योहारों या अवसरों पर कपड़े से लेकर गाड़ियों तक हर चीजें आपके सामने ढेर सारी छूट लेकर उपस्थित हो जाती हैं तो गलत नहीं होगा। दरअसल ठेठ भारतीय मानसिकता को समझने वाले बाजार को मालूम है कि आम आदमी किस दिन कर्ज लेकर भी खरीददारी करेगा। इसलिए वह खासतौर पर अपनी विशेष स्कीम और लाभ की तमाम योजनाएँ इन्हीं दिनों में लागू करती है। भारत का यह बाजार अब पूरी दुनिया की नजरों में चढ़ चुका है।

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प्रति व्यक्ति बढ़ती आय तथा भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था हर देश के लिए फायदे का सौदा है। इसलिए अमेरिका से लेकर चीन तक, सभी इस बाजार में दाँव लगाना चाहते हैं। यहाँ अमेरिका और जापान जैसे देश अगर तकनीकी रूप से बाजार पर छाने में सक्षम हैं तो सस्ता तथा सुंदर (टिकाऊ नहीं) चीन का मूलमंत्र है और शायद यह बात जानकर ज्यादातर लोगों को आश्चर्य हो कि मंदी के दौर से गुजर रहे देशों के लिए भारतीय बाजार एक तरह से ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं। आपने खुद भी इस बात को महसूसा होगा कि क्या आपको मंदी के पूरे वर्ष एक भी दिन बाजार में भीड़ कम दिखाई दी?

कर्ज व ब्याज का बाजार :- यह बात बाजार अच्छी तरह समझता है कि बड़े त्योहारों तथा शादी-ब्याह के मौकों पर एक आम भारतीय अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा खर्च भी मुस्कुरा के करने को तैयार रहता है। आज भी हमारे यहाँ आदमी खुद से ज्यादा दूसरों के लिए खर्च करने को तैयार रहता है। मसलन घर पर पुताई से लेकर नए कपड़े तक खरीदने की रस्म वह दुनिया को दिखाने के लिए करता है बजाय खुद को खुश करने के। या कहें कि इसी में उसे खुशी मिलती है।

असल में हमारी खुशियाँ दूसरों को दिखाने के लिए ज्यादा उबलती हैं। यही कारण है कि दस हजार पटाखों की लड़ चलाने से लेकर शादी में पाँच सौ लोगों को बुलाने तक का काम किया जाता है और हमारी इस मानसिकता को बाजार भलीभाँति पहचानता है। इसलिए तमाम उत्पादनों के साथ आकर्षक बैंक फाइनेंस और नो डाउन पैमेंट तथा किस्तों में रकम अदायगी जैसे लॉलीपॉप जोड़े जाते हैं जो भीड़ को खींचने का काम करते हैं। घर जैसी बड़ी चीज तो ठीक लोग कर्जे पर मोबाइल तक खरीद डालते हैं। प्रदर्शन की यह भूख ही बाजार में उत्पादकों के लिए ऑक्सीजन के डबल डोज का काम करती है। यदि ये न हो तो शायद ही इतने नए ब्रांड और वस्तुएँ बाजार में देखने को मिलें।

भावनात्मक स्वरूप :- इस पूरे बाजारीय गणित में एक चीज है जो अचानक कभी भीड़भाड़ में हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। पूरे घर के लिए नए कपड़े, गहने, कार या अन्य सामान खरीदने में एक मध्यमवर्गीय परिवार तक लाखों रुपए खर्च कर डालता है, लेकिन उसे आनंद नहीं आता। त्योहार भी आज रस्मी तौर पर ज्यादा मनाए जाते हैं। कई बार आप लोगों के मुँह से यह वाक्य सुन सकते हैं कि 'भई... अब त्योहार में वो मजा नहीं रहा, जो पहले रहा करता था।'कारण यही कि हमने प्रगतिशीलता की राह पर खुद को भौतिकवादी तो बनाया ही, हम कहीं न कहीं नए को अपनाने के चक्कर में पुराने को बिलकुल ही भुला बैठे।

पहले किसी एक घर में बनने वाली गुझिया के लिए मोहल्ले भर की भाभी-काकी-मामी मिलकर अंदाज से न केवल सामग्री तैयार करतीं बल्कि गुझिया बनाने के लिए भी हाथों की ही कलात्मकता का सहारा लिया जाता था। सालभर से बड़े त्योहारों का उत्साह घर के बच्चों से लेकर बड़ों तक के चेहरे पर दमकता था। कारण... तब नए कपड़ों का घर में आना भी एक बड़ा अवसर होता था और त्योहारों से बढ़कर उपयुक्त अवसर इसके लिए कुछ हो ही नहीं सकता था।

आज आप चलते-फिरते ही कभी भी मॉल्स या शोरूम्स से हजारों रुपए के ब्रांडेड कपड़े खरीद डालते हैं। इसके लिए किसी खास अवसर का इंतजार नहीं किया जाता। पहले ज्यादातर घरों पर दीपावली में दीये ही रोशन होते थे, बिजली की लड़ियाँ बहुत कम या रसूखदार लोगों के घरों पर दिखाई देती थीं। आजकल हर घर में दीयों की बजाय इन्हीं लड़ियों को तवज्जो दी जाती है। ये वो बदलाव है जो विकास के रास्ते आए हैं और इनका होना जरूरी भी है। ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है मानवीय भावनाओं को बनाए रखना। यदि हम संवेदनशीलता और रिश्तों में दूरी न आने दें तो विकास और भावनाएँ दोनों का मजा ले सकेंगे।

हमारे देश में आम आदमी की खुशियाँ मुख्य तौर पर दो चीजों पर आधारित होती हैं। एक है फसल और दूसरी त्योहार। कहीं न कहीं ये दोनों भी एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। अगर फसल अच्छी हुई तो त्योहार भी अच्छे से मनेंगे और त्योहार अच्छे से मने तो फसल का प्रतिदान भी अच्छा मिल सकेगा। सारी खुशियाँ इन्हीं के आसपास घूमती नजर आती हैं। किसी साल जब अच्छी वर्षा से बंपर फसल की उम्मीद लगाई जाती है तो यह वाक्य भी साथ जोड़ा जाता है कि 'अबके त्योहार अच्छा मनेगा।'

जिस साल पानी अच्छा न गिरे उस साल कहा जाता है-'इस बार तो त्योहार बिगड़ गया।' इन दोनों ही स्थितियों में बाजार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह एक चक्र है जिसका घूमते रहना जरूरी है। भारत तेजी से बड़े व विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े होने की ओर अग्रसर है। अगर दूसरे देश हमारे बाजार में संभावनाएँ तलाश रहे हैं तो हम भी कई चीजों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हुए हैं। इन दोनों का संतुलन बने रहना ही भविष्य की तस्वीर तय करेगा। फिलहाल तो इस दिवाली मंदी के बादलों के छँटने की खुशी मनाइए और बाजार का रुख कीजिए। 'हैप्पी शॉपिंग।'

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